पी चिदंबरम ने बिल्कुल सही कहा है कि नये नोट छापने में जो पंद्रह से बीस हज़ार करोड़ का ख़र्च होगा, सरकार इस क़दम से अगर उतनी आमदनी नहीं कर सकती है तो इस क़दम से राष्ट्र को सीधा नुक़सान होगा।
सरकार अगर यह उम्मीद करती है कि लोग दो सौ प्रतिशत पैनल्टी देने के लिए बैंकों में अपना काला धन जमा करेंगे तो वह मूर्खों के स्वर्ग में वास कर रही है।
तब सवाल उठता है कि सरकार को आमदनी कैसे होगी ?
सालों पहले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स ने जर्मनी के ऐसे ही एक संदर्भ में कहा था कि करेंसी बदलने से नहीं, अर्थ-व्यवस्था को लाभ होता है रोज़गार बढ़ाने से।
जर्मनी में भी तब कुछ इसी प्रकार का बहाना बनाया गया था कि यहूदियों की काली अर्थ-व्यवस्था को रोकने और फ्रांस और इंग्लैंड से आने वाली नक़ली मुद्रा पर क़ाबू पाने के लिये यह क़दम उठाया जा रहा है।
कीन्स ने कहा था कि जब किसी सरकार की विश्वसनीयता कम होने लगती है तभी वह इस प्रकार के झूठे और दिखावटी काम किया करती है।
According to the great economist John Maynard Keynes,
“There is no subtler, no surer means of overturning the existing basis of society than to debauch the currency.
The process engages all the hidden forces of economic law on the side of destruction, and does it in a manner which not one man in a million is able to diagnose.”
कहना न होगा, सरकार का इस प्रकार अचानक लगभग 90 प्रतिशत करेंसी को बदलने का फ़ैसला
इससे इतनी गहरी मंदी आयेगी, जिससे आसानी से निकलना मुश्किल होगा। और मंदी का अर्थ ही है उस अनुपात में अर्थ-व्यवस्था की हत्या।
भारत में रोज़गारों की स्थिति के बारे में विश्व बैंक का मानना है कि ऑटोमेशन के चलते आने वाले एक दशक में भारत में रोज़गारों में काफी कमी आएगी। इसके लगभग 70 प्रतिशत तक कम होने की आशंका है।
मोदी सरकार के विमुद्रीकरण की तरह के क़दम इस प्रक्रिया को बेहद तेज़ करने वाले क़दम साबित होंगे।
अर्थात जिस ख़तरे का अंदाज दस साल में किया जा रहा है, वह चंद सालों में ही प्रत्यक्ष होने लगेगा।
अरुण माहेश्वरी