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#DeMonetisation अमेरिका में नस्लीय दंगे, (Racial riots in america) शुरू और हम नस्लवाद के शिकंजे में हैं!

लीक हुए नोट बदल का आप क्या खाक विरोध करेंगे?

जनता जब प्रतिरोध करना भूल जाती है तो उसके लिए गैस चैंबर ही बनते हैं।

अब वह दिन भी दूर नहीं जब कोई अरबपति भारत का भाग्यविधाता बन जायेगा।  हम अमेरिका की राह पर हैं लेकिन हम अमेरिकी नहीं हैं। हमें सड़क पर उतरने की हिम्मत ही नहीं होती। जय हो।

अमेरिका में नस्ली दंगे फिर शुरु हो गये हैं। गृहयुद्ध से कभी अब्राहम लिंकन ने अमेरिका को बचाया था और कुक्लाक्स के पुनरूत्थान से अमेरिका में फिर गृहयुद्ध है।

हम दसों दिशाओं से दंगाइयों से घिरे हैं, लेकिन युद्धोन्मादी बन जाने का मजा यह है कि गृहयुद्ध की आंच से आपकी पतंजलि कांति को तनिक आंच नहीं आती है, जी।

अबाध पूंजी प्रवाह का मतलब पूरी अर्थव्यवस्था कालेधन की बुनियाद पर है।

कामायनी बालि महाबल ने एकदम सही लिखा हैः

99% of black money is with 1% of people. So,  99% of people are tortured for 1% of black money. #DeMonetisation

अब खुल्ला खेल फर्रूखाबादी है।

इतना खुल्ला बाजार है कि कालाधन के बहाने आम जनता को नंगा करके खुदरा कारोबार और देश में तमाम धंधों पर एकाधिकार कायम करने के खतरनाक राजनीतिक खेल सिरे से बेपर्दा है।

हमें पहले जो आशंका हो रही थी रिजर्व बैंक की भूमिका को लेकर, उसकी स्वायत्तता के उल्लंघन को लेकर, गांधी और अशोक चक्र को हाशिये पर डालने की प्रक्रिया को लेकर, वह अब सिर्फ आशंका नहीं, नंगा सच है।

कैशलैस सोसाइटी बनाकर नेट बैंकिंग और क्रेडिट डेबिट कार्ड की डिजिटल अर्थव्यवस्था के मार्फत छोटे और मंझोले कारोबारियों को खुदरा बाजार से बेदखली का चाकचौबंद इंतजाम है जबकि हालात यह है कि कोई बैंक यह गारंटी देने की हालत में भी नहीं है कि आपका खाता सुरक्षित है।

डिजिटल बैंकिंग

अपने जोखिम पर आप बखूब कर सकते हैं जैसे शेयर बाजार में हर स्रोत से लगा और आपकी सहमति के बिना लगाया गया पैसे का जोखिम भी आपको ही उठाना है।

राजीव खन्ना ने एकदम सही लिखा हैः

इसके उलट बड़े शहरों में उच्च मध्यम वर्ग का जीवन जैसे के तैसा चल रहा है।  paytm ,  क्रेडिट कार्ड ,  online shopping और उधार योग्यता (credit worthiness ) जैसी सुविधाओं के रहते उनके रोज़मर्रा के जीवन में कुछ अधिक उथल पुथल नहीं हुई।  सुनने में आ रहा है की उनकी जमा की गयी रकम भी शायद कुछ बट्टा देने पर सुरक्षित हो सकती है।

इस कवायद का मतलब वही ऑनलाइन मुक्तबाजार है जिससे भारत को दुनिया की सबसे बड़ी खुली अर्थव्यवस्था बनानी है।

अजित साहनी का कहना हैः

40 करोड़ लोग एक महीने में कुल 500 नहीं कमा पाते,  80 करोड़ लोग ऐसे हैं देश में,  जो एक दिन के लिए 500 का नोट पास में रखें तो भूखे मर जाएंगे।

#दो करोड़ लोग होंगे देश में जिनके पास काला धन हो सकता है,  उसमें भी 20 लाख लोगों के पास पूरे काले धन का 98 % होगा।

जनांदोलन है नहीं। जनप्रतिबद्धता मुंहजुबानी है। विचारधारा और मिशन एटीएम हैं।

तो सत्ता वर्चस्व कायम रखने के लिए यूपी और पंजाब जैसे राज्यों के चुनाव में विपक्ष को कैशलैस करने की कवायद से आपको तकलीफ तो होनी है।

जनता जब प्रतिरोध करना भूल जाती है तो उनके लिए गैस चैंबर ही बनते हैं।

कुछ भी साबित करने की जरूरत अब नहीं है।

इसी बीच हिंदी गुजराती और दूसरी भाषाओं में भी राष्ट्र के नाम संबोधन से काफी पहले, यहां तक कि 2015में ही राष्ट्रीय नेतृत्व ने यह सार्वजनिक खुलासा कर दिया था कि पांच सौ और एक हजार के नोट खारिज हो जाने वाले हैं।

जिनके पास अकूत कालाधन है, उनके लिए विदेशों में कानूनी तौर पर करोड़ों डालर स्थानांतरित करने का इंतजाम भी हो गया और विदेशी निवेश के रास्ते ज्यादातर कालाधन का निवेश विकास के खाते में इतना भयंकर निवेश बन चुका है कि देश अब निजी संपत्ति है और सार्वजनिक संपत्ति नामक कोई चीज नहीं रह गयी है और नागरिकों को जल जंगल जमीन नागरिकता से उखाड़कर विस्थापित बना दिया गया है।

ट्रिलियन डालर तो सिर्फ सड़कों और जहाज रानी में निवेश है।

बाकी विदेशी निवेश के आंकड़े मिले तो पता चलेगा कि कितना कालाधन कहां है।

आम जनता के खाते खंगालकर फूटी कौड़ी नहीं मिलने वाली है। बेनामी का गोरखधंधा जारी है बेलगाम।

अमेरिका में संघीय राष्ट्र व्यवस्था है।

राष्ट्रपति चुनाव में जब किसी प्रत्याशी को किसी राज्य में बहुमत इलेक्ट्राल वोट मिलते हैं, तो उस राज्य के सारे वोट उसी के नाम हो जाते हैं। इस हिसाब से हिलेरी के मुकाबले डोनाल्ड ट्रंप को राज्यों के 276 वोट मिल गये जो जरूरी 270 से छह ज्यादा हैं।

इसी के बाद चुनाव परिणाम की घोषणा हो गयी और जैसे अल गोरे को बुश के मुकाबले जनता के वोट ज्यादा मिलने की वजह से हारना पड़ा,  उसी तरह हिलेरी भी जनता के बहुमत का समर्थन पाकर भी हार गयीं।
सैंडर्स अगर डेमोक्रेट प्रत्याशी होते तो ट्रंप की जीत इतनी आसान नहीं होती।
चुनाव के दौरान अमेरिकी हितों के खिलाफ हिलेरी की तमाम गतिविधियों के इतने सबूत आये कि श्वेत जनता के ध्रुवीकरण की रंगभेदी कु कल्क्स क्लान संस्कृति के मुकाबले अमेरिकी जनता को कोई विकल्प ही नहीं मिला। लेकिन चुनाव की घोषणा के तुरंत बाद से अमेरिका भर में अश्वेत जनता सड़कों पर हैं तो श्वेत जनता का हिस्सा जो नस्लवाद के खिलाफ है, महिलाएं भी सड़कों पर हैं और खुलकर कह रहे हैं कि प्रेसीडेंट ट्रंप उनका राष्ट्रपति नहीं है।

इसी से अमेरिका में नस्ली दंगे भड़क रहे हैं।

गौरतलब है कि यह जनविद्रोह किसी राजनीतिक दल का आयोजन नहीं है। स्वतःस्फूर्त इस जनविद्रोह में राज्यों से भी अमेरिका से अलगाव के स्वर तेज होने लगा है।
कैलिफोर्निया में अमेरिका से अलगाव का अभियान तेज हो गया है।
अमेरिका का यह संकट सत्ता पर कारपोरेट वर्चस्व की वजह से है तो युद्धक अर्थव्यवस्था पर एकाधिकारवादी वर्चस्व भी इसका बड़ा कारण है।

इसी एकाधिकारवादी वर्चस्व के प्रतिनिधि धनकुबेर ट्रंप ने अमेरिकी लोकतंत्र को हरा दिया है, जो सिरे से नस्लवादी है।

हार गया है अमेरिका का इतिहास भी।

अमेरिका से पहले हमने भारत को हरा दिया है। इतिहास और संस्कृति को हरा दिया है। सहिष्णुता औैर बहुलता विविधता की हत्या कर दी है.... अमेरिकियों को फिरभी अहसास है और हमें कोई अहसास नहीं है।

दूसरी ओर, भारत में हम अपनी अपनी जाति, पहचान, अस्मिता और आस्था के तिलिस्म में घिरे हुए इसी नस्ली नरसंहार संस्कृति के कु क्लक्स क्लान के गिरोह में शामिल हैं और इसी के साथ हम असमानता और अन्याय की बुनियाद पर खड़ी पितृसत्ता को अपना वजूद मानते हैं।
इसीलिए हमने सिखों के नरसंहार के खिलाफ आवाज नहीं उठायी।
मध्य बिहार के नरसंहारों के हम मूक दर्शक रहे तो आदिवासी भूगोल में जारी सलवाजुड़ुम से हमारी सेहत पर असर होता नहीं है।

गुजरात के नरसंहार और बाबरी विध्वंस के पीछे हम तमाम दंगों में हिंदू राष्ट्र के पक्ष में बने रहे हैं और दलितों और पिछड़ों, शरणार्थियो को मुसलमानों के साथ दंगों की सूरत में या वोटबैंक समीकरण सहजते हुए ही हिंदू मानते हैं लेकिन अस्पृश्यता के साथ असुर राक्षस वध की तरह उनके नरसंहार के खिलाफ भी हम नहीं हैं।

हर स्त्री हमारे लिए सूर्पनखा है, दासी है या देवदासी हैं, जिन्हें हम उनकी तमाम योग्यताओं के बावजूद उनके ही परिवार में पले बढ़े होने के बावजूद मनुष्य नहीं मानते हैं। स्त्री आखेट रोजमर्रे की जिंदगी है और किसीको शर्म आती नहीं है।

आदिवासियों को हम देश और समाज की मुख्यधारा में नहीं मानते तो हिमालय क्षेत्र और पूर्वोत्तर के लोग हमारी नजर में नागरिक ही नहीं है। नागरिक और मानवाधिकार, पर्यावरण और जलवायु की हमें कोई परवाह नहीं है।
हम अमेरिकी नागरिकों की तरह युद्ध के विरुद्ध कोई आंदोलन नहीं कर सकते।
हमने जल जंगल जमीन और नागरिकता से बेदखली के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं किया है।

हमने खुले बाजार के खिलाफ 1991 से लेकर अब तक कोई आंदोलन नहीं किया है।

किसी भी राजनीतिक दल ने आर्थिक सुधारों का अबतक विरोध नहीं किया है।

आधार परियोजना के जरिये जो नागरिकता, गोपनीयता और संप्रभुता का हरण है, नागरिकों की खुफिया निगरानी है, उसका भी किसी रंग की राजनीति ने अब तक कोई विरोध नहीं किया है।

हम देश भक्तों ने रक्षा, आंतरिक सुरक्षा और परमाणु ऊर्जा में विनिवेश का किसी भी स्तर पर विरोध नहीं किया है और न हम सरकारी उपक्रमों के अंधाधुंध निजीकरण का कोई विरोध किया है।
हमने बैंकिंग, बीमा, शिक्षा , चिकित्सा, संचार, उर्जा कुछ प्राइवेट हो जाने दिया है।

हम नदियों और समुंदरों की बेदखली के बाद कोक और मिनरल में जी रहे हैं और आक्सीजन सिलिंडर पीठ पर लादकर जीने के लिए बेताब हैं।

यही वजह है कि ट्रंप का जो विरोध अमेरिका में स्वतःस्फर्त है, वैसा कोई विरोध न हमने 1091 के बाद से लेकर अब तक देखा है और न खुल्लमखुल्ला नस्ली नरंसंहार की सत्ता का हमने मई, 2014 के बाद अबतक कोई विरोध किया है।

अब करेंसी बदलने के बहाने कैशलैस सोसाइटी में कारोबारियों के कत्लेआम के जरिये जो एकाधिकार वर्चस्व कायम करने की कवायद है, उसके लिए हम सीधे सत्ता से टकराने की बजाय फिर आम जनता की आस्था को लेकर उसे निशाने पर रखकर चांदमारी करके इसी नस्ली फासीवाद के पक्ष में ही ध्रुवीकरण उसी तरह कर रहे हैं जैसे अश्वेतों के खिलाफ अमेरिका में श्वेत ध्रुवीकरण हुआ है और जैसा हमने अमेरिका से सावधान में चेताया है, उसी तरह अमेरिका का विघटन और अवसान सोवियत इतिहास को दोहराकर होना है।

अमेरिका में राजनीतिक कोई विकल्प नहीं है तो भारत में भी कोई राजनीतिक विकल्प नहीं है।

अमेरिका का हाल वही हो रहा है जो सोवियत इतिहास है।

अमेरिका और सोवियत के बाद हमारा क्या होना है, हमने अभी सोचा ही नहीं है। कश्मीर या मध्यभारत पर चर्चा निषिद्ध है तो पूर्व और पूर्वोत्रभारत में अल्फाई राजकाज है।
एटीएम से पैसा निकल नहीं रहा है और इस देश का प्रधानमंत्री पेटीएम के मॉडल हैं।
इससे बेहतरीन दिन और क्या हो सकते हैं कि सवा अरब जनता एटीएम के बाहर चक्कर लगा रहे हैं और पीएम विदेश दौरे पर हैं। परमाणु चूल्हे खरीद रहे हैं। हथियारों के सौदे कर रहे हैं।

सत्ता दल के नेताओं तक राष्ट्र के नाम संबोधन से पहले नये नोट पहुंच चुके हैं और बैंकों में पैसे रखकर भी सारे नागरिक दाने-दाने को मोहताज हैं।

जी हां, 1978 में भी नोट वापस लिये गये थे। एक हजार और दस हजार के नोट। नैनीताल जैसे पर्यटक स्थल पर एमए की पढ़ाई करते हुए भी उनमें से किसी नोट का हमने दर्शन नहीं किया।

उस वक्त सौ रुपये का नोट भी मुश्किल से गांव देहात में निकलता था। इसलिए नोट बदल जाने से कहीं पत्ता भी हिला कि नहीं, कमसकम हमें मालूम नहीं है।

अब इस देश में एटीएम में बहनेवाली सारी नकदी पांच सौ और हजार रुपये में है। जिन्हें एकमुश्त खारिज कर देने का सीधा मतलब यह है कि आम जनता को क्रयशक्ति से जो वंचित किया गया है, वह जो है सो है, लेकिन इसका कुल आशय बाजार पर एकाधिकार वर्चस्व है और किसानों के बाद अब छोटे और मंझौले कारोबारियों और व्यवसायियों का कत्लेआम है।

बाजार में खुदरा कारोबार ठप है। कई दिनों से।

सब्जी अनाज से लेकर फल फूल मांस मछली का कारोबार ठप है और किराने की दुकानों में मक्खियां भिनभिना रही हैं। आम जनता की कितनी परवाह है?

पलाश विश्वास