अमिताभ बच्चन ने कभी दिलीप कुमार के बारे में कहा (Amitabh Bachchan's statement about Dilip Kumar) था कि ‘वे महान कलाकार हैं। कोई भी कलाकार जो यह कहता है कि वह उनसे प्रभावित नहीं है झूठ बोलता है।’ पर मेरा मानना है कि दिलीप कुमार एक अच्छे इंसान पहले हैं और कोई भी आदमी उनसे मिल कर प्रभावित नहीं होता है तो वह झूठ बोलता है। उनसे मिलना, बातें करना और उन्हें सुनना अपने आप में एक अनुभव से गुजरने जैसा है। आबशारों सी गुनगुनाती उनकी बात करने की शैली किसी को भी अपने सम्मोहन में जकड़ सकती है। बीच-बीच में हौले से मुस्कुराना। फिर बुजुर्गों के अंदाज में किसी ख़ास बिंदू को समझाना, उनकी शख़्सियत को और भी विस्तार देती है।
16 फरवरी, 1993। स्थान ताज बंगाल होटल, कलकत्ता (अब कोलकाता)। क़रीब आठ घंटे की कोशिश के बाद उनसे मुलाकात हुई। 17 फरवरी को उन्हें एक जलसे में हिस्सा लेना था। देश में छह दिसंबर 1992 के बाद जो माहौल बन गया था उसके ख़िलाफ़ कलकत्ता में जलसा किया जा रहा था। सांप्रदायिक दंगों से जल रहे देश को दिशा देने के लिए सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ लोग जमा हो रहे थे। दिलीप कुमार भी उनमें से एक थे।
वे एक दिन पहले कलकत्ता आए। सुबह लगभग नौ बजे फोन किया, उनके साथ आए सेक्रेटरी जान ने फोन पर बताया दिलीप साहब आराम कर रहे हैं। मेरा परिचय जानने के बाद उन्होंने यह वादा ज़रूर किया कि दिलीप साहेब से वे मेरी बातचीत ज़रूर कराएंगे। उन्होंने मेरा टेलीफोन नंबर लिया। थोड़ी देर बाद फिर फ़ोन किया तो जान का जवाब था- वे आराम कर रहे हैं लेकिन आप निश्चित रहें, मैं आपकी उनसे बातचीत ज़रूर कराऊंगा। पर मुझे यकीन नहीं था। मुझे लगा वह मुझे टरकाने के
बीच में कई बार जान को फ़ोन किया और हर बार जान का जवाब था, वे आराम कर रहे हैं।
मैं मायूस और नाउम्मीद हो चुका था। पर क़रीब चार बजे जान का फोन आया। फौरन आ जाएं। साहब जाग गए हैं और वे आपसे बात करने के लिए तैयार हैं।
सचमुच मुझे यकीन नहीं आया था। पर मैंने होटल पहुंचने में देर नहीं की। जीते जी किंवदंती बन चुके दिलीप कुमार से मिलने का ‘जुनून’ मुझे नर्वस किए दे रहा था। क्या उनसे बात कर पाऊंगा मैं? उन्हीं सवालों के बीच जब उनके कमरे में दाख़िल हुआ तो होंठों पर खेलती मुस्कुराहट से उन्होंने मुझे खुशआमदीद कहा।
उनके लबो-लहजे से मैं थोड़ा आशवस्त हुआ। सफेद प्रिंस सूट में वे ख़ूब जंच रहे थे।
‘कहिए क्या पूछना है?’
मैं कुछ पूछता इससे पहले ही वे सवाल जड़ देते हैं।
तब पूरा देश 6, दिसंबर 1992 की घटना के बाद जल रहा था और मुंबई भी उस आग में जली थी। जाहिर है फ़िल्म के अलावा उनसे उन मुद्दों पर ही पहले बातचीत हुई जिससे पूरा देश जूझ रहा था।
अयोध्या और दंगा (Ayodhya and Riot) भी बातचीत का विषय रहा और ‘कलिंगा’ के निर्देशन की बातचीत भी हुई।
पेश है वह पूरी बातचीत जो क़रीब दो घंटे तक चली। हालांकि इस यादगार इंटरव्यू के बाद आज भी एक बात मुझे कचोटती रही है कि उनसे साथ मैं एक फोटो नहीं खिंचवा सका। हालांकि फ़िल्म वालों के साथ फोटो खिंचवाने का ख़ब्त मुझे कभी नहीं रहा है। पर दिलीप साहब के साथ फोटो न खिंचवाने का अफसोस आज भी है। हां अपनी बेटी सुंबुल के लिए उनका ऑटोग्राफ ज़रूर लिया।
दिलीप कुमार ने उर्दू में यह ऑटोग्राफ (Dilip Kumar's autograph) दिया था। बातचीत से पहले उनका मैंने ऑटोग्राफ लेना चाहा था। उन्होंने बेटी का नाम पूछा और फिर बातों में मशग़ूल हो गए थे।
दो घंटे के बाद बातचीत ख़त्म हुई। चाय पीने के बाद वे कहीं बाहर जाने के लिए कमरे से बाहर निकले तो मैं भी उनके साथ हो लिया था। होटल की लॉबी में एक बच्ची ने उनसे ऑटोग्राफ मांगा, तो उन्होंने बच्ची के गाल को थपथपाया और कहा कि पहले आप मुझे एक पप्पी दो तो मैं तुम्हें ऑटोग्राफ दूंगा। तब वे किसी बच्चे की तरह लगे।
बच्ची को पहले उन्होंने दुलारा, प्यार किया और ऑटोग्राफ दिया। बाहर निकलने लगे तो मैंने उन्हें आटोग्राफ़ की याद दिलाई।
वे हौले से मुस्कुराए और मेरी डायरी पर बेटी का नाम लिखा, आगे लिखा ‘दुआओं के साथ’। फिर नीचे अपने दस्तख़्त कर दिए।
पहले दो वाक्य या यूं कहें कि एक वाक्य उन्होंने उर्दू में लिखे थे और दस्तख़त अंग्रेज़ी में किया था। उनकी याददाश्त को लेकर मैं हैरत में था। दो घंटे के बाद भी उन्हें मेरी बेटी का नाम याद था। यह उनके जीनयिस होने का सबूत था।
दस्तख़त करने के बाद वे हौले से अपने ख़ास अंदाज़ में मुस्कुराए और कहा-तसल्ली हो गई। मुझे याद था कि आपकी बिटिया के लिए आटोग्राफ़ देना है।
कलकत्ते में दिलीप कुमार से हुई लंबी बातचीत के कुछ ख़ास हिस्सा यहां पेश है। हालांकि बातचीत में उनके निर्देशन में बन रही फ़िल्म ‘कलिंगा’ का ज़िक्र भी आया था। उस फ़िल्म को लेकर वे ख़ासे उत्साहित थे। लेकिन वह फ़िल्म कुछ वजहों से बन नहीं पाई। उस अधूरी फ़िल्म को लेकर किए गए सवाल न तो आज प्रासंगकि हैं और न ही उनके जवाब। इसलिए ‘कलिंगा’ को लेकर जो सवाल-जवाब उसे छोड़ दे रहा हूं। हालांकि निर्देशन के अनुभवों को लेकर उन्होंने जो कहा है और वह प्रसंग जितना ज़रूरी समझा उसे यहां ज़रूर पेश कर रहा हूं।
* आज के माहौल में मज़हब व सियासत का रिश्ता फिर कैसा होना चाहिए?
* अयोध्या मसले का हल आपकी नजर में क्या है? –
देखिए यह सब मसला गड़े मुर्दे उखाड़ना है। यह मुर्दे कौन उखाड़ रहा है, इसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूं।
* मौजूदा माहौल में एक कलाकार के नाते आप क्या सोचते हैं?
* ‘कलिंगा’ का सब्जेक्ट क्या है और क्या कहानी आपकी है?
* क्या इस दौरान कभी आपको यह भी लगा कि निर्देशन के क्षेत्र में आपने देर से कदम धरा है और बहुत कुछ कहीं छूट गया है?
- देखो मियां, मेरा मानना है कि हर चीज का एक समय होता है। निर्देशन में उतरने का शायद यही सही वक्त रहा हो मेरे लिए। मुझे इसका मलाल नहीं है कि मैंने निर्देशन में देर से पांव धरा क्योंकि सिनेमा मैंने अपने तरीके से किया। फिल्में वही कीं जो मुझे अच्छी लगीं। पर कुछ चीजें हैं, जो कहीं कुछ छूट गई हैं। बढ़ती उम्र के साथ इसका और शिद्दत से एहसास हो रहा है कि बहुत सारी चीजों को मैंने हाथों से निकल जाने दिया। और यकीन करें वक्त के इस तरह जाया होने का अफसोस है। फिर माज़ी के दरीचे से झांकता हूं तो मुझे अपनी पढ़ाई पूरी न कर पाने का अफसोस है। फिर मुझे विश्व साहित्य न पढ़ पाने का भी बेहद मलाल है।
* किस तरह का साहित्य आप पढ़ना चाहते थे और वे कौन से लेखक थे जिन्हें आप नहीं पढ़ पाए? –
देखो, जैसा मैंने कहा कि विश्व साहित्य के लिए मैं ज्यादा समय नहीं निकाल सका। ख़ास तौर से मैं कुछ मशहूर आटोबायोग्राफी पढ़ना चाहता था, उनका अध्ययन गहराई से करना चाहता था। विशेष कर यूरोपीय साहित्य। हालांकि यह सही है कि मैंने काफ़ी कुछ पढ़ा है, पर यह भी सच है कि इतना तो कोई भी आम पाठक पढ़ लेता है। मैं जितना पढ़ पाया, आज मुझे लगता है कि वह काफ़ी नहीं है। मुझे और भी पढ़ना चाहिए था। टॉलस्टॉय, चेकोस्वकी, गॉर्की या समरसेट मॉम को पढ़ा है लेकिन इनको पढ़ना भर ही काफ़ी नहीं है। विश्व के तमाम साहित्य को पढ़ना था। पर ऐसा न हो पाया। उम्र के इस मुकाम पर शायद अब यह न हो पाए। पढ़ भी पाऊं तो शायद उसे ग्रहण न कर पाऊं। इनसे परे कुछ और बातें हैं, जिनसे रू-ब-रू न हो पाने का मलाल है। अफसोस इस का भी है कि दुनिया में जो कुछ बड़ी घटनाएं घटीं। उन क्षणों का मैं गवाह नहीं बन पाया। मैं जानना चाहता था कि गोर्वाचोफ़ किस तरह के इंसान हैं, उनमें क्या ख़ास है। उन्होंने विश्व के सियासी मानचित्र को किस तरह बदला और रूस में खुली नीतियां लागू कीं, मैं इसे देखना चाहता था। रूस के लोग अनुशासित होते हैं, मैं आज भी उनके भीतर झांकना चाहूंगा। तो इसी तरह की कई और बातें हैं, जो छूट गईं।
* क्या आपको इस बात का भी मलाल है कि आपने कुछ वैसी फ़िल्में छोड़ दीं, जो बाद में बॉक्स ऑफिस पर हिट हुर्इं?
* आप अपनी किसी खास फ़िल्म की चर्चा करेंगे, जिसने आपके अभिनय को ऊंचाई दी?
* आपने के. आसिफ, महबूब ख़ान, तपन सिन्हा और विमल राय के साथ काम किया, इनसे आप ने क्या सीखा?
मैं उन कागजों को पढ़ रहा था कि वासन साहब ने मुझ से एक बात कही। वह बात आज भी मेरे भीतर न सिर्फ मौजूद है बल्कि मुझे बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है।
उन्होंने कहा कि ‘दिलीप- यह बात जेहननशीं कर लो कि तुम एक मास मीडियम अर्थात जनता तक पहुंचने वाले संचार माध्यम सिनेमा में काम कर रहे हो। भारत में सिनेमा के कुछ खास फैक्टर होते हैं। सिर्फ बुद्धिजीवियों के लिए कोई फ़िल्म नहीं बनाता है ऐसी फ़िल्म बना कर कोई भी अपनी श्रेष्ठता तो साबित कर देगा, पर बिना आम आदमी तक पहुंचे फ़िल्म बनाने का मकसद पूरा नहीं होता है। इसलिए अवाम के लिए फ़िल्म बनाते वक्त सिर्फ होशियारी ही नहीं दिखाओ, नम्रता का इजहार भी करो।’ तपन सिन्हा, मेरे प्रिय निर्देशकों में से एक हैं। मैं उन्हें सत्यजित राय से किसी लिहाज से भी कम नहीं मानता हूं। वे बड़े निर्देशक हैं। वे कहानी की आत्मा तक बड़ी सहजता से पहुंच जाते हैं। उनमें उत्सुकता और जिज्ञासा है, तथ्यों को समझने की, चीजों को समझाने की। उनकी एक और ख़ूबी है। स्क्रीनप्ले राइटिंग में उन्हें महारत हासिल है। भावुक इंसान हैं और उनका मकसद अपने लोगों तक पहुंचना है। सत्यजित राय तो भारत से इतर पूरे विश्व के दर्शकों के लिए फ़िल्म बनाते थे। पर तपन सिन्हा अपनी फ़िल्मों के माध्यम से अपने लोगों से बात करते हैं। विमल राय बेहद ख़ामोशी से अपना काम करने वाले इंसान थे। काम से उन्हें जुनून की हद तक प्रेम था और हर काम में वे अव्वल रहना चाहते थे। उनकी फ़िल्मों का हर दृश्य अपने आप में पूर्ण होता था। विमल राय, नितिन बोस फ़िल्मों के एक कुशल शिल्पकार थे। दोनों ही बेहतरीन निर्देशक थे। किसी आम कहानी में भी क्लासिक रंग भरने में दोनों माहिर थे। इनसे एकदम अलग एप्रोच महबूब ख़ान का था। वे किसी भी बात को बहुत भीतर तक महसूस करते थे। इतना ही नहीं वे अवाम की पसंद-नापंसद से वाकिफ थे। लोगों तक पहुंचने की कलाकारी उन्हें आती थी। सच तो यह है कि उनकी रूह तो जैसे गांवों में रची-बसी थी। इसका सबूत उन्होंने ‘मदर इंडिया’ में दिया। पर महबूब ख़ान ने शहरों की पृष्ठभूमि पर ‘अंदाज’ और ‘अमर’ सरीखी ख़ूबसूरत फ़िल्में बनाईं। मेरा मानना है कि के. आसिफ की ‘मुगल-ए-आजम’ आरंभ से अंत तक एक बेहतरीन फ़िल्म थी। फ़िल्म का स्क्रीनप्ले बहुत अच्छा था और जिसके एक-एक किरदार को बख़ूबी फ़िल्माया गया था।
एक बात और साफ़ कर दूं कि भारतीय सिनेमा को विश्व मानचित्र पर पहुंचाने में सत्यजित राय की प्रमुख भूमिका रही है। मैं उनकी उपलब्धियों को छोटा नहीं कर रहा था, तपन सिन्हा से कंपेयर कर। यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि एक बार खाने पर उनसे एक फ़िल्म की चर्चा हुई थी। अलाउद्दीन ख़िलजी की जिंदगी पर फिल्म बनाने की बात हुई थी। पर अफसोस है कि यह प्रोजेक्ट बातचीत से आगे नहीं बढ़ पाया। इसलिए उनके साथ काम करने के निजी तजुर्बे की बाबत तो कुछ नहीं कह सकता, पर बातचीत में उन्होंने कहा था कि उन्हें विश्व के दूसरे देशों के दर्शकों का भी ख़याल रखना पड़ता है। कुरोसाव और फेलनी सरीखे निर्देशकों की तरह ही सत्यजित राय ने विश्व सिनेमा में ख़ुद को स्थापित किया था। यह बड़ी बात थी उनके लिए भी और हमारे लिए भी।
* अभिनय के क्षेत्र में आपको किन लोगों ने मदद की जिसके कारण आप बुलंदियों पर पहुंचे?
* तो आप दूसरों से प्रभावित होकर अदाकारी को सही मानते हैं? आप पर किस अदाकार का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा?
* कई कलाकारों पर आपकी कापी करने का भी आरोप लगाया जाता है?
* एक बात और जानना चाहूंगा कि आपको ‘ट्रेजडी किंग’ (Tragedy king) का ख़िताब मिला, इसने आपके अभिनय को नया आयाम मिला?
* अपने समकालीन राजकपूर, देवानंद, राजकुमार के साथ काम करके आपको कैसा लगा था?
* निर्देशन और अभिनय में से कौन सा काम ज्यादा चुनौती भरा है?
* बस! एक सवाल और। यूसुफ़ ख़ान दिलीप कुमार को किस तरह से देखते हैं ?
-दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती है। दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं और एक-दूसरी की ख़्वाहिशों का सम्मान करते हैं। (यह कह कर वे उठते हैं और होंठों पर मुस्कुराहट बिखेर कर कहते हैं, अब चाय पी ही लें।)