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Dispute between Russia and Ukraine – Impact, fears and possibilities

रूस-यूक्रेन बीच विवाद में नाटो की भूमिका (NATO's role in the Russia-Ukraine dispute)

रूस और यूक्रेन दोनों जुड़वा देश रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूक्रेन सोवियत संघ में शामिल हुआ। सन 1990 में रूस से अलग होने के बाद से ही अमेरिका यूक्रेन सहित सोवियत संघ से अलग हुए देशों में अपनी कठपुतली सरकारें बिठाने का षड्यंत्र करता रहा है। इस क्षेत्र में अमेरिका की बढ़ती दखलंदाजी को रूस अपने लिए खतरा मानता है। पश्चिम का पूंजीवादी मीडिया रूस को आक्रमणकारी और साम्राज्यवादी देश प्रचारित कर रहा है। इस बीच नाटो की भूमिका पर कोई चर्चा नहीं है। ऐसा क्यों?

इस विषय पर कई सवालों के जवाब दिए हैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ अजय पटनायक ने।

वे जोशी अधिकारी इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज (Joshi Adhikari Institute of Social Studies) द्वारा "रूस और यूक्रेन के बीच विवाद- असरात, आशंकाएं और संभावनाएं" विषय पर आयोजित एक ">वेबिनार में विषय विशेषज्ञ के रूप में बोल रहे थे। लगभग एक घंटे तक उनका व्याख्यान देश-विदेश के अनेक जिज्ञासु श्रोताओं द्वारा सुना गया।

आयोजन में डॉक्टर पटनायक ने श्रोताओं के अनेक सवालों के जवाब भी दिए।

History and culture of Russia, Ukraine, Belarus

डॉक्टर पटनायक ने बताया कि अतीत में रूस और यूक्रेन दोनों जुड़वा देश रहे हैं। रूस, यूक्रेन, बेलारूस का इतिहास और संस्कृति समान है। मध्ययुग में स्लाव संप्रदाय इन देशों के भौगोलिक क्षेत्र में फैला हुआ था। किसी काल में यूक्रेन पोलैंड का

भी भाग रहा है। सन 1917 की क्रांति के पश्चात अंततोगत्वा वह सोवियत संघ से जुड़ा। सन 1990 में जब यूक्रेन सोवियत संघ से अलग हुआ तब वह पश्चिम और पूर्व में विभाजित सा हो गया। एक तरफ वह क्षेत्र था जहाँ कोयले की खदानें थी, औद्योगिकरण था। दूसरी तरफ पूर्वी भाग इतना विकसित नहीं हुआ था। इस अंतर्विरोध का अमेरिका ने लाभ लेने का प्रयास किया।

उन्होंने बताया कि अमेरिका में राष्ट्रपति निक्सन के कार्यकाल में अमेरिकी लेखक ब्रजेंस्की ने सन 1997 में एक पुस्तक लिखी थी "ग्रांड चेस बोर्ड"। इस किताब में उसने सोवियत संघ से बाहर गए देशों को ग्रांड चेस बोर्ड कहा, जिस पर अमेरिका शतरंज के मोहरो की तरह अपनी चाल चल सकता है। ऊर्जा के क्षेत्र में रूस, ईरान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, अज़रबैजान क्षेत्र समृद्ध रहे हैं। अमेरिका ने इन देशों के ऊर्जा क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में रखने के लिए हस्तक्षेप करने की योजना बनायी। जैसा कि उसने पश्चिम एशिया में किया था। ब्रिटेन के लेखक ने मेकाइंडर जिसे जियोपोलिटिक्स (अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक संबंधों पर भौगोलिक प्रभाव) का संस्थापक माना जाता है। उसने इस क्षेत्र को "हॉट लैंड" कहा था। उसके अनुसार जो देश भी इस क्षेत्र पर कब्जा करेगा वही दुनिया पर राज करेगा। ब्रजेन्स्की ने भी इसे दोहराया। लेकिन शीत युद्ध के दौरान जियो पॉलिटिक्स पर चर्चा बंद रही।

सोवियत संघ से अलग हुए देशों के रूस से संबंध क्यों बिगड़े? (Why did the relations with Russia deteriorate between the countries that left the Soviet Union?)

डॉक्टर पटनायक ने बताया कि सोवियत संघ से अलग हुए इन देशों के अपने आन्तरिक कारणों के कारण रूस के संबंध निरंतर बिगड़ने लगे थे। जबकि इनमें रूस की कोई भूमिका नहीं थी। सोवियत संघ के समय वहां संघीय ढांचा था जिसमें सभी राष्ट्रीयताओं की अलग भाषा, संस्कृति होने के बावजूद उन्हें स्वायत्तता मिली हुई थी। सोवियत संघ से अलग होने के बाद इन देशों में संकीर्ण राष्ट्रीयता की भावनाएं उभारी गयीं। अलग हुए इन देशों में रह रहे अल्पसंख्यक समूहों पर दबाव बनाया गया कि वे बहुसंख्यक समुदाय की पहचान में शामिल हो जाएं। जबकि सोवियत संघ में इन अल्पसंख्यकों को सरंक्षण प्राप्त था। सोवियत संघ से टूटते ही इन देशों में राष्ट्रवादियों ने सत्ता में आने का प्रयास प्रारंभ कर दिया। सन 2008 में जर्जीया में अल्पसंख्यकों को जर्जीयाई राष्ट्रवाद मानने के लिए विवश किया गया। जिसके चलते जर्जिया और रूस में युद्ध हुआ। जिसके कारण जर्जिया का विभाजन हो गया। आर्मेनिया और अजरबैजान की भी वही स्थिति थी। दोनों में सीमा विवाद हुआ, दोनों देश चाहते थे कि रूस उनका साथ दें। जब आर्मेनिया जीतने लगा तो अज़रबैजान ने आरोप लगाया कि वह रूस के कारण जीत रहा है। इन अलग हुए देशों के आपसी विवादों में जो पराजित होता था वह रूस पर आरोप लगाता था कि उसने हमारा साथ नहीं दिया। इस कारण इन देशों के साथ रूस का तनाव सदैव बना रहा। इन परिस्थितियों को अमेरिका ने अपने अनुकूल माना और रूस से नाराज देशों को अपने प्रभाव में लेना प्रारंभ कर दिया। ब्रजेन्स्की ने भी अपनी पुस्तक में लिखा था कि रूस के प्रभाव को कम करने के लिए सोवियत संघ से अलग हुए देशों को यूरोपीय प्रभाव क्षेत्र में शामिल किया जाए। इसी योजना के तहत अमेरिका ने इन देशों के माध्यम से रूस को घेरना प्रारंभ कर दिया, ताकि रूस उलझा रहे और बाहरी दुनिया के विवादों में हस्तक्षेप न कर सके।

नाटो के गठन का इतिहास (History of the formation of NATO)

डॉक्टर पटनायक ने बताया कि शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ के खिलाफ अमरीका के नेतृत्व में नेटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) का गठन किया गया। यह एक सैन्य संगठन है। शीत युद्ध की समाप्ति तथा सोवियत संघ के विघटन के बाद भी न केवल नेटो संगठन बना रहा अपितु अमेरिका रूस से अलग हुए देशों को नेटो में शामिल करने का प्रयास करता रहा, ताकि अमेरिका की पहुंच रूस की सीमा तक हो जाए। रूस के पश्चिम की ओर नेटो आ चुका है, वहीं दूसरी ओर यूक्रेन और जर्जिया के माध्यम से वह रूस को घेर रहा है। सैनिक दृष्टि से रूस और चीन अमेरिका के लिए चुनौती बने हुए हैं। इसलिए अमेरिका सेंट्रल एशिया और यूरेशिया में बैठकर इन दोनों देशों पर नियंत्रण करना चाहता है।

सन 2001 से रूस ने सोवियत संघ से अलग हुए इन देशों पर अपना विशेष ध्यान देना प्रारंभ किया। क्योंकि रूस की सुरक्षा केवल रूस की सीमा तक ही सीमित नहीं थी वह उनसे अलग हुए देशों की सीमा तक विस्तारित थी। अलग हुए देशों में जो भी गतिविधियां होती थीं वह सीधा रूस को प्रभावित करती थीं। पुतिन के राष्ट्रपति बनने के बाद रूस का प्रयास रहा कि ये देश रूस और अन्य देशों के मध्य बफर जोन (मध्यवर्त्तीय क्षेत्र) बने रहें और कोई भी देश नाटो में जाने का प्रयास न करे। रूस ने सोवियत संघ से अलग हुए देशों को संगठित किया और कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन) से इन्हें जोड़ा। इनमें रूस के अलावा आर्मेनिया, बेलारूस, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, तजाकिस्तान शामिल हैं। कजाकिस्तान में जब अस्थिरता शुरू हुई तो वहां इस संगठन के 3000 सैनिक गए और मुख्य भवनों को सुरक्षा प्रदान की। हालात ठीक होने पर सैनिक लौट आए।

यही नहीं सन 2015 में रूस ने यूरेशियन इकोनामी यूनियन (यूरेशियन आर्थिक संघ) का गठन किया जिसमें रूस के अलावा बेलारूस, अर्मेनिया, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान शामिल है। इस संगठन के देशों में पूंजी एवं श्रम के आवागमन में कोई रुकावट नहीं है। इन देशों में राजनीतिक शासन प्रणाली चाहे अलग हो लेकिन अर्थनीति एक ही है। ये देश आपस में कस्टम ड्यूटी का लेन-देन नहीं करते। इसके गठन में रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने बड़ी मेहनत की है। रूस के बाद यूक्रेन इस क्षेत्र की विकसित हो रही बड़ी आर्थिक शक्ति है। अगर यूक्रेन भी इस यूनियन में शामिल हो जाए तो यह संगठन और अधिक मजबूत बन जाएगा। अमेरिका ने निरंतर प्रयास किया कि यूक्रेन इस यूनियन में शामिल ना हो और इस हेतु षड़यंत्र किए जाने लगे।

सोवियत संघ से अलग हुए देशों में जिनका भी रूस की तरफ झुकाव था, अमेरिका द्वारा पोषित गैर सरकारी संगठनों (एन जी ओ) ने वहां आंदोलन करके वहां की सत्ताएं पलटने के प्रयास किए। सन 1991 के बाद सोवियत रूस से अलग होने के बाद ये सभी देश आर्थिक रूप से कमजोर हो गए थे। सहायता के लिए विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष के पास जाने लगे। सब जानते हैं कि ये सभी वित्तीय संस्थान अमेरिकी प्रभाव में हैं। इन देशों को मिले कर्ज की शर्तों में यह भी था कि ये देश अमेरिकी फंड से संचालित एनजीओ को अपने देशों में काम करने की छूट देंगे। इन एनजीओ ने रूस समर्थक सरकारों के खिलाफ आंदोलन खड़े किए, वहां के नौजवानों को भड़काया, प्रशिक्षण के नाम पर अमेरिका भेजा। जब भी इन देशों में चुनाव होते यह रूस से सहानुभूति रखने वाले प्रत्याशियों के खिलाफ प्रचार करते, आंदोलन करते। रंगो के नाम पर इन आंदोलनों को क्रांति कहा जाता। जर्जिया में रोज रिवॉल्यूशन, यूक्रेन में ऑरेंज रिवॉल्यूशन, किर्गिस्तान में ट्यूलिप रिवॉल्यूशन का नाम देकर उन रंगों की पोशाकें पहनकर प्रदर्शन किए जाते थे। अमेरिकी दूतावास खुलकर इन आंदोलनकारियों की मदद करता था। बावजूद इसके अगर रूस समर्थक जीत जाते तो चुनाव परिणामों को गलत प्रचारित किया जाता। जर्जिया में इन्हें सफलता मिली। यूक्रेन में निर्वाचित राष्ट्रपति को पुनः चुनाव करवाने के लिए विवश किया गया।

यूक्रेन में 2014 में विक्टर यानुवोचिक के राष्ट्रपति चुनाव में विजय के पश्चात भी उन्हें पद से हटाया गया और दोबारा चुनाव के लिए उन्हें विवश किया गया। सन 2010 के चुनाव में अमेरिकी समर्थक प्रत्याशियों को मात्र 5% वोट ही मिले थे। यानुकोविच पश्चिमी देशों और रूस के बीच संतुलन बनाने का प्रयास कर रहे थे। जबकि अमेरिका उस पर यूरोपियन यूनियन में शामिल होने के लिए दबाव बना रहा था। आखिरकार यूक्रेन में अमेरिका ने हिंसक प्रदर्शन करवाए, पार्लियामेंट पर हमला किया गया, बढ़ती हिंसा के कारण यानुकोविच को रूस में जाकर शरण लेना पड़ी।

प्रदर्शनकारियों को वेस्टर्न यूनियन सहायता प्रदान कर रहा था। वहां हिटलर के समय के फासिस्ट संगठन पुनः सक्रिय हो गए थे और राजनीति पर हावी हो रहे थे। जॉर्जिया की पराजय के बाद यूक्रेन में कैसे स्थिरता लाई जाए इस हेतु बेलारूस की राजधानी में एक बैठक आयोजित हुई लेकिन कोई समझौता नहीं हो सका।

ब्लैक सी (काला सागर) रूस की जीवन रेखा है। यहां का बंदरगाह पूरे साल खुला रहता है। रूस किसी को भी काला सागर अवरुद्ध करने नहीं देता। अतीत में भी काला सागर को लेकर कई युद्ध हो चुके हैं। सन 1954 में रूस ने यह बंदरगाह यूक्रेन को दे दिया था। वहां के लोग रूस के साथ ही रहना चाहते हैं। इस क्षेत्र में पश्चिम यूरोप की दखलअंदाजी बढ़ती गई।

पहले यूरोप के सभी देश रूस के खिलाफ नहीं थे। यूरोप के कई देश रूसी गैस पर निर्भर हैं। रूस ने जर्मनी तक गैस की पाइप लाइन बिछा रखी है। अब अमेरिका चाहता है कि रूस पर प्रतिबंध लगाया जाए। इस तनाव से रूस का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा क्योंकि वह बहुत मजबूत देश है लेकिन यूरोप के वे देश जिनके रूस के साथ अच्छे संबंध हैं उन पर दबाव बनाया जा रहा है। इराक की तरह पश्चिम मीडिया रूस के खिलाफ भी अनर्गल प्रचार कर रहा है।

विवाद के चलते यूक्रेन की अर्थव्यवस्था ठप्प हो गई है। यूक्रेन को अब रूस से रियायती दरों पर गैस नहीं मिलती। अंतरराष्ट्रीय बाजार में यूक्रेन की मुद्रा का अवमूल्यन हो गया है। तनाव के कारण कोई भी देश यूक्रेन में निवेश नहीं करना चाहता। यूक्रेन बर्बाद हो रहा है और वह पूरी तरह अमेरिका पर निर्भर हो चुका है। अमेरिका का लक्ष्य केवल रूस को कमजोर करना है।

रूसी राष्ट्रपति कई बार कह चुके हैं कि वे यूक्रेन पर हमला नहीं करेंगे लेकिन मीडिया युद्ध की तारीखें प्रचारित कर रहा है। रूस सोवियत संघ से विघटित हो चुके देशों से सौहार्दपूर्ण संबंध चाहता है लेकिन अमेरिकी दखल के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है।

रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों की बात की जा रही है। इतिहास गवाह है कि रूसीयों में अपार सहनशीलता रही है। नेपोलियन से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध में रूस ने बहुत सहा है। सत्तर के दशक में रूस और चीन के संबंध खराब थे लेकिन अब अच्छे हो चुके हैं। यह रूस के लिए भी राहत की बात है। अगर उस पर प्रतिबंध लगाए भी जाते हैं तो उस पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। इस तनाव का परिणाम यूक्रेन को ही भुगतना होगा।

श्रोताओं द्वारा उठाए गए कई प्रश्नों के जवाब में डॉक्टर पटनायक ने कहा कि नाटो के मुकाबले रूस और चीन के बीच सैन्य संगठन नहीं बनाया जा सकता है। रूस और चीन में भी आपसी अंतर्विरोध मौजूद हैं। रूस के निकटवर्ती देशों में चीन के अपने हित हैं, इसे रूस भी समझ रहा है। बावजूद इसके चीन और रूस एक दूसरे पर निर्भर हैं।

सोवियत काल में भी यूक्रेनी राष्ट्रवाद और पहचान (Ukrainian nationalism and identity) मजबूत नहीं थी। यूक्रेन शहरों में आज भी रूसी भाषा बोली जाती है। वहां रूसी और यूक्रेनी नागरिकों में अंतर नहीं किया जा सकता। यूक्रेन के नागरिक रूस से संबंध बनाए रखना चाहते हैं। अमेरिका के मुकाबले चीन रूस और भारत का प्रयास रहा है कि वैश्विक स्तर पर विकल्प तैयार रखा जाए। हालांकि ब्राजील और भारत जैसे देश अमेरिका के भी खिलाफ नहीं है।

भारत रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बनाए रख रहा है।

रूस के साथ पुरानी मित्रता के बावजूद वर्तमान में भारत के साथ रूस के संबंध मजबूत नहीं हैं। चाबहार बंदरगाह के माध्यम से भारत की पहुंच यूरेशियन देशों तक होती है। रूस और ईरान के बीच रेल मार्ग निर्माण की संभावना है जो हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है।

क्या चीनी मॉडल को पूंजीवाद के विकल्प के रूप में रखा जा सकता है? | Can the Chinese model be put up as an alternative to capitalism?

पूंजीवाद के विकल्प के रूप में चीनी मॉडल नहीं रखा जा सकता। चीन ने पूंजीवाद को ही विस्तारित किया है चाहे वहां राजनीतिक व्यवस्था भले ही कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में हो। पूंजीवाद के विकल्प का हमें और इंतजार करना होगा। जिन देशों में विभिन्न संस्कृति के लोग रहते हैं वहां का राष्ट्रवाद अलग होता है। हिटलर काल में जर्मन राष्ट्रवाद के कारण न केवल जर्मनी अपितु निकटवर्ती देशों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ा था। आज जर्मनी के लोग सचेत हैं वे राष्ट्रवाद को राजनीतिक व्यवस्था से दूर ही रखते हैं।

कौन हैं डॉ अजय पटनायक? | Who is Dr Ajay Patnaik?

वेबिनार को संचालित करते हुए जोशी अधिकारी संस्थान की ओर से विनीत तिवारी ने अतिथि परिचय देते हुए कहा कि डॉ अजय पटनायक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन विषय के व्याख्याता रहे हैं। वे डीन के पद से सेवानिवृत्त हुए।

डॉक्टर अजय पटनायक दो बार रूसी और मध्य एशियाई अध्ययन केंद्र के अध्यक्ष भी रहे हैं। राजनीतिक और सामाजिक संरचना पर उनकी 4 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक पुस्तकों का उन्होंने संपादन भी किया है। वे कजाकिस्तान के विश्वविद्यालय में विजिटिंग फैकल्टी (अतिथि शिक्षक) भी रहे हैं। उज्बेकिस्तान के केंद्रीय चुनाव आयोग ने उन्हें सन 2009 के चुनाव में अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक के तौर पर आमंत्रित किया था।

बारूद के मुहाने पर बैठी है दुनिया | रूस यूक्रेन विवाद की पृष्ठभूमि क्या है (What is the background of the Russia Ukraine dispute in Hindi)

विषय के बारे में विनीत ने कहा कि दुनिया बारूद के मुहाने पर बैठी है। रूस को आक्रामक देश के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जबकि इस विवाद की पृष्ठभूमि कुछ अलग ही है। युद्धों से मुनाफा कमाने वाले सक्रिय हो गए हैं। जबकि कोरोना संकट से जूझ रही दुनिया को अमन चाहिए। पूंजीवादी देश अन्य किसी भी देश में भाषा का अंतर्विरोध हो या आपसी मतभेद वह अपने हित में उसे बढ़ाने का प्रयास करते हैं। यूक्रेन और जॉर्जिया के विवाद (Ukraine and Georgia dispute in Hindi) को विश्वयुद्ध की ऊंचाई तक पहुंचाने में पूंजीवादी मीडिया की बड़ी भूमिका रही है।

वेबिनार में इंग्लैंड लंदन से नूर ज़हीर, मृत्युंजय, इंदौर से आलोक खरे, आनंद शिंन्त्रे, अथर्व शिंन्त्रे, शैला शिन्त्रे, कैलाश चंद्र, ईशान खापर्डे, शिवाजी मोहिते, प्रमोद नामदेव, प्रमोद बागड़ी, कृष्णार्जुन बर्वे, अभय नेमा, सारिका श्रीवास्तव एवं बिहार पूर्णिया से नूतन आनंद, अनिल अनलहातु, मंदसौर से हरनाम सिंह, बेंगलुरु से नंदिता चतुर्वेदी और अर्चिष्मान राजू, असम से जमुना बीनी, आगरा से दिलीप रघुवंशी, भावना रघुवंशी, तमिलनाडु से नानलकांदन सारा, लखनऊ से राकेश, भोपाल से सारिका सिन्हा, पूजा सिंह, सचिन श्रीवास्तव, उज्जैन से शशि भूषण, दिल्ली से सुरेश श्रीवास्तव, बजिन्दर, अनिल चौधरी, मुंबई से सनोबर केसवार, मुथु वीरप्पन, औरंगाबाद से विनोद बंडावाला, छत्तीसगढ़ से शरद कोकास, जयपुर से प्रेमचंद गांधी, हरीश करमचंदानी, उदयपुर से रोज़िली पणजी, सागर से हीराधर अहिरवार, राहुल भाईजी, आशीष भाईजी, शहडोल से मिथिलेश राय, गुना से निरंजन क्षोत्रिय, दतिया से राजनारायण बोहरे, रायपुर से अनिल चौबे, लखनऊ से डॉक्टर संतोष कुमार, अनूपपुर से गिरीश पटेल, हैदराबाद से वैभव पुरंदरे के अलावा दीपक, मुशर्रफ अली, डॉ  सुबोध मालाकार, वैभव कात्यानी, बजरंग बिहारी, दिनेश भट्ट, समीरा नईम, हिम्मत संगवाल, मृदुला, श्रवण गर्ग, अरान अबरार, अभिषेक गौरव, माही, सदाशिव, प्रहलाद बैरागी आदि शामिल हुए।

वेबिनार में तकनीकी सहयोगी के रूप में विवेक मेहता मौजूद रहे।

हरनाम सिंह