फेसबुक (Facebook) पर मित्र शम्भुनाथ शुक्ल (Shambhunath Shukla) जी ने 'नया इंडिया' (Naya India) अखबार में वरिष्ठ पत्रकार हरिशंकर व्यास (senior journalist Harishankar Vyas) की एक लंबी टिप्पणी यह कहते हुए साझा कि कि मैं 'नया इंडिया' के निष्कर्ष से सहमत नहीं हूँ, लेकिन चुनाव में वोटर के नज़रिये को समझने में हरिशंकर व्यास ने अब तक कभी ग़लती तो नहीं की। व्यास की इस टिप्पणी का शीर्षक था — 'माया, प्रियंका, ममता, तेजस्वी, केजरी जून में होंगे आईसीयू में'। इसमें हरिशंकर जी ने दलील दी है कि मोदी (Modi) जिस प्रकार के अंध-राष्ट्रवाद (blind-nationalism) के तूफान से अपने विरुद्ध भ्रष्टाचार की चर्चाओं (discussions of corruption) को मोड़ दे रहे हैं, उसे देखते हुए यदि विपक्ष की ताकतें एकजुट नहीं होती है तो वे सभी बुरी तरह से पराजित होगी।
इस पर हमने वहीं एक टिप्पणी की कि “इस विश्लेषण को तभी सही माना जा सकता है जब हम यह मान ले कि नरेंद्र मोदी कोरी हिंदुत्ववादी लहर पर सवार हो कर जीते थे; जब हम यह भूल जाएं कि दस साल के मनमोहनसिंह के शासन से व्यवस्था-विरोधी माहौल और भ्रष्टाचार के भारी कांडों से बनी हवा के कारण मोदी की जीत संभव हुई थी; और हम यह भी भूल जाएं कि एड़ी चोटी का पसीना एक कर देने के बाद भी मोदी-शाह गुजरात चुनाव से शुरू हुए अपने पतन को रोक पाने में पूरी तरह से विफल साबित हो रहे हैं। यह सच है कि आगामी चुनाव में मोदी की निश्चित पराजय को इतिहास की एक सबसे बुरी हार में बदलना चाहिए और इसके लिये विपक्ष की एकजुटता जरूरी है।”
मैंने इसके जवाब में विस्तार से जाने के बजाय
दरअसल, यह एक अनोखा दार्शनिक मामला है। किसी खो चुकी चीज को फिर से पूरी तरह से पाने की कोशिश की असंभवता और उससे जुड़ी विसंगतियों का मामला।
मोदी की हाल की एक के बाद एक, तमाम पराजयों की श्रृंखला यह बताने के लिये काफी है कि भारत के लोगों ने अपने भाव जगत में 2014 के मोदी को खो दिया है। अब उसे लौटाने की कोशिश का मतलब है एक खोई हुई वस्तु को खोजना, गुमशुदा चीज की तलाश। यह व्यक्ति के साथ वस्तु के संबंध को (subject-object relation को) नया आयाम देता है। किसी भी वस्तु को इस प्रकार फिर से खोज निकालने की कोशिश में खुद ही ताल बिगड़ जाता है। खोई हुई वस्तु से पुरानी यादें जुड़ी होती है और जब उसे फिर से खोजा जाता है तो उस पर बीते हुए पल को लौटाने के असंभव की छाया पड़ जाती है। इस तलाश में आदमी को जो मिलता है वह कभी भी हूबहू पुरानी चीज नहीं हो सकता है। और यहीं से व्यक्ति-वस्तु संबंध में एक मूलभूत तनाव का प्रवेश हो जाता है।
अर्थात जो खोजा जा रहा होता है, वह वह नहीं होता है जो मिलने वाला होता है। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक तौर पर आदमी को वह तब कहीं और, किसी अन्य में दिखाई देने लगता है। जैसा कि अब लोगों को राहुल गांधी में दिखाई देने लगा है। गुजरात के बाद से लेकर विगत पांच राज्यों के चुनावों तक की राजनीतिक परिघटना यही बताती है।
खोई हुई वस्तु की तलाश ही आदमी में उस वस्तु से एक मूलभूत दूरी पैदा करती जाती है। यह दूरी उस वस्तु के बारे में पहले बन चुकी काल्पनिक अवधारणा के आधार पर तय होती है। मोदी की दैव पुरुष समान पूर्व धारणा ही लोगों को मोदी से अधिक से अधिक दूर करने, उन्हें फेंकू समझने का एक बुनियादी कारण भी है।
इसी सूत्र से न सिर्फ anti-incumbancy के पहलू के पीछे के सच की व्याख्या की जा सकती हैं, बल्कि किसी भी व्यक्ति के द्वारा अपने बारे में पैदा की गई झूठी अपेक्षाओं के निश्चित दुष्परिणामों की नियति को भी समझा जा सकता है।
अस्तित्ववादी दार्शनिक किर्केगार्द कहते हैं कि आदमी हमेशा अतीत के दोहराव की अपेक्षा रखता है, लेकिन वह कभी पूरी नहीं होती क्योंकि दोहराव और स्मृति में मूलभूत विरोध होता है। स्मृतियों में बैठी हुई काल्पनिक धारणा को संतुष्ट करना असंभव होता है।
मोदी का गणित जब एक बार बिगड़ गया है तो आज 2014 का मोदी ही आज के मोदी का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया है। मोदी का अपने को हिंदू 'हृदय-सम्राट' और 'दिव्य पुरुष' दिखाना ही उनके लिये महंगा पड़ेगा। फ्रायड ने खोई हुई चीज को पाने की लालसा से पैदा होने वाली निराशा की जिस ग्रंथी की बात कही थी, आज मोदी के संदर्भ में लोगों को वही बेहद परेशान करेगी। आज के मोदी को अपने सिर पर बैठाना अब उनके लिये असंभव होगा। अंध-राष्ट्रवादी विभ्रमकारी प्रचार भी मोदी को फिर से पाने की जनता की कोशिश से पैदा होने वाली निराशा को रोक नहीं पायेगा।
इसीलिये मेरा मानना है कि 2019 में मोदी की हार सुनिश्चित है। वह पराजय कितनी बड़ी होगी, यह उनके खिलाफ महागठबंधन की सफलता के अनुपात पर निर्भर करेगा।
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