पिछले कुछ वर्षों से 'देशद्रोही' शब्द का काफी इस्तेमाल हो रहा है. देशद्रोही की परिभाषा (Definition of traitor in Hindi) बहुत स्पष्ट और सीधी-साधी है. जो भी आरएसएस या उसके कुनबे का आलोचक है, वह देशद्रोही है. आरएसएस हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा का स्रोत है और जैसे-जैसे वह ताकतवर होता जा रहा है, वैसे-वैसे धर्म को देशभक्ति से जोड़ने के उसके प्रयास तेज होते जा रहे हैं. वह हिन्दुओं को देश के प्रति वफ़ादार मानता और बताता है और कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष तरीके से यह साबित करना चाहता है कि मुसलमान, पाकिस्तान के प्रति वफ़ादार हैं.
अभी हाल में संघ के मुखिया मोहन भागवत (RSS chief
इस वक्तव्य के निहितार्थों को समझने से पहले हम यह जान लें कि आरएसएस के शुरूआती चिंतकों में से एक, एमएस गोलवलकर ने खुलकर नाजियों की तारीफ़ की थी और यह भी कहा था कि मुसलमानों और ईसाईयों (जो संघ के अनुसार विदेशी धर्मों को मानने वाले हैं) के साथ वही किया जाना चाहिए जो नाजियों ने यहूदियों के साथ किया था. पिछले कुछ दशकों में आरएसएस की ताकत में जबरदस्त वृद्धि हुई है. उसके विशाल कुनबे में शामिल कई संगठनों जैसे भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और वनवासी कल्याण आश्रम के प्रभाव क्षेत्र का विस्तार हुआ है और उसने राज्य के विभिन्न अंगों, मीडिया और शैक्षणिक संस्थाओं में गहरी पैठ बना ली है. उसकी विचारधारा और सोच अब भी वही है परन्तु अब वह थोड़े दबे-छुपे ढंग से अपनी बातें कहता है. एमएस गोलवलकर की पुस्तक "वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड' अब भी उसकी पथप्रदर्शक है. परन्तु अब वह उन्हीं बातों को गोल घुमा कर कहता है जिससे कई लोग भ्रमित हो जाते हैं.
जहाँ तक गांधीजी का सवाल है, उनके लिए धर्म एक निहायत व्यक्तिगत मसला था. वे स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे परन्तु उनका हिन्दू धर्म उदार और समावेशी था. उनके धर्म का सम्बन्ध कर्मकांडों से कम और नैतिक मूल्यों से ज्यादा था. सभी धर्म उनकी आध्यात्मिक शक्ति के स्रोत थे. "मैं अपने आप को उतना ही अच्छा हिन्दू मानता हूँ जितना कि मुसलमान. और मैं अपने आप को उतना ही अच्छा ईसाई और पारसी भी मानता हूँ." (हरिजन, मई 25, 1947). गांधीजी का हिन्दू धर्म (Gandhi's Hindu religion) आस्था और आचरण दोनों स्तरों पर दूसरे धर्मों का सम्मान करता था और उन्हें अपना मानता था. उनका हिन्दू धर्म, आरएसएस के संकीर्ण हिन्दू धर्म के एकदम विपरीत था. संघ केवल विभिन्न मुद्दे उठाकर अन्य धर्मों के लोगों को डराने और नीचा दिखने में विश्वास रखता है. चूँकि गांधीजी का हिन्दू धर्म उदार और समावेशी था इसलिए ही वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आन्दोलन में सभी धर्मों के लोगों के सर्वमान्य नेता बन सके.
वे धर्म को न तो राष्ट्रीयता से जोड़ते थे और ना ही देशभक्ति से. दरअसल, अपने देश और उसके लोगों के प्रति प्रेम और देशभक्ति की भावना का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. देशभक्ति का सम्बन्ध राष्ट्रीयता से है और राष्ट्रीयता का धर्म से कोई लेनादेना नहीं है.
गांधीजी धर्म शब्द का इस्तेमाल दो अर्थों में करते थे. एक तो उस अर्थ में जिसमें आम लोग उसे समझते हैं अर्थात आस्था, प्रथाएं, पहचान इत्यादि. और दूसरा, धार्मिक शिक्षाओं में निहित नैतिक मूल्य. वे यह मानते थे कि नैतिकता सभी धर्मों की आत्मा है. इसके विपरीत, आरएसएस जैसे संगठन और मुस्लिम सम्प्रदायवादी (मुस्लिम लीग इत्यादि), धर्म शब्द का प्रयोग केवल बाहरी चीज़ों जैसे अनुष्ठानों, कर्मकांडों, तीर्थस्थलों आदि के सन्दर्भ में करते हैं.
जो चिन्तक और लेखक हिन्दू राष्ट्रवाद में यकीन रखते हैं और आरएसएस की सोच से सहमत है, वे दिन-रात इस जुगत में लगे रहते हैं कि किसी प्रकार गाँधीजी और अन्य राष्ट्रीय नायकों के भाषणों, वक्तव्यों और लेखन से ऐसे शब्द, ऐसे वाक्य खोज निकाले जाएं जिनसे यह साबित किया जा सके कि भारतीय राष्ट्र के इन निर्माताओं की सोच वही थी जो आरएसएस की है. वे अपनी विचारधारा से चिपके रहना चाहते हैं परन्तु इसके साथ ही समाज में अधिक स्वीकार्यता प्राप्त करने के लिए यह दिखाना चाहते हैं कि भारत के स्वाधीनता संग्राम के महानायकों के विचार उनके जैसे थे.
इसी कवायद के अंतर्गत यह कहा जा रहा है कि हिन्दू 'प्राकृतिक देशभक्त' हैं और देशद्रोही हो ही नहीं सकते.
वे यह सन्देश भी देना चाहते हैं कि अन्य धर्मों के लोगों का राष्ट्रवाद और देशभक्ति संदेह के घेरे है और अन्य धर्मावलम्बियों को उन लोगों से देशभक्ति का प्रमाणपत्र प्राप्त करने होगा जिनका देशभक्ति और राष्ट्रवाद पर एकाधिकार है और जो हिन्दुओं का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं.
जाहिर है कि यह सोच आधुनिक भारत के निर्माण में मुसलमानों और ईसाईयों की भूमिका (Role of Muslims and Christians in building modern India) को कोई महत्व ही नहीं देती. हम उन करोड़ों मुसलमानों को किस खांचे में रखें जिन्होंने खान अब्दुल गफ्फार खान और मौलाना आजाद के नेतृत्व में न केवल ब्रिटिश सरकार से लोहा लिया वरन भारत विभाजन का भी डटकर विरोध किया? हम शिबली नोमानी, हसरत नोमानी और अशफाक़उल्ला खान का क्या करें? हम अल्लाह बख़्श के बारे में क्या कहें जिन्होंने मुसलमानों का एक बड़ा जलसा आयोजित कर, मुहम्मद अली जिन्ना की पाकिस्तान का मांग का विरोध किया था? मुसलमानों के सैकड़ों संगठनों ने स्वाधीनता संग्राम में हिन्दुओं के साथ कंधे से कन्धा मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया था.
स्वाधीन भारत को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने में सभी धर्मों के लोगों का योगदान रहा है. उन्होंने उद्योग, शिक्षा, खेल, संस्कृति और अन्य सभी क्षेत्रों में बड़ी सफलताएं हासिल कीं हैं और देश का नाम रौशन किया है. क्या वे सब राष्ट्रवादी और देशभक्त नहीं हैं?
दूसरी ओर, भागवत यह कहकर संघ की शाखाओं में प्रशिक्षित नाथूराम गोडसे का बचाव कर रहे हैं जिसने गांधीजी की हत्या की थी. हम उन लोगों को क्या कहें जिन्होंने बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अपराध करार दिया है? क्या भागवत यह मानते हैं कि गांधीजी, कलबुर्गी, दाभोलकर, गौरी लंकेश और गोविन्द पंसारे के हत्यारे देशभक्त थे? क्या वे हिन्दू भी देशभक्त हैं जो अन्य मुल्कों के लिए जासूसी करते पकड़े गए हैं, जो तस्करी करते हैं, ब्लैकमार्केटिंग करते हैं?
जहाँ एक ओर आरएसएस, गांधीजी के प्रति सम्मान का भाव रखने का नाटक करता है वहीं उसके प्रचारक और चिन्तक और उससे जुड़े कई संगठन खुलेआम नाथूराम गोडसे का महिमामंडन कर रहे हैं. पिछली गाँधी जयंती पर बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने गोडसे की प्रशंसा करते हुए ट्वीट किये. साफ़ है कि आरएसएस के कई चेहरे और मुखौटे हैं. वो एक ही समय में गांधीजी के प्रति श्रद्धा भी व्यक्त कर सकता है और उस सोच को बढ़ावा भी दे सकता है जिसके कारण बापू की जान गयी.
-राम पुनियानी
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं.)