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गूंगे लोकतंत्र का खतरा

कुमार प्रशांत

इस बार के स्वतंत्रता दिवस की धज कुछ अलग ही थी ! वही १५ अगस्त था और वही लाल किला था, वैसे ही फौजी भी थे और उनका अनुशासन भी; वैसे ही बच्चे भी थे और वही राष्ट्रगान भी था और वही प्रधानमंत्री भी थे जिन्होंने डोरी खींची और हमारा तिरंगा लहराया ! लेकिन किसी के आदेश से लहराने और अपनी मस्ती में झूमने का फर्क जो समझते हैं, वे समझ रहे थे कि कुछ है कि जो बदला जा रहा है.

EVERYDAY AGNIPRIKSHA OF UP MADRASAAS TO PROVE PATRIOTISM: HINDUTVA ATTACK MUST BE FACED INNOVATIVELY

यह पहली बार ही था कि स्वतंत्रता का उल्लास भरा समारोह सत्ता की घुड़की खा कर मनाया गया. पहले ही मुनादी कर दी गई थी कि सभी स्कूलों में स्वतंत्रता दिवस हम जिस तरह बता रहे हैं उस तरह मनाया जाए, झंडा इस तरह फहराया जाए और राष्ट्रगान इस तरह गाया जाए और इन सबका वीडियो तैयार कर, ३१ अगस्त २०१७ तक अपने निकटवर्ती सर्व शिक्षा मिशन के कार्यालय में जमा कराया जाए. आदेश मानव संसाधन मंत्रालय ने जारी किया था. यह धमकी भी दे दी गई थी कि ऐसा नहीं करने वालों पर कानूनी काररवाई की जा सकती है. बात वहां तक पहुंची जहां तक इसे पहुंचना था. कई जगहों से जवाब आया- ‘हमारे’ स्कूलों को ऐसा कुछ करने की जरूरत नहीं है क्योंकि ‘हम तो राष्ट्रभक्त हैं ही !’ पालन तो उन्हें करना है जिनकी देशभक्ति साबित नहीं है ! इससे बात खुली कि यह आदेश दरअसल तो मदरसों तथा दूसरे अल्पसंख्यकों के लिए जारी किया गया था. बात लोगों तक इस तरह पहुंची कि सबने जाना और माना कि उन सबको अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देना है जो हिंदू नहीं हैं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.

हिंदुत्व

के एजंडे के लिए गांधी की तरह रवींद्र का वध भी जरूरी है

ऐसा नहीं है कि लोग पहले देश का और देश के मान्य प्रतीकों का स्वाभिमान व सम्मान नहीं करते थे. ऐसा भी नहीं है कि राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा और राष्ट्रपिता पर आपत्तियां उठाने वाले पहले नहीं थे. मुसलमानों का एक बड़ा तबका ऐसा रहा है जो झंडे के सामने झुकने में, भारत माता की जय कहने में, वंदे मातरम् कहने में संकोच करता रहा है. धीरे-धीरे उनका यह संकोच जिद में बदलता गया और मुस्लिम सांप्रदायिकता की फसल काटने वालों ने उसे खाद-पानी दे कर मजबूत भी बनाया. लेकिन यहां यह भी कहना और याद रखना जरूरी है कि ऐसे लोगों में सबसे बड़ी संख्या उनकी ही रही है जो आज दूसरों से प्रमाणपत्र मांग रहे हैं. उनके लिए कभी किसी ने नहीं कहा कि अपनी देशभक्ति का प्रमाण दो ! कभी किसी ने नहीं कहा कि नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के मुख्यालय पर तिरंगा फहराने के लिए फौज-पुलिस की मदद ली जाए. कौन नहीं जानता है कि राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा और राष्ट्रपिता का संघ परिवार में कभी स्वप्रेरित सम्मान नहीं हुआ. विरोध हुआ, उपहास हुआ और जब मौका लगा अपमान भी हुआ, फिर भी कभी किसी ने नहीं कहा कि फौजी हाथों से झुका कर और कानूनी फंदों में जकड़ कर इन्हें मजबूर किया जाए कि ये राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा और राष्ट्रपिता को सार्वजनिक रूप से स्वीकारें. जन गण मन नहीं वंदे मातरम्, तिरंगा नहीं भगवा, गांधीजी नहीं भारत माता जैसी बेतुकी और खतरनाक धारा बहाने की कोशिशें इनकी तरफ से लगातार चलती ही रहीं और लगातार चलता रहा इनका वैचारिक विरोध.

सरस्वती शिशु मंदिरों और नागपुर संघ कार्यालय की तिरंगा फहराने की वीडियोग्राफी कब होगी

कोई भी सरकार देश नहीं होती !

लेकिन इस बार माहौल पूरी तरह बदला क्योंकि सत्ता उनके हाथ में आ गई जो राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा और राष्ट्रपिता को स्वीकार नहीं करते थे बल्कि उनका अपना विकल्प प्रचारित करते रहे थे. सरकारें बदलती रहें, यह लोकतंत्र की जरूरत है. सरकारें बदलेंगी तो कई स्तर पर नीतियां भी बदलेंगी, प्राथमिकताएं भी बदलेंगी, कार्यशैली भी बदलेगी. यह सब बदलना चाहिए ही क्योंकि यह सब नहीं बदले तो सरकार ही क्यों बदले ? लेकिन कोई भी सरकार देश नहीं होती ! सरकार बदले तो देश ही बदलने लगे, उसके बुनियादी मूल्य और उसकी सामाजिक संरचना बदलने लगे, नागरिकता के प्रतिमान बदलने लगें तब तो देश नहीं, सरकार बड़ी चीज हो जाएगी. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दृढ़ फैसले में यही तो कहा है कि संसद सार्वभौम है, वह सब कुछ कर सकती है लेकिन संविधान का बुनियादी ढांचा नहीं बदल सकती. लेकिन अब ऐसा करने की कोशिशें हो रही हैं.

क्या राष्ट्रप्रेम ऐसी चीज है जो कानून और दंड से सिखाई जा सकती है ?

देश की सबसे बड़ी अदालत ने सिनेमा घरों में राष्ट्रगान बजाने को और उसके सम्मान में खड़ा होने को भारतीय होने और राष्ट्रभक्त होने से जोड़ने वाला फैसला जब से दिया है, यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या राष्ट्रप्रेम ऐसी चीज है जो कानून और दंड से सिखाई जा सकती है ? अगर ऐसा होता तो फौज में कभी, कोई जासूसी करता और दस्तावेजों के सौदे करता पकड़ा नहीं जाता और राष्ट्रीय महत्व की कुर्सियों पर बैठे लोग कमीशन खाते, दल बदलते और अपने आर्थिक लाभ के मद्देनजर कानूनों को बनाते-बिगाड़ते नहीं मिलते और न्यायपालिका के न्यायदाता फैसलों का सौदा करते नहीं मिलते. यह सब हो रहा है और हमारा कोई ७० साल पुराना लोकतंत्र बार-बार कोशिश कर रहा है कि बातें सुधारी जाएं और लोगों को सचेत किया जाए. इसमें कानून की भी अपनी भूमिका है, प्रशासन की भी और सामाजिक स्तर पर काम करने वालों की भी. लेकिन किसी जातिविशेष या धर्म विशेष या भाषाविशेष या लिंगविशेष को निशाने पर ले कर जब भी आप कानूनी या फौजदारी कदम उठाते हो तो यह अपने पांवों पर आप कुल्हाड़ी मारने जैसा होता है. झंडे फहराने का आदेश आप नहीं दे सकते, आप यह निर्देश जरूर दे सकते हैं कि अगर झंडा फहराया है आपने तो निम्न प्रक्रियाओं का पालन करना जरूरी है. मुस्लिम व दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों को यह सिखाने-समझाने-बताने की जरूरत है कि राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा और राष्ट्रपिता का वैसा ही सहज मान आपको भी करना चाहिए जैसा देश में सभी करते हैं. मुस्लिम समुदाय के रहनुमाओं का भी यह धर्म है कि वे अपने समाज को इसके लिए तैयार करें. उनको यह समझना ही होगा कि देश में जो सर्वमान्य है, सर्ववंदित है उसका मान-सम्मान करना हर नागरिक का धर्म भी है और जिम्मेवारी भी. सरकारी निर्देश या कानून इसमें हमारी मदद करता है.

देशवासियों पर देश भारी

लेकिन जब आदेश में ही खोट हो तो पालन निर्दोष कैसे हो सकता है ?

धौंस जमाने की मंशा से जारी आपके आदेश से डरे मदरसों ने बड़ी संख्या में झंडे का समारोह किया इस बार, दारुल उलूम की इमारत पर ४० सालों बाद झंडा फहराया गया, जिन बच्चों को कुरान व इस्लाम के नाम पर राष्ट्रगान गाने से रोका गया था अब तक, वैसे सभी बच्चों ने यह समारोह मनाया. दूसरी तरफ सहारनपुर से आई खबरों जैसी खबरों की भी कमी नहीं है कि जहां झंडे की जबर्दस्ती में सांप्रदायिक तनाव बना, कितनी ही जगहों पर लोग आदेश व जबर्दस्ती के खिलाफ अदालतों में गए हैं. ममता बनर्जी की सरकार ने बंगाल के अपने संस्थानों को निर्देश जारी किया कि केंद्रीय निर्देशों का पालन न किया जाए. यह भी हुआ कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने स्थानीय प्रशासन के आदेशों की अवहेलना कर, गैर-कानूनी तरीके से केरल के एक स्कूल में झंडा फहराया. अब क्या ऐसा माना जाए कि मोहन भागवत और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के लोग, उनकी शाखाएं सब-की-सब राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा और राष्ट्रपिता के बारे में अपना रवैया एकदम से बदलेंगे और देश की मुख्यधारा में शमिल हो जाएंगे ? अगर हां तो इस बारे में लोकशिक्षण का एक नया अभियान छेड़ना होगा; अगर नहीं तो कोई ‘फैज’ की आवाज में आवाज मिला कर कह उठेगा : निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां / चली है रस्म की कोई न सर उठा के चले !” और तब आप निरुत्तर रह जाएंगे. गूंगा लोकतंत्र बहुत खतरनाक होता है.