प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) का कहना है कि आम बजट 2022-23 नया विश्वास लेकर आया है। तो सवाल ये उठता है कि पुराने विश्वास का अब क्या होगा? मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में सबका साथ, सबका विकास के साथ सबका विश्वास का पुछल्ला भी जोड़ा था। पिछले सात सालों से विकास और विश्वास को सत्ता का हित साधने के लिए इतने बार भुनाया जा चुका है कि अब इन शब्दों से राजनीति की गंध के अलावा और कोई अनुभूति नहीं होती। इस बार पेश किए गए आम बजट और रेल बजट में भी विकास और विश्वास को लेकर की गई राजनीति की गंध ही भरी हुई है।
ये मानने में अब कोई संकोच नहीं है कि मोदी सरकार के पास शब्दों का तो लंबा-चौड़ा जाल है, लेकिन भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश के लिए दूरदर्शी सोच नहीं है। आम बजट में वित्त मंत्री ने अगले सौ सालों के ढांचागत विकास की रूपरेखा पर तो बात की है, लेकिन आम आदमी अगले सौ दिन या अगले सौ महीने किस उम्मीद पर बिताएगा, इस बारे में बजट किसी तरह की आश्वस्ति नहीं देता है।
पिछले दो सालों में कोरोना के कारण लगाए गए प्रतिबंधों से उद्योगों और नौकरियों पर बहुत बुरा असर पड़ा और इस वजह से आम जनता का जीवन अभूतपूर्व कठिनाइयों से गुजरा है। रोजगार
महामारी के चलते स्वास्थ्य खर्चों में बढ़ोतरी हुई।
कृषि कानूनों के विरोध में किसानों को साल भर तक आंदोलनरत रहना पड़ा, जिसका व्यापक असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ा। ऐसे में बजट में इन सब पहलुओं की ओर सरकार का ध्यान दिखना चाहिए था। मगर बजट में जिक्र हुआ गति और शक्ति का।
क्या गुम हो जाएगा गांवों का भारत ?
बजट में बताया गया है कि वित्त वर्ष 22-23 में 25 हजार किलोमीटर के हाईवे तैयार किए जाएंगे। अगले तीन सालों में 100 नए कार्गो टर्मिनल विकसित किए जाएंगे। पीएम गतिशक्ति योजना के तहत रोड, रेलवे और वॉटरवेज के इंफ्रा और लॉजिस्टिक्स विकास पर फोकस किया जाएगा। इन सब बड़ी-ब़ड़ी बातों और योजनाओं में गांवों का भारत गुम हो जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
वैसे मोदी सरकार के लिए शायद गांवों का मतलब किसान हैं और किसानों का मतलब चुनाव है। इसलिए बजट में घोषणा की गई है कि 163 लाख किसानों से 1,208 लाख मीट्रिक टन गेहूं और धान की खरीद की जाएगी। 2.37 लाख करोड़ रुपये उनके खातों में न्यूनतम समर्थन मूल्य का सीधा भुगतान होगा। अब घोषणा हो गई है तो उसके लिए पहले उतना गेहूं और धान किसान उपजा लें, फिर सरकार खरीद ही लेगी। लेकिन कृषि कानूनों की वापसी के साथ जिस एमएसपी गारंटी की मांग किसान कर रहे थे, उस पर बजट में कुछ कहा ही नहीं गया है। बल्कि रासायनिक मुक्त, प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की बात की गई है। अब ये आने वाले वक्त में पता चलेगा कि इस नई पहल का खाद सब्सिडी से क्या लेना-देना रहेगा और इसके तहत किस तरह कार्पोरेट घरानों को और उद्योगपति किसानों को फायदा पहुंचाया जाएगा।
बजट में ये ऐलान भी किया गया है कि गंगा के दोनों किनारों पर 5 किलोमीटर के दायरे में ऑर्गेनिक फार्मिंग की जाएगी। लेकिन क्या उप्र और उत्तराखंड चुनावों में इस ऐलान का कोई असर किसानों पर पड़ेगा, ये नतीजे आने के बाद पता चलेगा।
मध्य वर्ग पर मोदी सरकार की सर्जिकल स्ट्राइक
आम बजट में सबसे अधिक निराशा उस मध्यवर्ग को हुई है, जो इस बजट में अपने लिए करों में राहत की उम्मीद कर रहा था। सरकार ने आयकर स्लैब में कोई बदलाव नहीं किया है, अलबत्ता इतनी रियायत दी है कि अगर इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करते वक्त कर योग्य किसी आय का जिक्र करना भूल गए तो अतिरिक्त टैक्स देते हुए 'अपडेटेड रिटर्न' भरने का मौका दो साल तक मिलेगा। इसके साथ ही सहकारी समितियों से वसूला जाने वाला 18 प्रतिशत टैक्स अब कंपनियों से वसूले जाने वाले कॉरपोरेट टैक्स के बराबर, 15 प्रतिशत कर दिया गया है।
वित्त मंत्री का आम मध्यवर्गीय लोगों के लिए यही संदेश है कि हमने दो साल से इनकम टैक्स नहीं बढ़ाया है और लोगों पर कोरोनाकाल के बावजूद टैक्स नहीं बढ़ा है, ये सबसे बड़ी राहत है।
इस सोच से समझा जा सकता है कि आम आदमी के सरोकारों से इस बजट कितना वास्ता रखता है?
वैसे नए जनरेशन की 4 सौ वंदेभारत ट्रेनें, 'वन क्लास वन टीवी चैनल' की संख्या को बढ़ाकर दो सौ करना, एक स्टेशन, एक उत्पाद और डिजिटल यूनिवर्सिटी (digital university) जैसी भारी-भरकम बातें भी इस बजट का हिस्सा हैं और इसके साथ 60 लाख नौकरियों का वादा भी है। लेकिन इससे 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था और हर साल 2 करोड़ नौकरियों वाली बात भुलाई नहीं जा सकती। सरकार इन बातों को भुलाने के लिए और कितनी कोशिश करती है, ये देखना होगा।
आज का देशबन्धु का संपादकीय (Today’s Deshbandhu editorial) का संपादित रूप साभार.