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The mood of India's monsoon is changing due to climate change

फ़िलहाल भारत में मानसून आ चुका है, लेकिन मानसून के मिजाज़ बदले बदले से हैं इस मौसम की घटना के। वैसे भी भारतीय मानसून एक जटिल परिघटना है और विशेषज्ञों की मानें तो जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग ने मानसून के बनने की परिस्थिति पर और तनाव डाल दिया है। आंकड़े बताते हैं कि बारिश का रिकॉर्ड हर साल पहले के रिकॉर्ड को पार कर गया है।

The impact of climate change on monsoon is a worrying thing.

मानसून पर जलवायु परिवर्तन का असर एक चिंताजनक बात है। स्थिति कितनी गम्भीर है ये समझाते हुए क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशिका आरती खोसला कहती हैं,

देश भर में वर्षा भारतीय मानसून द्वारा संचालित होती है क्योंकि वार्षिक वर्षा का 70% से अधिक इस मौसम के चार महीनों के दौरान प्राप्त होता है। भारत में जून से सितंबर तक के मानसून के मौसम के दौरान 881 mm वर्षा दर्ज की जाती है। जुलाई और अगस्त सबसे ज़्यादा सराबोर महीने हैं, जिनमें मौसम की 2/3 वर्षा प्राप्त होती है। दक्षिण-पश्चिम मानसून कृषि क्षेत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत के GDP (सकल घरेलू उत्पाद) का लगभग 14

'Mangal',serif;"> प्रतिशत हिस्सेदार है।”

इन बताये गये आंकड़ों से स्थिति साफ़ है कि कितना महत्वपूर्ण है मानसून और कितना असर है उसका हमारी अर्थव्यवस्था पर और फिर देश के विकास पर।

भारत मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department - IMD) के अनुसार, 2020 में, +0.29°C का भारत का वार्षिक तापमान प्रस्थान 1901 में राष्ट्रीय रिकॉर्ड शुरू होने के बाद से आठवां उच्चतम था। +0.71°C का तापमान प्रस्थान रखते हुए भारत का सबसे गर्म वर्ष 2016 था। 2006 के बाद से भारत के 15 सबसे गर्म वर्षों में से बारह वर्ष हुए हैं।

वैश्विक तापमान प्रोफ़ाइल में वृद्धि की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। यह अनुमान है कि हम बिज़नेस एज़ यूजुअल परिदृश्य में, 2050 तक, कुल मिलाकर 1.5°C या इससे अधिक की वृद्धि का अनुमान लगा सकते हैं। मौसम विज्ञानियों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग और निरंतर एल नीनो के संयोजन ने वर्ष 1950 में रिकॉर्ड शुरू होने के बाद से भारत में असामान्य रूप से गर्म मौसम की स्थिति पैदा की है।

NASA (नासा) के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज़ का कहना है कि, 2016 के सामान (जो सबसे गर्म वर्ष के लिए पिछला रिकॉर्ड था), 2020 रिकॉर्ड पर सबसे गर्म वर्ष था।

पिछले 30 वर्षों के रुझान स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि वैश्विक तापमान में वृद्धि ज़्यादातर मानव-प्रेरित गतिविधियों के कारण होती है, जिससे जलवायु पैटर्न और वार्षिक मौसम प्रणाली बदलते हैं।

जी.पी. शर्मा, पूर्व-AVM मौसम विज्ञान, भारतीय वायु सेना और Skymet Weather (स्काईमेट वेदर) में अध्यक्ष-मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन, ने कहा,

मानसून बड़े पैमाने पर समुद्री तापमान से संचालित होता है, इसलिए मानसून का आगमन, वापसी और निरंतरता मुख्य रूप से महासागरीय ताप सामग्री से निर्देशित होती है। बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण समुद्र के तापमान में वृद्धि हुई है, जिसने भारतीय मानसून के पैटर्न को काफ़ी हद तक प्रभावित किया है। 2020 में महासागर असाधारण रूप से गर्म थे क्योंकि वार्षिक वैश्विक समुद्री सतह का तापमान 20-वीं सदी के औसत से 1.37 °F ऊपर रिकॉर्ड पर तीसरा सबसे अधिक था - केवल 2016 और 2019 इससे ज़्यादा गर्म वर्ष थे। जहाँ पहले हर 15 साल में औसत सूखा 1 बार पड़ता था, लेकिन पिछले एक दशक में तीन बार सूखा पड़ा हैं।”

एल नीनो और ला नीना | El nino and La Nina effect

बहुचर्चित समुद्र-वायुमंडलीय परिघटनाओं, एल नीनो और ला नीना, में भी वृद्धि हो रही हैं। जबकि एल नीनो का भारतीय मानसून वर्षा के साथ विपरीत संबंध है, ला नीना अच्छी मानसून वर्षा के साथ जुड़ा हुआ है। उदाहरण के लिए, भारत में एल नीनो की वजह से 2014 और 2015 में भीषण सूखा पड़ा था, जबकि 2020 में ला नीना की मौजूदा स्थितियों के कारण सामान्य से अधिक बारिश हुई थी।

हालांकि मौसम विशेषज्ञ एल नीनो को सीधे तौर पर ग्लोबल वार्मिंग की एक शाखा के रूप में नहीं देखते हैं, पर ग्लोबल वार्मिंग के कारण महासागरों के गर्म होने से एल नीनो की घटनाओं की तीव्रता, आवृत्ति और अवधि बढ़ रही है।

अद्भुत रूप से, एल नीनो और ला नीना की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जिसका सीधा प्रभाव मानसून पर पड़ता है। इन दोनों घटनाओं के बारे में सबसे बुरी बात यह है कि इनका शुरुआती संकेत बहुत देर से आता है। एल नीनो की बढ़ती संख्या और जलवायु परिवर्तन के साथ, सूखा पड़ना केवल कृषि और ग्रामीण आजीविका से संबंधित अनिश्चितताओं को बढ़ाएगा,” जी.पी. शर्मा ने कहा।

मानसून वर्षा में गिरावट | Monsoon rain fall

एल नीनो की आवृत्ति, कमज़ोर मानसूनी परिसंचरण, वायु प्रदूषण में वृद्धि और हिंद महासागर के गर्म होने जैसे कारक वर्षा की अवधि को प्रभावित कर रहे हैं।

एक रिपोर्ट, प्रोपोरशनल ट्रेंड्स ऑफ़ कन्टिन्यूअस रेनफॉल इन इंडियन समर मानसून मानसून (भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून में निरंतर वर्षा के आनुपातिक रुझान), के अनुसार 1951 से 2018 तक वर्षा की प्रवृत्ति मानसून की शुरुआत के पहले 45 दिनों (1 जून से 15 जुलाई) में गिरावट की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करती है। चावल की फसल के मौसम में बारिश के दिनों की कुल संख्या (यानी, पहले 45 दिन, फसल का मौसम, मानसून की शुरुआत से) भारत में, शुरुआती अवधि की तुलना में, देर की अवधि के दौरान आधे दिनों से कम हो जाती है।

देश के विभिन्न क्षेत्रों में मॉनसून वर्षा परिवर्तनशीलता सीधे तौर पर वर्षा आधारित फसलों की वृद्धि और सामाजिक-आर्थिक संरचना को प्रभावित करती है। यह देखा गया है कि मानसून के दौरान वर्षा का वितरण अब अनियमित हो गया है। मानसून के अनिश्चित व्यवहार और उसकी अनियमितताओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता।

भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे के एक जलवायु वैज्ञानिक, डॉ रॉक्सी मैथ्यू कोल, ने कहा,

"1950 से 2015 तक मध्य भारत की वार्षिक वर्षा में गिरावट और अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि हुई है। मध्य भारत में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि का प्रमुख कारण अरब सागर से नमी की आपूर्ति में वृद्धि है। वार्षिक वर्षा में कमी का श्रेय भारतीय मानसून परिसंचरण के कमज़ोर होने और निम्न दबाव प्रणालियों के घटने को दिया जाता है।"

प्रोपोरशनल ट्रेंड्स ऑफ़ कन्टिन्यूअस रेनफॉल इन इंडियन समर मानसून मानसून (भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून में निरंतर वर्षा के आनुपातिक रुझान) रिपोर्ट के अनुसार, 1985 से 2018 तक वर्षा के दिनों की संख्या भारत के सभी क्षेत्रों में जुलाई के दौरान गिरावट दर्शाती है। कुल मिलाकर, वर्षा के दिनों की संख्या भारत में, जून को छोड़कर, गर्मी के मौसम और महीनों में घटती प्रवृत्ति दर्शाती है।

चरम मौसम की घटनाएं | Extreme weather events

मॉनसून की बारिश में न सिर्फ कमी आई है, बल्कि बारिश की बौछारों का पैटर्न भी असंगत हो गया है। यह सीधे तौर पर भारी और अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि से संबंधित है। 1951-2005 की अवधि के दौरान वर्षा के दैनिक आंकड़ों का उपयोग करते हुए पश्चिमी तट और मध्य भारत में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है।

CEEW की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रेपरिंग इंडिया फॉर एक्सट्रीम क्लाइमेट इवेंट्स (अत्यधिक जलवायु घटनाओं के लिए भारत की तैयारी), माइक्रो (सूक्ष्म) तापमान में निरंतर वृद्धि के कारण मानसून कमज़ोर हो गया है। भारत के 40 प्रतिशत से अधिक जिलों में चरम घटनाओं जैसे बाढ़-प्रवण क्षेत्रों का सूखा-प्रवण हो जाना और इसके विपरीत पैटर्न, दोनों बदल गए हैं।

महाराष्ट्र, कर्नाटका और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में गर्मी के दौरान रिकॉर्ड तोड़ तापमान और कमज़ोर मानसून के कारण 2015 के दौरान पानी की गंभीर कमी देखी गई। राजकोट, सुरेंद्रनगर, अजमेर, जोधपुर और औरंगाबाद, और अन्य कुछ ऐसे जिले हैं, जहां हमने बाढ़ से सूखे की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति देखी। बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु के कुछ जिलों में सूखा और बाढ़ की घटनाएं एक साथ देखी गयी। रुझान खतरनाक हैं और स्थानीय स्तर पर व्यापक जोखिम मूल्यांकन की मांग की ज़रुरत रखते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग का कृषि पर प्रभाव | Impact of global warming on agriculture

इन ग्लोबल वार्मिंग की वजह से होने वाली चरम घटनाओं का कृषि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, विशेष रूप से भारत के लिए जहां अभी भी खेती की भूमि का एक बड़ा हिस्सा मानसून की बारिश पर निर्भर है।

भारत एक कृषि संचालित अर्थव्यवस्था है, जिसकी अधिकांश आबादी कृषि और संबंधित गतिविधियों में लगी हुई है।

मानसून के पैटर्न में चल रहे बदलावों का किसानों पर बहुत प्रभाव पड़ता है, जो अंततः कृषि उत्पादकता तक जाता है। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण मानसून के उदासीन व्यवहार को देखते हुए इसकी गतिकी को समझने के लिए अधिक से अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। अब तक, मानसून की अस्थिर प्रकृति के कारण कृषि-जोखिम का निकट भविष्य में कोई महत्वपूर्ण मिटिगेशन नहीं दिखाई दे रहा है।

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