आभार सुबीर वन्दना दास। तुमने हिन्दू धर्म के महान समाज सुधारक को याद किया। जिन्होंने शिक्षा आंदोलन चलाया। बेमेल और बहू विवाह, सती प्रथा पर रोक लगवाई। विधवा विवाह का प्रचलन किया और मनुस्मृति के मुताबिक सारे अधिकारों से वंचित स्त्री को शिक्षा का अधिकार (Right to education for a woman deprived of all rights according to manusmriti) दिलाने के लिए महात्मा ज्योति बा फुले, माता सावित्री बाई फुले और महामना हरिचांद ठाकुर की तरह स्त्री को शिक्षित करने का आंदोलन चलाया।
सनातन हिन्दू धर्म की कुरीतियों, मनुस्मृति और स्त्री, शूद्रों, दलितों को सारे अधिकारों से वंचित करने की व्यवस्था के समर्थक हिन्दू समाज के ठेकेदारों ने ईश्वर चन्द्र विदयासागर को बार-बार जान से मारने की कोशिश की। राजा राममोहन राय और ब्रह्म समाज के सहयोग से derazio जैसे उदार अंग्रेजों की दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति की वजह से सती प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह पर रोक के लिए कानून तो बन गए और कुलीनत्व की दीवारें तोड़कर स्त्री समाज के जेलखाने से बाहर आकर खुली हवा में सांस तो लेने लगीं, जिन्हें जल्द ही अंतरिक्ष की उड़ान भी भरना था। लेकिन धर्म और समाज के ठेकेदारों का राजा राममोहन राय और विद्यासागर के खिलाफ हमले कभी नहीं रुके।
राजा राम मोहन राय इंग्लैंड में अक्षय मरे तो उनकी मदद करने वाले भी विद्यासागर थे। इसीतरह रावण और मेघनाथ को नायक बनाकर मेघनाथ वध काव्य लिखने वाले माइकल मधुसूदन दत्त की भी अंतिम समय तक मदद करने वाले विदयासागर ही थे।
ब्रह्मसमाजी कर्मकांड के खिलाफ थे। मूर्तिपूजा के विरोधी थे। रवींद्र नाथ का परिवार ब्रह्मसमाजी था और पूरा बंगाल इस परिवार के खिलाफ था। रवींद्र को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद रातोंरात बंगालियों ने उन्हें सर आंखों पर बैठा लिया, लेकिन राष्ट्रवाद के खिलाफ थे रवींद्र। अस्पृष्यता के खिलाफ थे रवींद्र। किसानों मजदूरों और समाजवाद के साथ गौतम बुद्ध के समर्थक थे रविन्द्र नाथ। बंगाली आज भी उनके विचारों के खिलाफ हैं उनकी पूजा जरूर करते हैं।
यह पाखण्ड है। आप किसी के विचारों के खिलाफ उसका पुतला जलाते हो, उसके घर पर हमला करते हो, उसको जान से मारने की कोशिश करते हो, फिर भी खुद को आधुनिक और प्रगतिशील साबित करने के लिए उन्हें शत-कोटि प्रणाम भी लिखते हो।
बाकी प्रगतिशील और मुक्त विचारों वाले लोग स्त्री की स्वतंत्रता की बातें तो खूब करते हैं लेकिन स्त्री अब भी उनके लिए एक देह है, जिसे छूत लग जाती है और सड़े हुए अंडे की तरह वह नष्ट, भ्रष्ट, छिनाल, रंडी बन जाती है। उसकी निजी और सामाजिक जिंदगी की जवाबदेही कोई नहीं लेता।
महात्मा फुले, माता फुले, विद्यासागर और स्त्री मोर्चे के तमाम महानायक ऐसे नहीं थे।
उन्हें शत-कोटि प्रणाम लिखने के बजाय उनके विचारों को अमल में लाये तो बेहतर। ये तमाम लोग मूर्ति पूजा के खिलाफ संस्था थे, व्यक्ति नहीं।
पलाश विश्वास