नरेंद्र मोदी की लॉकडाउन की घोषणा (Narendra Modi's lockdown announcement) की संरचना से जो बात शुरू से ही स्पष्ट थी, उसे लॉकडाउन के अघोषित विसर्जन की शुरूआत तक पहुंचते-पहुंचते, बाकायदा एलान कर के ही बता दिया गया है। और यह बात है क्या है? संक्षेप में यह बात है--कोरोना संकट का मोदी सरकार द्वारा मजदूरों पर और आम तौर तमाम मेहनतकशों पर, चौतरफा हमले का बहाना बना लिया जाना। इसकी शुरूआत, बिना किसी पूर्व-तैयारी के, अकस्मात और प्रभावित होने जा रहे लोगों से और यहां तक कि राज्यों से भी किसी भी तरह के परामर्श के बिना, नोटबंदी की तर्ज पर नरेंद्र मोदी द्वारा सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर, 21 दिन के ''टोटल लॉकडाउन” का एलान किए जाने से हुई थी।
जैसाकि शुरू से ही स्पष्ट था और हर गुजरने वाले घंटे के साथ ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट होता गया, इस देशबंदी की संकल्पना ही आबादी के छोटे से हिस्से को सुरक्षित करने के लिए, जो विदेश से संपर्क के माध्यम से फैल रहे कोराना वाइरस की सीधी मार में थे, बाकी सब को कैद कर के रखे जाने की थी।
बेशक, लॉकडाउन की पाबंदियां ऐसे तो सभी के लिए थीं, लेकिन सबके लिए उनका असर एक जैसा नहीं था, नहीं हो सकता था। अगर संपन्नतर तबके के लिए, जो वैसे भी 'सामाजिक दूरी’ का भरपूर आचरण करता है, यह थोड़ा और असामाजिक हो जाने से समेत मामूली असुविधाओं का मामला था, तो मेहनतकशों के विशाल बहुमत के लिए और सबसे बढ़कर करोड़ों प्रवासी मजदूरों-अर्द्धमजदूरों के लिए, यह जिंदा रहने के न्यूनतम साधनों के, अगले दिन की रोटी तथा सिर के ऊपर छत तक के, अचानक छीन लिए जाने का मामला था। लाखों के पास वह ''घर” ही नहीं था जहां पर ही बने रहने की उनसे मांग की जा रही थी।
यह सचाई दूसरे-तीसरे दिन ही तब आंखों में उंगली डालकर दिखाने की हद तक साफ हो गयी, जब अंतर्राज्यीय और राज्यों के अंदर के भी दसियों हजार प्रवासी मजदूर, अपने घरों-गांवों के लिए लौटने के लिए, कोई साधन मिल जाने उम्मीद में, देश की राजधानी में प्रमुख बस अड्डों पर जमा हो गए।
शुरूआती ऊहापोह के बाद, केंद्र सरकार द्वारा इसके स्पष्ट आदेश जारी कर दिए गए कि घर लौटने के लिए कोई साधन मुहैया कराया जाना तो दूर, उन्हें रास्तों पर चलने/निकलने से भी सरकारी दमनतंत्र के सहारे रोका जाएगा। उसके बाद से ''जो जहां है वहीं रहे” के प्रधानमंत्री के निर्देश को धता बताते हुए, प्रवासी मजदूरों तथा अन्य अनियमित आजीविका से गुजारा करने वालों का, कमाई के लिए वे जिस घर को छोड़कर आए थे, उसी की ओर लौटने का जो अवर्णनीय रूप से कठिन तथा कुर्बानियां लेने वाला संघर्ष शुरू हुआ, लॉकडाउन के लगभग पचपन दिनों में कमोबेश लगातार जारी रहा है।
''टोटल लॉकडाउन” के छोर पर, ''कोटा में फंसे छात्रों” को निकालने से शुरू हुए सिलसिले में, ''फंसे हुए” तीर्थयात्रियों तथा अन्य यात्रियों आदि के साथ, प्रवासी मजदूरों को भी निकालने के लिए काफी हिचकिचाहट के साथ सीमित संख्या में टे्रेनें-बसें मुहैया कराने की शुरूआत के साथ ही, मौजूदा सरकार का वर्गीय चेहरा साफ-साफ दिखाई देने लगा। छात्र, तीर्थयात्री आदि, बाकी सब के विपरीत, प्रवासी मजदूरों की घर वापसी (Homecoming of migrant laborers) के लिए रास्ता जरा सा खुलते ही, केंद्र की और अनेक राज्यों की भी सरकारों को इसकी चिंता सताने लगी कि मजदूर लौट गए तो, लॉकडाउन में ढील के साथ अर्थव्यवस्था के चक्के फिर से चलने कैसे शुरू होंगे?
उधर केंद्रीय गृहमंत्रालय ने राज्यों के लिए अपने दिशा-निर्देशों के सम्बंध में एक और स्पष्टीकरण जारी किया, जिसका सीधा सा आशय यही था कि विशेष ट्रेनों आदि की सुविधा ''फंसे हुए मजदूरों” की एक सीमित सी श्रेणी के लिए ही थी, जिसका लाभ घर जाना चाहने वाला हरेक मजदूर नहीं ले सकता है।
इसी के आस-पास पंजाब, हरियाणा, गुजरात समेत कई अपेक्षाकृत ज्यादा उद्योग वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने, उत्तर प्रदेश जैसे ज्यादा प्रवासी मजदूरों के गृह राज्यों के मुख्यमंत्रियों से, इसकी अपीलें करनी शुरू कर दीं कि प्रवासी मजदूरों को वापस बुलाने के प्रति ज्यादा उत्साह नहीं दिखाएं। हालांकि, कर्नाटक सरकार के फरमान में मजदूरों के साथ खुल्लमखुल्ला बंधुआ जैसा सलूक किए जाने पर उठे शोर के बाद, भाजपा सरकार को उक्त फरमान वापस लेना पड़ा और प्रवासी मजदूरों के लिए प्रस्तावित कुछ ट्रेनें बहाल भी करनी पड़ीं, फिर भी आम तौर पर शासन का रुख, केरल की वामपंथी सरकार जैसे इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर, यही बना रहा है कि लॉकडाउन के पहले चालीस दिनों की तरह सीधे-सीधे रोका भले न जा सके, फिर भी जहां तक संभव हो मजदूरों को घर लौटने से रोका जाए।
इसीलिए तो, हालांकि औपचारिक रूप से केंद्र व अधिकांश राज्यों की भी सरकारें अब घर वापसी में प्रवासी मजदूरों की मदद कर रहे होने की मुद्रा अपना चुकी हैं। और केंद्र सरकार तो इसके लिए ट्रेन सेवाएं अपनी ओर से मुफ्त मुहैया कराने तक का दावा कर रही है, जो जाहिर है कि इतना झूठा है कि मोदी के अपने गुजरात की सरकार, सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के जरिए, अपने राज्य जाने वाले प्रवासी मजदूरों से, ट्रेन के लिए सामान्य से कुछ अधिक किराया वसूल कर रही है। इसके बावजूद, लॉकडाउन के तीसरे विस्तार के छोर पर आते-आते भी देश भर में हर जगह से हजारों मजदूरों को पैदल ही या फिर हथठेला से लेकर साइकिल, रिक्शा, ऑटो आदि, किसी भी साधन से, अपने घर जाने की कोशिश करते देखा जा सकता है।
लेकिन, देश के शासकों ने इतने पर ही बस नहीं कर दी है। मोदी सरकार के उकसावे पर और उसके मुंहलगे उद्योग संगठनों के दबाव में, लॉकडाउन-2 के आखिर तक ही कई राज्य सरकारें, आने वाले दिनों के लिए मजदूरों के लिए कार्य दिवस 8 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे करने से लेकर, ओवर टाइम का भुगतान कम करने जैसे ''सुधारों” (वास्तव में बिगाड़ों ) का एलान कर चुकी थीं। जाहिर है कि यह उद्योगपतियों को इसका भरोसा दिलाने के लिए है कि कोरोना संकट से अपने मुनाफे में आयी कमी की भरपाई वे, मजदूरों का शोषण और तेज कर के कर सकते हैं।
इस सब में केंद्र सरकार किस तरफ है और वास्तव में कोरोना के संकट के बीच भी उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं, इसे स्पष्ट करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्रियों के साथ लॉकडाउन काल की अपनी संभवत: तीसरी वीडियो कान्फ्रेंस में, राजस्थान की कांग्रेस सरकार को ऐसी एकमात्र विपक्षी सरकार के रूप में चुना, जिसके कदम कोरोना के मौजूदा संकट के बीच उन्हें प्रशंसा करने लायक लगे थे। क्या कारोना के फैलाव पर अंकुश लगाने के कदम? नहीं, मजदूरों को सीमित सी सुरक्षा देने वाले कानूनों के भी बाकायदा उठाकर ताक पर रख दिए जाने के कदम।
फिर क्या था, जैसे पूंजीपति-मित्र सरकारों का धड़का खुल गया। लॉकडाउन-3 के छोर पर पहुंचने से पहले-पहले पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, ओडिशा आदि करीब दर्जन भर राज्यों की सरकारें, अधिकांश श्रम कानूनों को काफी समय के लिए स्थगित करने की घोषणाएं कर चुकी हैं।
उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ सरकार ने अध्यादेश के जरिए, तीन साल के लिए अधिकांश श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बना दिया है, जबकि मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार ने 1000 हजार दिन के लिए मंत्रिमंडलीय आदेश के जरिए ऐसा ही फैसला किया है। कोरोना की चुनौती के नाम पर, श्रम कानूनों को ध्वस्त करने की इस मुहिम के छेड़े जाने से अब यह सच खुलकर सामने आ गया है कि कारोना संकट को मेहनतकशों पर चौतरफा हमले का हथियार बनाया जा चुका है।
जाहिर है कि यह हमला सिर्फ मजदूरों की कानूनी सुरक्षा या मजदूरों के अधिकारों पर ही नहीं है। लॉकडाउन की पाबंदियों का सहारा लेकर, जिस तरह एक ओर विरोध की सभी अभिव्यक्तियों को रोका गया तथा दूसरी ओर, मोदी सरकार के आलोचकों की यूएपीए से लेकर राजद्रोह तक के आरोपों में अंधाधुंध गिरफ्तारियां हो रही हैं, वह आने वाले दिनों में जनतंत्र के हर पहलू और सिकोड़े जाने का ही संकेतक है।
एक और स्तर पर ऐसा ही संकेत, राष्ट्रीय आपदा कानून के प्रावधानों का दुरुपयोग कर, लॉकडाउन के पूरे दौर में राज्यों को सिर्फ आर्थिक रूप से साधनविहीन ही नहीं, पूरी तरह से अधिकारविहीन भी कर दिए जाने और निर्णय करने की सारी शक्तियां केंद्र के हाथों में ही केंद्रित कर दिए जाने से मिलता है। तब्लीगी जमात (Tablighi group) की गैरजिम्मेदारी जैसी झूठे-सच्चे बहानों से, कोरोना को इस्लामी टोपी पहनाया जाना भी, इसी हमले का एक और पहलू है।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह सभी कुछ, कोरोना के खिलाफ भारत की लड़ाई को कमजोर करता है। लेकिन, यह तो इसी का साक्ष्य है कि मोदी सरकार की दिलचस्पी कोरोना से लडऩे में कम है और कोरोना संकट का इस्तेमाल कर, मेहनतकशों पर हमला करने में ज्यादा। और मोदी राज के लिए यह हमला तेज से तेज करना इसलिए जरूरी है कि उसकी कारगुजारियों ने तथा अंतर्राष्ट्रीय हालात ने मिलकर, कोरोना का हमला होने से पहले ही देश को गहरे आर्थिक संकट में धकेल दिया था और कोरोना संकट ने, इस आर्थिक संकट को कई गुना बढ़ा दिया है। इसे अपने शासन के लिए और अपने कार्पोरेट आकाओं के मुनाफों के लिए संकट बनने से बचाने के लिए, उसे कोरोना जैसा बहाना चाहिए।
लेकिन, नरेंद्र मोदी सिर्फ कारोना को बहाना बनाने से संतुष्ट होने वाले नहीं हैं। वह मामूली शासक नहीं, एक जादूगर हैं। अंग्रेजी की संज्ञा का प्रयोग करें तो वह उस्ताद इल्यूज़निस्ट यानी मरीचिकाबाज हैं। लॉकडाउन के तीसरे चरण के आखिर तक आते-आते उन्हें अचानक ''आत्मनिर्भरता” की याद आने और कोरोना संकट को अवसर में बदलने के लिए ''आत्मनिर्भरता मिशन” में 20 लाख करोड़ रुपए के निवेश के उनके एलान की यही सचाई है--यह एक गहन मरीचिका है। इस मरीचिका का फौरी मकसद, मुख्यत: लॉकडाउन के जरिए कोरोना का मुकाबला करने की नरेंद्र मोदी की रणनीति की घोर विफलता पर पर्दा डालना है। और इसका मध्यम अवधि मकसद है, आने वाले दिनों में बढ़ते संकट के बीच कार्पोरेटों के मुनाफों की हिफाजत करने के लिए, मेहनतकश जनता पर हमला तेज से तेज करते हुए भी, अपने शासन के विरोध की आवाजों को कुंद करने की कोशिश करना। 0
राजेंद्र शर्मा