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Farmer Movement: Will the government bow down or farmers!

देशबन्धु में संपादकीय आज. Today's Deshbandhu editorial

दिल्ली में जुटे किसानों का आन्दोलन (Peasants' movement,) दस दिन बाद भी जारी है। कल तक कहीं किसी समझौते की राह दूर-दूर तक नहीं दिख रही थी लेकिन जानकार मानते हैं कि उम्मीद की एक किरण अब नज़र आने लगी है। बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आन्दोलन के बढ़ते दायरे पर चिंता ज़ाहिर की है और किसानों से बात कर रहे प्रमुख लोगों को तलब करके उनको कुछ दिशा-निर्देश दिए हैं।

प्रधानमंत्री के घर चली बैठक में कृषिमंत्री नरेंद्र तोमर और उनके सहयोगियों के अलावा रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और गृहमंत्री अमित शाह भी शामिल हुए थे।

प्रधानमंत्री आवास पर यह बैठक देर तक चली और उसी के बाद इमकान है कि कोई रास्ता निकला आयेगा।

अभी तक कृषिमंत्री और उनकी नौकरशाही की कोशिश थी कि किसानों को तीनों कानूनों की अच्छाइयों को बताकर उनको राज़ी कर लिया जाएगा। अगर ज़रूरत पड़ी तो सरकार की तरफ से कुछ आश्वासन आदि देकर आन्दोलन को ख़त्म करवा लिया जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हो सका। यह बात बातचीत में शामिल नौकरशाहों को तीन दिसंबर की बैठक के बाद ही समझ में आ चुकी थी।

सरकारी अफ़सरों को यह भी अंदाज़ लग गया था कि किसानों के नेताओं की काबिलियत कृषि संबंधी मुद्दों पर सरकारी पक्ष से ज़्यादा है इसलिए उनको सरकारी भाषा की ड्राफ्टिंग के चक्कर में नहीं लपेटा जा सकता।

लेकिन नौकरशाही का एक बुनियादी सिद्धांत है कि वह राजनेताओं की इच्छा को ही नीति का स्वरूप देती हैं और उसी हिसाब से फ़ैसले लेती है। पांच दिसंबर

की बैठक में भी जब सरकारी तौर पर वही राग शुरू कर दिया गया तो किसान नेताओं ने नाराज़गी जताई और करीब आधे घंटे का मौन रख कर अपने गुस्से का इज़हार किया। उसके बाद कृषिमंत्री नरेंद्र तोमर को हालात की गंभीरता पूरी तरह से समझ में आई और उन्होंने थोड़ी मोहलत मांगी। उनका कहना था कि सरकार को किसानों के रुख के हिसाब से अपनी प्रतिक्रिया तय करने के लिए आपस में थोड़ा अधिक विचार विमर्श करना जरूरी है।

अब किसानों और सरकार के बीच अगली बैठक नौ दिसंबर को होगी। उसके पहले आठ दिसंबर को किसान नेताओं ने भारत बंद का आह्वान किया है। सरकार की भी नज़र इस बंद पर होगी। अगर बंद सफल हुआ तो सरकार का नज़रिया कुछ और होगा लेकिन अगर बंद फ्लॉप हो गया तो सरकार किसानों के आन्दोलन को कम महत्व देगी और संसद में पास किये गए कानूनों में कोई खास फेरबदल नहीं करेगी। किसानों को आन्दोलन ख़त्म करने के लिए बहाना जरूर उपलब्ध करवा सकती है।

The hope of finding a middle ground has increased after the Prime Minister's intervention.

प्रधानमंत्री के दखल के बाद बीच का रास्ता निकलने की उम्मीद बढ़ गई है। अब तक तो किसान आन्दोलन को केवल पंजाब के किसानों का आन्दोलन कहकर बात को सीमित करने की कोशिश की जाती रही है लेकिन अब हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों के किसान भी बड़ी संख्या में शामिल हो गए हैं।

अब सरकार को पता है कि केवल पंजाब की अमरिंदर सरकार ही किसान आन्दोलन को हवा नहीं दे रही है। उत्तरप्रदेश से आकर आन्दोलन में शामिल होने वाले लगभग सभी किसान वही हैं जिन्होंने अभी पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ज़बरदस्त तरीके से समर्थन किया था।

हरियाणा सरकार में शामिल दुष्यंत चौटाला की पार्टी के बहुत सारे नेता किसानों के समर्थन में खुलकर आ गए हैं। दुष्यंत चौटाला और चौ. वीरेन्द्र सिंह के सांसद बेटे के खिलाफ खाप पंचायत की तरफ से सामाजिक बहिष्कार की बात भी चल रही है।

अभी कल तक केंद्र सरकार में मंत्री रहीं हरसिमरत कौर बादल की पार्टी शिरोमणि अकाली दल के नेता चंदू माजरा कोलकाता जाकर ममता बनर्जी की पार्टी के नेताओं से मिलकर केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ क्षेत्रीय पार्टियों को लामबंद करने की कोशिश कर रहे हैं। तमिलनाडु में भी मुख्य विपक्षी पार्टी, डीएमके ने भी किसान आन्दोलन का समर्थन कर दिया है।

The peasant movement is not a movement made by any Congress or any political party

अब सब को पता है कि किसान आन्दोलन किसी कांग्रेसी या किसी राजनीतिक पार्टी के बहकावे में किया गया आन्दोलन नहीं है। असली किसान अपनी परेशानियों को लेकर सड़क पर है और सरकार से अपनी मांगों के लिए समर्थन मांग रहा है।

सरकार का रुख भी आन्दोलन के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं है। हरियाणा सरकार के कुछ मूर्खतापूर्ण कार्यों के अलावा बाकी किसी सरकार ने किसानों के प्रति सख़्ती नहीं दिखाई है। हरियाणा में तो दिल्ली की तरफ बढ़ रहे किसानों के ऊपर इस ठण्ड के मौसम में पानी की बौछार करने वाली तोपों का इस्तेमाल भी किया गया।

दिल्ली पुलिस ने भी आन्दोलन की शुरुआत में किसानों को गिरफ़्तार करने की योजना बनाई थी और दिल्ली की केजरीवाल सरकार से मांग की थी कि कुछ अस्थायी जेलें बना दी जाएं लेकिन दिल्ली सरकार ने साफ़ मना कर दिया।

अब तो केंद्र सरकार की समझ में भी आ गया है कि किसानों को शत्रु मानने की गलती नहीं करनी चाहिए। लेकिन सरकार और किसानों के बीच विवाद में अभी भी विश्वास की इस कदर कमी है कि किसान नेता अभी भी बैठक के स्थल, विज्ञान भवन में सरकार की तरफ से परोसा गया खाना तक नहीं खा रहे हैं। इसलिए अभी बातचीत के जरिये किसानों और सरकार के बीच बहुत लम्बा रास्ता तय होना है।

लेकिन यह बात भी सच है कि प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद सरकार का रवैया बदलेगा।

सूत्रों के हवाले से जो संकेत आ रहे हैं उनके हिसाब से प्रधानमंत्री ने आन्दोलन को सुलझा लेने का आदेश दे दिया है। उसके लिए अगर ज़रूरी हुआ तो संशोधन आदि के रास्ते भी खुले रखे जा रहे हैं। तीनों ही कानून को रद्द तो शायद नहीं किया जा सकेगा लेकिन किसानों की जायज़ मांगों के मान लिए जाने का रास्ता अब खुलता नजर आ रहा है।

आज का देशबन्धु का संपादकीय का संपादित रूप साभार