Hastakshep.com-आपकी नज़र-फादर स्टेन स्वामी-phaadr-stten-svaamii

Father Stan Swamy death : यह सिर्फ हिरासत में मृत्यु का ही मामला नहीं है। उससे बढ़कर यह मौजूदा मोदी निजाम द्वारा और उसके राजनीतिक औजार की तरह काम कर रही एनआइए जैसी एजेंसी द्वारा इस बुजुर्ग, आदिवासियों के अधिकारों तथा आम तौर पर मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले पादरी को, सोच-समझकर उठाए गए अपने कदमों से, मौत के मुंह में धकेल दिए जाने का ही मामला है।

Father Stan Swamy death
 भीमा-कोरेगांव प्रकरण में पूरे नौ महीने जेल में गुजारने के बाद, 84 वर्षीय जेसुएट पादरी, स्टेन स्वामी (Father Stan Swamy death) ने 5 जुलाई की दोपहर में मुंबई में दम तोड़ दिया। फादर स्वामी, साठ-सत्तर के दशक में लातीनी अमरीका में उठी रैडीकल थियोलॉजी की लहर से गहराई से प्रभावित हुए थे, जो खासतौर पर गरीबों व वंचितों का परलोक संवारने से पहले, उनका इहलोक का जीवन संवारने में मदद करने को धर्म का और इसलिए खासतौर पर गिरजे तथा पादरियों का, जरूरी काम मानती थी।

विदेश में पढ़ाई के दौरान फादर स्टेन स्वामी इस लहर के संपर्क में

आए थे और इस क्रम में उनकी दोस्ती, ब्राजील के बहुचर्चित कैथोलिक पादरी, हैल्डर कमारा से हुई थी, जिनका एक बहुचर्चित कथन है: ‘जब मैं (गरीबों को) रोटी देता हूं, वो मुझे संत कहते हैं। जब मैं पूछता हूं कि वे गरीब क्यों हैं, वो मुझे कम्युनिस्ट कहते हैं।’

इसी विचार के साथ स्वदेश वापस लौटने के बाद स्टेन स्वामी जल्द ही सबसे वंचित तबके, आदिवासियों के बीच काम करने के लिए, पश्चिमी सिंहभूमि के अंतर्गत चाइबासा में आ गए। इसके बाद से उन्होंने झारखंड को ही अपना घर बना लिया और आदिवासियों को ‘अपने लोग’!

It's not just a case of custodial death

स्टेन स्वामी, आखिरी वक्त तक हिरासत में थे और अपने वकीलों के माध्यम से जमानत के लिए लड़ ही रहे थे। लेकिन, यह सिर्फ हिरासत में मृत्यु का ही मामला नहीं है। उससे बढ़कर यह मौजूदा मोदी निजाम द्वारा और उसके राजनीतिक औजार की तरह काम कर रही एनआइए जैसी एजेंसी द्वारा इस बुजुर्ग, आदिवासियों के अधिकारों तथा आम तौर पर मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले पादरी को, सोच-समझकर उठाए गए अपने कदमों से, मौत के मुंह में धकेल दिए जाने का ही मामला है।

इसे संस्थागत हत्या कहा जाना पूरी तरह से उपयुक्त तो है, पर शायद यह शब्द भी स्थिति की गंभीरता को उसके पूरे आकार में व्यक्त नहीं कर पाता है। यह तो शासन के हाथों सोची-समझी, गैर-कानूनी हत्या का मामला है, जिसमें न्यायपालिका ने भी अपनी करनियों से बढक़र अकरनियों से, उसकी मदद की है।

इस हत्यारे खेल की शुरूआत तो तभी हो गयी थी, जब 8 अक्टूबर 2020 को, कोविड-19 के प्रकोप के बीचो-बीच, तब 83 के इस बुजुर्ग पादरी को गिरफ्तार किया गया था, जो अपनी अधिक उम्र तथा पार्किंसन की बीमारी समेत अनेक रोगों से पीडि़त होने के चलते, कानून से भागने तो क्या, कहीं आने-जाने में भी असमर्थ था।

गिरफ्तारी के अगले दिन, जब पहली बार फादर स्टेन स्वामी को मुंबई में विशेष अदालत में पेश किया गया, उनके वकीलों ने अदालत को इसका ध्यान दिलाया कि पर्किन्सन से पीडि़त होने के चलते वह तो, हाथ में कलम पकडक़र वकालतनामे पर दस्तखत तक नहीं कर सकते थे। आखिरकार, वकालतनामे पर उनका अंगूठा ही लगवाना पड़ा था। फिर भी मोदी-शाह की एनआइए की जिद की वजह से उन्हें जेल में डाल दिया गया, जबकि एनआइए को किसी तरह की पूछताछ के लिए उनको उनको रिमांड पर लेने की जरूरत महसूस ही नहीं हुई थी। इसीलिए, उन्हें सीधे न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।

यह खेल उन्हें जेल आखिरी समय तक जेल में ही बंद रखने का था, इसका बाकायदा तब एलान कर दिया गया, जब 22 अक्टूबर को अदालत ने, स्वास्थ्य संबंधी कारणों से अंतरिम जमानत दिए जाने की याचिका को, एनआइए की इस दलील के बाद ठुकरा दिया कि उनकी गिरफ्तारी यूएपीए के अंतर्गत होने के चलते, उन्हें अस्थायी जमानत दी ही नहीं जा सकती थी। उल्टे एनआइए ने उन पर ही ‘महामारी का अनुचित फायदा’ उठाने का आरोप लगा दिया और कहा कि अस्वस्थ्यता की उनकी दलील तो ‘महज एक बहाना है’, जिससे अंतरिम राहत पा सकें!

शासन क्रूरता की हद यह थी कि पर्किंसन के चलते सामान्य तरीके से कुछ भी पीने-खाने में असमर्थता के चलते, जब स्टेन स्वामी की ओर से सिपर तथा स्ट्रा मुहैया कराए जाने की प्रार्थना की गयी, एनआइए ने ऐसी कोई चीज जब्त ही नहीं करने के आधार पर ये मामूली चीजें तक मुहैया कराने से इंकार दिया। अदालत ने भी इस मामले पर विचार तीन हफ्ते के लिए टाल दिया। बाद में मीडिया में भारी शोर मचने के बाद ही, जेल प्रशासन द्वारा उन्हें सिपर तथा स्ट्रा मुहैया कराया गया।

जेल में करीब डेढ़ महीना गुजारने के बाद, स्टेन स्वामी ने नवंबर के आखिर में नियमित जमानत की अर्जी दी। इस अर्जी में भी, इसका ध्यान दिलाने के अलावा कि उनके खिलाफ कोई साक्ष्य थे ही नहीं, उनकी वृद्धावस्था तथा अनेक बीमारियों से ग्रसित होने का भी जिक्र किया गया था। लेकिन, मार्च के आखिर में अदालत ने उनकी जमानत की याचिका यह कहते हुए ठुकरा दी कि उन पर आरोप इतने गंभीर थे कि उनकी वृद्धावस्था और उनकी कथित रुग्णता भी उन्हें जमानत नहीं दिला सकती थी।

बाद में जब मुंबई हाई कोर्ट में जमानत की अपील की गयी और एक बार फिर जेल में चिकित्सा सुविधाओं के अभाव, सामाजिक दूरी का पालन न हो पाने के कारण कोविड की जकड़ में आने के खतरे तथा पहले ही अनेक बीमारियों से ग्रसित होने का ध्यान दिलाया गया। पर जेल अधिकारियों की रिपोर्ट में और शासन के वकील द्वारा उनकी स्थिति ठीक-ठाक होने का और उन्हें ज्यादा प्रोटीन वाली खुराक दिए जाने का दावा किया गया। इसके बाद भी, हाई कोर्ट ने शासन द्वारा संचालित जे जे अस्पताल को एक विशेषज्ञ पैनल गठित करने तथा स्टेन स्वामी के स्वास्थ्य की जांच कर रिपोर्ट देने के लिए कह दिया।

इसके दो दिन बाद, 21 मई को वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए, हाई कोर्ट की वेकेशन बैंच के सामने जेल से ही अपनी पेशी में स्टेन स्वामी ने जेल में रहते हुए अपनी हालत के लगातार बद से बदतर होने की ही शिकायत नहीं की, इसकी भी प्रार्थना की कि उन्हें जमानत दी जाए ताकि वापस रांची जा सकें और ‘अपने लोगों के साथ’ रह सकें।

दूसरी ओर, स्वामी ने जे जे अस्पताल भेज दिए जाने के सुझाव को नामंजूर कर दिया। उनका कहना था कि वह उस अस्पताल में नहीं जाना चाहते और उसकी जगह तो ‘तकलीफ ही सहना’ चाहेंगे। तभी उन्होंने अदालत को आगाह भी किया था कि अगर सब ऐसे ही चलता रहा तो, उनकी ‘शायद बहुत जल्दी ही मौत’ ही हो जाएगी। इसके डेढ़ महीने बाद, 5 जुलाई को सचमुच उनकी मृत्यु हो गयी। जाहिर है कि यह मृत्यु के किसी पूर्वाभास का तो नहीं, पर इसके हताश अहसास का मामला जरूर था कि मोदी राज की दुर्भावना ने उन्हें मौत की कगार पहुंचा दिया था, जहां से वह मौत को एकदम सामने खड़ा देख सकते थे।

दूसरी ओर शासन, उन्हें मौत की खाई में धकेलने पर ही तुला हुआ था। 28 मई को जब स्टेन स्वामी के वकील ने हाई कोर्ट को सूचित किया कि वह मुंबई के होली फेमिली अस्पताल में इलाज के लिए जाने के लिए तैयार हैं और इलाज का खर्चा भी वह खुद ही उठाएंगे, तब भी एनआइए ने स्वामी को उपचार के लिए इस निजी अस्पताल में जाने देने का विरोध किया था और इसकी दलील दी थी कि उन्हें सरकारी जे जे अस्पताल ही भेजा जाए। यह तब था जबकि उनकी हालत इतनी बिगड़ चुकी थी कि होली फेमिली अस्पताल में उन्हें पहुंचते ही आइसीयू में पहुंचा दिया गया। हाई कोर्ट ने उन्हें 15 दिन के लिए होली फेमिली अस्पताल ले जाने की इजाजत दी थी। जेल में कोरोना से संक्रमित होने की स्वामी की आशंका सही साबित हुई और 30 मई को ही उनके कोरोना पॉजिटिव होने का पता चल गया। उनकी स्थिति को देखते हुए, उनके वकील ने 10 जून को अदालत से उनके निजी अस्पताल में उपचार कराने की मोहलत बढ़ाने के लिए प्रार्थना की और अदालत ने 18 जून तक अवधि बढ़ा दी।

इस अवधि के पूरी होने के एक दिन पहले, 17 जून को स्वामी के वकील ने हाई कोर्ट को सूचित किया कि उन्हें दोबारा आइसीयू में ले जाना पड़ा है और इसलिए उन्हें अभी होली फेमिली अस्पताल में ही रहने दिया जाए। हाई कोर्ट ने एनआइए से उसकी राय मांगी कि क्या स्वामी के स्वास्थ्य की स्थिति को देखते हुए, सुनवाई को चार हफ्ते टाल दिया जाए। एनआइए ने अस्पताल के रिकार्ड देखकर, दो हफ्ते में जवाब देने की बात कही!

इस आधार पर अदालत ने उपचार के लिए होली फेमिली अस्पताल में स्वामी के रहने की अवधि 3 जुलाई तक बढ़ा दी। 3 जुलाई को एक बार फिर स्वामी के वकील ने अदालत को जानकारी दी कि वह आइसीयू में ही थे और अदालत ने इस अस्पताल में उनके रहने की अवधि 6 जुलाई तक बढ़ा दी, जिस दिन अदालत में उनके मामले की सुनवाई होनी थी। लेकिन, 5 जुलाई को ही अदालत को उनका निधन होने की जानकारी दी गयी और अदालत के पास यह कहने के सिवा कुछ बचा ही नहीं कि, ‘हम स्तब्ध हैं...हमारे पास बोलने के लिए कोई शब्द ही नहीं हैं।’

बेशक, मोदी राज का ऐसा निर्मम और वास्तव में शत्रुतापूर्ण सलूक, फादर स्टेन स्वामी के लिए ही सुरक्षित रहा हो, ऐसा हर्गिज नहीं है।

वास्तव में यह भी मानना सही नहीं होगा कि इस तरह का बर्ताव, सिर्फ यलगार परिषद केस के नाम पर, अलग-अलग चरणों में यूएपीए जैसे अति-दमनकारी कानूनों के तहत जेल में बंद किए गए, डेढ़ दर्जन से अधिक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों आदि तक ही सीमित रहा है। हां! इस सरकार की नीतियों का वंचितों के पक्ष से विरोध करने वाली सभी आवाजों को, माओवादी या शहरी नक्सल या सिर्फ वामपंथी करार देकर, शासन के दमनचक्र का निशाना बनाने की इस सरकार की जो सोची-समझी कार्यनीति रही है, यह केस एक मॉडल की तरह इस कार्यनीति पर अमल में विशेष महत्व रखता है। वर्ना इस खेल की शुरूआत तो मोदी के सत्ता में आते ही, वामपंथी तथा अंबेडकरवादी छात्र व शिक्षक कार्यकर्ताओं और जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों पर हमले से ही हो गयी थी।

निर्वाचित छात्र नेताओं तक को जिस तरह के दमनकारी कदमों का निशाना बनाया गया था और जिस तरह से उनके खिलाफ सेडीशन समेत ऐसे झूठे मामले थोपे गए थे, जिनमें उन्हें बिना कोई आरोप साबित हुए लंबे अर्से तक जेल में डाले रहा जा सकता था, उसी से मोदी निजाम के नीतिगत तथा खासतौर पर जनपक्षीय विरोधियों के खिलाफ, इन हथियारों के इस्तेमाल की राह खुल गयी थी। चूंकि इस सरकारी दमनचक्र के पूरक के तौर पर, संघी दुष्प्रचार हमले के जरिए इस दमन को औचित्य भी प्रदान किया जा रहा था, हर प्रकार के जनपक्षीय कार्यकर्ताओं को और खासतौर जनप्रतिरोध को आवाज देने वाले कार्यकर्ताओं को, माओवादी या शहरी नक्सल या सिर्फ वामपंथी प्रचारित कर, विशेष रूप से मध्यवर्गीय धारणानिर्माताओं के बीच, उनकी साख और संभव प्रभाव को कमजोर करना जरूरी था।

अचरज नहीं कि सीएए-विरोधी आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ताओं के खिलाफ इससे कहीं बड़े पैमाने पर इन्हीं हथियारों को आजमाया गया और फिर कश्मीर में तो इसका अपार विस्तार कर, मौजूदा निजाम के सारे राजनीतिक विरोधियों को ही इसके दायरे में खींच लिया गया।

फिर भी, यलगार परिषद केस का अपना खास महत्व है क्योंकि यह केस इसका भी उदाहरण कि किस तरह मोदी-शाह का राज वंचित पीडि़तों को ही दोषी और उनके उत्पीडक़ों को ही ‘विक्टिम’ बनाने से भी, पीछे नहीं हटेगा। जो भीमा-कोरेगांव की घटना, दलितों की एक समारोही गोलबंदी पर, प्रभुत्वशाली तबकों के संघ समर्थित हमले की घटना थी और जिसके सिलसिले में शुरूआत में खुद भाजपा तक की सरकार, दलितों पर हमले का मामला दर्ज करने के लिए ही नहीं, बल्कि मिलिंद एकबोटे तथा शंभाजी भिड़े जैसे हिंदुत्ववादी नेताओं के खिलाफ तफ्तीश शुरू करने तक के लिए मजबूर हुई थी, उसे बाद में यलगार परिषद केस में रूपांतरित कर, पूरी तरह से सिर के बल ही खड़ा कर दिया गया।

अब दलितों व वंचितों के जाने-माने हिमायतियों को, जिनमें से कई तो यलगार परिषद की सभा में शामिल भी नहीं हुए थे, न सिर्फ हिंसा आदि का आरोपी बना दिया गया बल्कि इसमें मोदी सरकार को उलटने के षड़यंत्र की कहानी भी जोडक़र, यूएपीए के तहत डेढ़ दर्जन से ज्यादा जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस तरह जेल में ठूंस दिया गया कि बिना किसी सुनवाई के ही, जमानत के बिना वे वर्षों से जेलों में ही बंद हैं।

इसके पूर्व-नियोजित हत्या होने में अगर किसी को अब भी संदेह हो तो वाशिंगटन पोस्ट की ताजातरीन रिपोर्ट से दूर हो जाना चाहिए, जो बताती है कि मैसुचेट्स आधारित, डिजिटल फोरेंसिंक फर्म, आर्सेनल कंसल्टेंसी के विश्लेषण में सामने आया है कि यलगार परिषद मामले के आरोपियों में से कम से कम दो के कंप्यूटर, मॉलवेयर के जरिए हैक कर, उनमें गोपनीय फोल्डरों में माओवादियों के फाइनेंस से संबंधित दस्तावेज रोपे गए थे, जिन्हें अब जेल में बंद इन सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ साक्ष्यों के तौर पर पेश किया जा रहा है।

आर्सेनल कंसल्टेंसी की ताजा रिपोर्ट में दलित वकील, सुरेंद्र गाडलिंग के कंप्यूटर के विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकाला गया है, जबकि इसी प्रकरण के एक अन्य आरोपी, रोना विल्सन के कंप्यूटर के विश्लेषण से, उसने पहले ही इस षड़यंत्र को बेपर्दा कर दिया था। आर्सेनल की ताजा रिपोर्ट इस षड़यंत्र के पीछे लंबी तैयारी तथा इसके दायरे की व्यापकता, दोनों को भी सामने लाती है। फर्जी साक्ष्य रोपने के लिए कंप्यूटरों की हैकिंग का यह षड़यंत्र, 2016 की फरवरी में शुरू हुआ था, जब विल्सन तथा गाडलिंग के अलावा 14 अन्य लोगों को भी ई-मेल के जरिए उक्त हैकिंग मालवेयर भेजा गया था। इनमें स्टेन स्वामी का नाम भी शामिल था। 2017 की जुलाई में बीस मिनट के अंतर से, विल्सन तथा गाडलिंग के कंप्यूटरों में उक्त दस्तावेज रोपे गए थे। यह किस का षड़यंत्र हो सकता है, इसका आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए, स्टेन स्वामी की जान कोरोना की जटिलताओं ने नहीं ली है बल्कि शासन ने षड़यंत्रपूर्वक झूठे मामले में फंसाने के जरिए उनकी हत्या की है।

0 राजेंद्र शर्मा

लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लोकलहर के संपादक व हस्तक्षेप के सम्मानित संतंभकार हैं।