एक ऐसी दुनिया में जहां सरकारी स्तर पर भी फेकन्यूज़ फैलाया जाता हो, उसी दुनिया में फ़िनलैंड जैसा देश भी है जहां फेक न्यूज़ की पहचान करना (Identifying fake news) और उसके दुष्प्रभाव का पाठ प्राइमरी स्कूल से बच्चों को पढ़ाया जाने लगता है. छोटे बच्चे इसे झूठी खबर, गलतियां जो जानबूझ कर की गयीं हों, झूठ, अफवाह इत्यादि के तौर पर खेल-खेल में पढ़ते हैं. माध्यमिक शिक्षा में इसे विस्तार से और हरेक विषय के अभिन्न अंग के तौर पर पढ़ाया जाता है. गणित में छात्रों को आंकड़ों की संभावित बाजीगरी से अवगत कराया जाता है, आर्ट विषय में चित्रों को किस तरह से हलके परिवर्तन से इनके प्रसंग को बदला जा सकता है यह बताया जाता है. इतिहास के छात्र बीते समय के दौर में भ्रामक खबरों और अफवाहों से उपजी परिस्थितियों के बारे में पढ़ते हैं तो भाषा में छात्रों को बताया जाता है की किस तरह से शब्दों के चयन से भ्रम पैदा किया जा सकता है या फिर लोगों को गुमराह किया जा सकता है.
फ़िनलैंड में केवल छात्रों को ही नहीं बल्कि समाज के हरेक वर्ग को फेक न्यूज़ से बचने और इसके प्रभावों के बारे में बताया जाता है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि पूरे यूरोप के 35 देशों में फेकन्यूज़ की सबसे प्रतिरोधी आबादी फ़िनलैंड की ही है और इससे सम्बंधित इंडेक्स में यह प्रथम स्थान पर है. इस देश के लोग मेनस्ट्रीम मीडिया की खबरों (Mainstream media news) पर भरोसा करते हैं और केवल 6 प्रतिशत आबादी मानती है कि सोशल मीडिया पर भी विश्वसनीय खबरें आ सकतीं हैं.
फ़िनलैंड दुनिया के उन बहुत कम देशों में है जहां अभी तक लोकतंत्र जीवित है. यहाँ के लोग सरकार पर भरोसा करते हैं, संवैधानिक संस्थाओं पर भरोसा करते हैं, न्याय व्यवस्था पर भरोसा करते
सामाजिक व्यवस्था से सम्बंधित दुनिया में जितने भी इंडेक्स बनाए जाते हैं, सबमें फ़िनलैंड शुरू के दस देशों में शामिल रहता है. संयुक्त राष्ट्र के ग्लोबल हैप्पीनेस इंडेक्स में पिछले तीन वर्षों से लगातार फ़िनलैंड पहले स्थान पर है और इस वर्ष जब देशों के साथ ही शहरों के लिए भी यह इंडेक्स तैयार किया गया तो राजधानी हेलसिंकी प्रथम स्थान पर है. रिपोर्ट में इसका कारण उत्कृष्ट सामाजिक सहयोग व्यवस्था, समाज में भरोसा, इमानदार सरकार, सुरक्षित वातावरण और स्वास्थ्य जिन्दगी को बताया गया है.
वर्ल्ड इकनोमिक फोरम के जेंडर गैप इंडेक्स 2019 में फ़िनलैंड तीसरे स्थान पर है, इससे ऊपर केवल आइसलैंड और नोर्वे हैं. येल यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित एनवायर्नमेंटल परफॉरमेंस इंडेक्स के अनुसार यह देश दसवें स्थान पर है, पर पर्यावरणीय स्वास्थ्य, पानी और स्वच्छता, वायु प्रदूषण में पीएम2.5 की सांद्रता और समुद्री जीवों के संरक्षित क्षेत्र के सन्दर्भ में पहले स्थान पर है.
अमेरिका की संस्था, सोशल प्रोग्रेस एम्परेटीव द्वारा प्रकाशित सोशल प्रोग्रेस इंडेक्स 2019 के अनुसार फ़िनलैंड पांचवें स्थान पर है. रिपोर्ट के अनुसार फ़िनलैंड में सरकारों द्वारा सामाजिक विकास के कार्यक्रमों में समाज के हर तबके का ध्यान रखा जाता है, पोषण, स्वास्थ्य सेवायें और शिक्षा पर सबका सामान अधिकार है और सबकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ख्याल रखा जाता है.
द इकोनॉमिस्ट के इकनोमिक इंटेलिजेंस यूनिट द्वारा प्रकाशित डेमोक्रेसी इंडेक्स 2019 (Democracy Index 2019 published by The Economist's Economic Intelligence Unit) में फ़िनलैंड पांचवें स्थान पर है.
यह इंडेक्स नागरिक स्वतंत्रता, चुनावी प्रक्रिया, सरकारी कामकाज में पारदर्शिता, राजनैतिक भागीदारी और राजनैतिक व्यवस्था के आधार पर तैयार किया जाता है. प्रेस की आजादी, पारदर्शिता, शिक्षा और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दे पर जितने भी इंडेक्स बनाए जाते हैं, सबमें फ़िनलैंड शुरू के पांच देशों में शामिल रहता है.
फ़िनलैंड में कोरोना के 6776 मामले दर्ज किये गए और इसके संक्रमण से 314 व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी, यह संख्या प्रति दस लाख आबादी के सन्दर्भ में पड़ोसी देश स्वीडन की तुलना में 10 प्रतिशत भी नहीं हैं. दुनिया के किसी भी देश के सन्दर्भ में सबसे कम उम्र की, 34 वर्षीय प्रधानमंत्री सेन्ना मरीन ने लोगों से सख्त लॉकडाउन का पालन करवाया, और कम संख्या उसी का नतीजा है.
लॉकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री सोशल मीडिया के माध्यम से लगातार जनता के बीच रहीं और केवल बच्चों के लिए दो प्रेस कांफ्रेंस भी की. अब वहां विद्यालय और बाजार खुल रहे हैं और नए मामले आने बंद हो चुके हैं.
फ़िनलैंड यूरोप का पहला देश है जिसने वर्ष 1906 में ही महिलाओं को मताधिकार के योग्य समझा. इसके कुछ वर्षों बाद ही राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने लगी.
सेन्ना मरीन फ़िनलैंड की तीसरी महिला प्रधानमंत्री हैं. यहाँ पर अप्रैल 2019 तक सेंटर-राईट विचारधारा वाली सरकार थी.
पिछले वर्ष के चुनाव के बाद वामपंथी विचारधारा वाले दलों ने मिलजुलकर सरकार का गठन किया. जून 2019 में सोशल डेमोक्रेट अन्ति रिन्ने को प्रधानमंत्री बनाया गया, जो पहले ट्रेड यूनियन नेता थे. वे लगभग 20 वर्ष बाद वामपंथी विचारधारा की सरकार फ़िनलैंड में बना पाए थे. पर, इसी बीच फ़िनलैंड के डाक विभाग में हड़ताल हो गयी. इसका कोई हल नहीं निकाल पाने के कारण सहयोगी सेंटर पार्टी ने समर्थन देना बंद कर दिया, जिससे अन्ति रिन्ने को पद से हटना पड़ा. इसके बाद सहयोगी दलों में प्रधानमंत्री पद के लिए सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की सांसद और अन्ति रिन्ने के मंत्रिमंडल में परिवहन मंत्री सेन्ना मरीन के नाम पर सहमती बनी और दिसम्बर 2019 से वे प्रधानमंत्री हैं.
इस समय सरकार पांच पार्टियों का गठबंधन है, और इन सभी पार्टियों की प्रमुख महिलायें हैं. प्रधानमंत्री 34 वर्षीय सेन्ना मरीन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता हैं, 32 वर्षीय ली एंडरसन लेफ्ट अलायन्स की प्रमुख हैं, 32 वर्षीय कात्री कुह्नुनी सेंटर पार्टी की प्रमुख, 34 वर्षीय मारिया ओहिसलो ग्रीन लीग की प्रमुख और 55 वर्षीय एना माजा पीपल्स पार्टी की प्रमुख हैं.
जाहिर है, इन युवा नेताओं ने फ़िनलैंड की राजनीति (Finland politics) और सामाजिक विकास में नई ऊर्जा डाल दी है. इन पाँचों दलों को पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास जोड़ता है. सामाजिक विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में निवेश बढ़ गया है और तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए फ़िनलैंड ने वर्ष 2035 तक देश को कार्बन-न्यूट्रल बनाने का संकल्प लिया है. किसी भी देश को कार्बन-न्यूट्रल बनाने के सन्दर्भ में यह सबसे महत्वाकांक्षी समय-सीमा है, अधिकतर देश इसे वर्ष 2040 तक पूरा करने की योजना बना रहे हैं.
फ़िनलैंड का यूनिवर्सल एजुकेशन सिस्टम और यूनिवर्सल हेल्थ केयर सिस्टम को दुनिया के सभी देशों की तुलना में बेहतर समझा जाता है.
प्रधानमंत्री सेन्ना मरीन सप्ताह में चार कार्य दिवस या फिर 6 घंटे के कार्य दिवस की भी हिमायती हैं, हालांकि सरकार ने इसे अभी लागू नहीं किया है. दुनियाभर में बहुत सारे प्रयोग किये गए हैं जिसमें चार कार्य दिवस का सप्ताह करने पर उत्पादकता बढ़ने के संकेत मिले हैं. जापान के माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस में भी इसे आजमाया गया था, तब उत्पादकता 40 प्रतिशत तक बढ़ गयी थी.
दुनिया भर में यूनिवर्सल बेसिक इनकम की खूब चर्चा की जा रही है, पर इससे सम्बंधित सबसे बड़ा अध्ययन भी फ़िनलैंड में ही किया गया था. यूनिवर्सल बेसिक इनकम का विरोध करने वाले अधिक हैं. विरोध करने वालों का प्रमुख तर्क होता है कि यदि आप बेरोजगारों को या फिर बहुत गरीबों को बिना किसी शर्त या काम के ही पैसे देंगे तो वे इसे व्यर्थ करेंगें और फिर कभी काम नहीं करेंगे. अनेक देशों में इसपर छोटे स्तर पर परीक्षण भी किया गया पर उन्हें अध्ययन का रूप नहीं दिया गया और इसका प्रभाव भी कभी स्पष्ट नहीं हुआ. दो वर्ष पहले दुनिया के सबसे खुशहाल देश फिनलैंड में यूनिवर्सल बेसिक इनकम से सम्बंधित अब तक का सबसे विस्तृत अध्ययन किया गया है. इसके नतीजे कुछ सप्ताह पहले ही प्रकाशित किये गए हैं. इसके अनुसार बेसिक इनकम प्राप्त आबादी अपेक्षाकृत अधिक खुशहाल और संतुष्ट रहती है, मानसिक और शारीरिक तौर पर स्वस्थ्य रहती है और अधिक श्रम भी करती है.
सोशल इंश्योरेंस इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़िनलैंड द्वारा किये गए इस अध्ययन में 2000 बेरोजगारों का चयन कर उन्हें यूनिवर्सल बेसिक इनकम के तहत प्रति माह 560 यूरो दिए गए, इसमें कोई शर्त नहीं थी, और नौकरी मिलने पर भी यह रकम मिलनी थी. इनकी तुलना में 173000 अन्य बेरोजगार थे जिन्हें बेरोजगारी भत्ता मिलता था और रोजगार मिलने के बाद यह भत्ता बंद कर दिया जाता है. अनुमान था कि बेसिक इनकम वाले लोग या तो रोजगार खोजेंगे ही नहीं या फिर कम दिन काम करेंगे. परिणाम के अनुसार बेसिक इनकम वालों ने साल में औसतन 78 दिनों तक रोजगार किया जबकि बेरोजगारी भत्ता वालों ने औसतन 72 दिनों तक ही काम किया.
फ़िनलैंड जीवंत लोकतंत्र का एक बड़ा उदाहरण है, पर क्या लोकतंत्र का हंगामा मचाकर जनता को लूटने वाले देश कभी इससे सबक लेंगे?
महेंद्र पाण्डेय