21 मई 2012 को हरियाणा के हिसार जिले के भगाना गाँव के लगभग 150 दलित परिवार ताकतवर जाटों की दबंगई और आर्थिक सामाजिक बहिष्कार के चलते गाँव छोड़ने को मजबूर होना पड़ा था। गाँव के बच्चे, बूढ़े, युवा जिसमें महिलाए भी शामिल थीं, सभी तपती धूप में एक अनिश्चय की नयी जिंदगी की और पलायन कर रहे थे। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनकी सरकार उन्हें न्याय नहीं दे पाएगी और वो पांच साल तक खुले आसमान के नीचे हिसार के मिनी सेक्रेटेरिएट में या दिल्ली के जंतर मंतर पर अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर रहेंगे। किसी भी व्यक्ति के जिंदगी में पांच वर्ष कम नहीं होते। छोटे बच्चे या युवाओं के लिए जब एक एक पल जीवन का महत्वपूर्ण होता है ये बच्चे दिल्ली के जंतर मंतर या हिसार के मिनी सेक्रेटेरिएट में अपने माँ बाप के साथ संघर्ष में उतरे।
वो जानते हैं कि कैसे गाँव पंचायत ने दलितों से पैसा लेकर उनको घरि के लिए प्लाट देने का वादा किया और फिर उससे मुकर गए। हालाँकि भगाना के अधिकांश दलित भूमिहीन हैं और उन्हें रोज-रोज के कामों के लिए बड़े किसानों के खेतों पर काम करना पड़ता है, लेकिन जब भी उन्होंने अपने मान सम्मान के लिए आवाज उठाई उन्हें सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार झेलना पड़ा है। उनकी महिलाओं को घर से बाहर निकलना भी मुश्किल होता है और गाँव के चमार चौक को, जिसे सभी दलितों ने मिलकर आंबेडकर चौक का नाम दिया था और जो मुख्यतः दलित बस्ती के बाहर गाँव समाज की खली जमीन थी, उसको चारों और से ईंट की दीवार बनाकर,
गाँव से बाहर आने के बाद भी हिंसा जारी रही और 23 मार्च 2014 को जब देश शहीद भगत सिंह की शहादत को सलाम कर रहा था और भगाना के साथी मिनी सेक्रेटेरिएट हिसार और जंतर मंतर दिल्ली पर अपने अधिकारों और न्याय के लिए सड़क पर संघर्ष कर रहे थे तो बाल्मीकि समाज की 4 लड़कियों का गाँव के दबंग जाट युवकों ने अपहरण कर लिया और फिर सामूहिक यौनाचार के बाद धमकी देकर पंजाब के भटिंडा रेलवे स्टेशन पर बदहवास छोड़ दिया। उनके परिवारों को धमकी दी गयी कि पुलिस को किसी प्रकार की जानकारी न दें क्योंकि भगाना कांड संघर्ष समिति जंतर मंतर पर धरने पे बैठी थी इसलिए इस घटना के विरोध में दिल्ली में भारी प्रदर्शन भी हुए और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने संज्ञान लेकर कार्यवाही करने का प्रयास किया लेकिन बहुत कुछ न्याय मिलता नहीं दिखाई दिया।
ये दिखाता है कि भारत में लोकतंत्र केवल दबंगई का है और इस वक्त लम्पट उसका ज्यादा लाभ उठा रहे हैं। वैसे लोकतंत्र की सबसे बेहतरीन परिभाषा अंतराष्ट्रीय मापदंडों के हिसाब से वह प्रशासनिक व्यवस्था है जिसमें रहने वाला कमजोर से कमजोर शख्स भी कानून के द्वारा संरक्षित हो और अपने को सुरक्षित समझता हो, लेकिन पिछले पांच साल में भगाना के संघर्ष को मैंने बहुत नजदीकी से देखा है।
गाँव में लोगों के घर पर ताले लगे हैं और जो दो चार लोग हैं भी वो भय और बायकाट की जिंदगी जीते हैं। गाँव में अब दलितों को खेती पर काम नहीं मिलता और गाँव के ऑटो वाले भी दलितों को वहां से हिसार जाने के लिए नहीं बैठाते।
भगाना की 250 एकड़ जमीन की प्लाटिंग होकर दलितों में बांटी जानी चाहिए थी, लेकिन आज के दौर में आसमान छूती जमीन की कीमतों के कारण सामंतो के नज़र उस पर थी और उसके लिए जरूरी था कि दलितों को गाँव से बाहर कर दिया जाए, इसलिए इतनी तिकड़में चली जा रही थीं।
हरियाणा की हुडा सरकार ने इसके लिए कुछ नहीं किया अपितु बिरदरीबाद को ही मज़बूत किया।
भगाना के दलितों ने सभी नेताओं के चक्कर लगाये जिसमें सत्तारूढ़ दलों के दलित सांसद भी थे, लेकिन उनको कोई मदद नहीं मिली। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोगों में कई चक्कर लगे लेकिन न्याय नहीं मिला।
मुझे याद है के भगाना गाँव से लगभग 60 लोग पिछले वर्ष आये आयोग के दफ्तर में। मुझे आयोग के अन्दर जाने के लिए रिसेप्शन पर खूब पापड़ बेलने पड़े और शर्म आती है इन सरकारी कर्मचारियों पर, जो लोगों की मज़बूरी का फायदा उठाते हैं। ऊपर जाकर देखा तो बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, युवा सभी माननीय सदस्य का इंतज़ार कर रहे थे। सुबह 10 बजे से ही लोग पहुँच गए थे हिसार से चलकर। सुना कि डीजीपी पुलिस और एक अन्य अधिकारी को आना था, उनको समन जारी हुए थे। 4 बजे तक लोग भूखे प्यासे इंतज़ार करते रहे लेकिन अधिकारी नहीं आये।
आज भी मुझे याद है जब बलात्कार की शिकार चार लडकियां और गाँव की महिलाओं और बच्चों के साथ हम आयोग के दफ्तर में गए थे, तो माननीय सदस्य महोदय ने पहले से ही एक लोकल चैनल वाले को खबर की थी और उन बच्चियों के सामने उन्होंने लम्बा चौड़ा भाषण दिया था, लेकिन उसके बाद क्या हुआ कोई ढंग से नहीं जानता।
भगाना के साथियों को तो अपने संघर्ष के लिए ही अनेक आरोप झेलने पड़े।
आज से पांच साल पहले दिल्ली में सॉलिडेरिटी समिति बनी थी और जब जब भगाना का मसला गूँजा सभी लोग आये। बड़ी संस्थाएं, संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता और बहुत सारे लोग, लेकिन क्या कारण है कि बहुत से चेहरे जो उस वक़्त थे वो अब नहीं हैं ?
समिति के एक प्रमुख सदस्य जगदीश काजला बताते हैं कि हमारे पास लोग अभी भी आते हैं, लेकिन जो लोग इस आन्दोलन को संस्थाओं का प्रोजेक्ट समझ रहे थे वो यहाँ आ भी नहीं सकते थे, क्योंकि वो चाहते थे कि आन्दोलन का नेतृत्व उनके हाथ में हो।
ये एक त्रासदी है कि जब कोई घटना घटती है तो हम सभी वहां जाते हैं और अपनी संवदेना, और एकजुटता भी दिखाते हैं लेकिन लम्बे समय तक हम साथ देने को तैयार नहीं है, यदि लोग हमारे इशारो पर ना चलें।
भगाना आन्दोलन एक उदहारण है कि जब हम राजनीति में नारा देते हैं कि जिसका मुद्दा उसकी लड़ाई और जिसकी लड़ाई उसकी अगुआई तो आखिर भगाना के साथियों को उनके नेतृत्व में समर्थन देने में हमें क्या हर्ज़ ?
कई लोग ये मानते हैं कि आन्दोलन अपनी दिशा से भटक गया। बहुत ये सोचते हैं कि आखिर ये लोग चाहते क्या हैं ? लेकिन ये भी हकीकत है भगाना गाँव के अन्दर आज भी दलित आसानी से नहीं जा सकते हैं। हरियाणा सरकार ने जो वादा किया उस पर अमल नहीं हुआ। गाँव में दलितों को जमीन के पट्टों का वितरण होना था लेकिन नहीं हुआ। उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।
आये दिन दलितों पर हमले (Attacks on dalits) होते हैं और उनकी महिलाओं की कोई सुरक्षा नहीं है। गाँव चले भी गए तो सामाजिक आर्थिक बहिष्कार जारी है तो काम कहाँ मिलेगा।
ये बात जरुर है कि लम्बी लड़ाई में लोगो में मतभेद हो जाते हैं क्योंकि हर एक उसके हिसाब से साथ नहीं आता। जैसे जगदीश काजला बताते हैं कि गाँव के बहुत से लोग कई बार आरोप लगा देते हैं अब बात यह के सभी इतना आसान होता तो कोई भी अपनी पढाई और नौकरी छोड़ कर जंतर मंतर पर क्यों बैठता। किसी भी युवा के जीवन के पांच साल बहुत होते हैं और वो तब और मुश्किल होता है जब ऐसी लड़ाई में लोग साथ छोड़ते हैं और मनगढ़ंत आरोप लगा देते हैं।
दरअसल लम्बी लड़ाई में लोग साथ नहीं देते और आजकल फास्टफूड मूवमेंट होने लगे हैं जो मूवमेंट कम और इवेंट मैनेजमेंट ज्यादा होते हैं।
सोशल मीडिया के शोर में हर एक को विजिबिलिटी की बीमारी हो चुकी है, इसलिए मुद्दों के लिए लम्बे समय तक और बिना पब्लिसिटी के भी मात्र सहयोगी की भूमिका में बैठना किसी को गवारा नहीं है।
आज ज्यादातर आन्दोलन लम्बे समय तक न चलने के पीछे का कारण लोगों की आपसी ईगो हो गयी है और हर कार्य को उसके अंतिम परिणाम से जोड़कर देख लिया जा रहा है।
भगाना ने दिखाया कि राजनीतिक नेताओं ने एक सीमा के बाहर मुद्दे को छोड़ दिया। क्या कारण है कि हरियाणा की विधान सभा या देश के संसद हरियाणा के इस गाँव की त्रासदी पर चर्चा नहीं कर सकती। जब विस्थापन की बात आती है तो कश्मीरी पंडितों का उदहारण दे देकर हमें बताया जाता है और सरकार भी उनकी चिंता करती है और विपक्ष भी, कोई भी ऐसे नहीं दिखना चाहता है के उनको पंडित विरोधी घोषित कर दिया जाए, लेकिन भगाना के विस्थापित दलितों के लिए कोई आंसू नहीं निकलते हमारे नेताओं के पास।
अगर सवर्ण प्रभुत्वाद के चलते लोग गाँव छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं तो क्या सरकार का ये कर्तव्य नहीं है कि वे इन दलितों को नए स्थान पर बसाए और उनके रोजगार का इन्तजाम करे।
दो वर्ष पूर्व जंतर मंतर पर धरने के दौरान ही भगाना के लोगों ने सामूहिक रूप से धर्मपरिवर्तन कर इस्लाम ग्रहण कर लिया। कई लोग इसे निराशावादी कदम मानते हैं और कई का मानना था कि बाबा साहेब आंबेडकर ने तो ऐसा नहीं किया, लेकिन भगाना के लोगों ने अपनी समझ के चलते ये किया। उनके कई अनुभव थे जिसने उनको मजबूर किया, लेकिन वह संघर्ष के लिए तैयार बैठे हैं।
सतीश काजल और जगदीश काजल भगाना की लड़ाई को हरयाणा के दलितों की अस्मिता का संघर्ष कहते हैं और उसके लिए अब नए सिरे से आन्दोलन को गाँव-गाँव ले जाने की जरुरत महसूस करते हैं।
अभी कुछ दिनों पूर्व भागना कांड के पांच वर्ष के अवसर पर जंतर मंतर में एक सभा की गयी थी। दुखद बात ये थी कि लोगो की उपस्थति आशानुरूप नहीं थी, लेकिन फिर भी बहुत लोग आये। जब मुद्दों पर लड़ने की बात आयी तो अधिकांश लोग उन्हीं बातों को बोल गए जो वो बोलने के आदि हैं और जो प्रश्न हमारे सामने खड़े हैं उन पर अधिकांश चुप रहे।
अक्सर ये बात दिखाई देती है कि जहां लोगों को सहानुभूति और सहयोग की आवश्यकता होती हैं वहां बहुत से लोग अपना ज्ञान बघारते हैं और बहुत से अपनी पूरी क्रांति वही पर कर देते हैं, फलतः सड़क पर उतारकर या समुदायों के साथ जाकर बैठकर, उनकी समस्याओ से रूबरू होकर संघर्ष का तो प्रश्न ही नहीं है।
भगाना आत्याचार के पांच साल पर एक बात तो साफ़ है कि भारत में लोकतंत्र तब तक केवल संसद, विधानसभाओं, जंतर मंतर या अखबारों और टीवी के स्टूडियोजतक ही सीमित रहेगा जब तक भारत के गाँव में मनुस्मृति का राज है और जातियों की खापो की दबंगई चलती रहेगी।
गाँव के जातीय और पॉवर रिलेशन बदले बगैर हम स्वस्थ लोकतंत्र की परिकल्पना नहीं कर सकते। दुर्भाग्य यह है कि गाँव में लोकतान्त्रिक व्यस्था लाने का एक मात्र तरीका था रेडिकल भूमि सुधार, लेकिन भारत के अन्दर ईमानदारी से वो कभी लागू नहीं किये गए। यदि गाँव में दलित और भूमिहीनों के पास जमीन होती तो उनको न तो किसी की बन्धुवागिरी करनी पड़ती और न ही उन पर अत्याचार होते।
एक हकीकत यह भी है कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार बिलकुल भी नहीं लागू हुए। मनुवादी व्यस्था में तो काम का दाम नहीं मिलता था और दलितों और अन्य तबकों को अपने अधिकारों के लिए बोलने की भी मनाही थी क्योंकि भाग्य और किस्मत का खेल बनाकर उनकी चेतना को पूर्णतः अवरुद्ध करने के प्रयास किये गए। क्रांति को धार्मिक भ्रान्ति के जरिए रोक दिया गया और लोगों को अन्याय के खिलाफ बोलने के बजाय अपनी किस्मत को ही दोष देने की शातिरता इस व्यवस्था का हिस्सा था ताकि लोग सवाल नहीं करें और उसके समाधान के लिए पुरोहितो की शरण में जाए। यानि अपनी बीमारी का इलाज़ भी उन लोगों से करवायें जो उसका कारण हैं।
आज जरूरत है कारणों को न केवल समझने की बल्कि उसके समाधान की भी।
भगाना के इस लम्बे संघर्ष से एक विशेष सबक तो ये सीखा जाए कि भूमि सुधार दलों के एजेंडा में आये और अनुसूचित जाति आयोग या मानवाधिकार आयोग को मजबूती प्रदान की जाए, अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम कानून व्यक्तिगत मामलो में तो थोडा बहुत लग भी जाता है लेकिन सामूहिक जातीय हिंसा के प्रश्नों पर नदारद है। आज तक दलित पर हिंसा के सामूहिक मामलो में हमें तो कोई फैसला नज़र नहीं आया है। संसद और विधान सभा में ये प्रश्न उठाना चाहिए और सरकार से जवाबदेही चाहिए मात्र एक दूसरे को दोषारोपण करके पार्टियां अपनी जिम्मेवारियों से नहीं बच सकती हैं। दलितों आदिवासियों और अति पिछड़ी जातियों को राशन कार्ड, पेंशन, नरेगा और अन्य कल्याणकारी योजनाओं की लोलीपॉप देकर आप उनके सम्मानपूर्वक जिन्दगी जीने के अधिकारों के प्रश्नों को गायब नहीं कर सकते। क्या हमारी राजनितीक पार्टियां या उनके समर्थक इन प्रश्नों पर अपना मुंह खोलेंगे और अपनी पार्टियों के राजनैतिक कार्यक्रम के बारे में बताएँगे, क्या वे इस प्रश्न पर अपनी विधानसभाओं और संसद में सवाल उठा सकते हैं ? कश्मीरी पंडितों की चिंता करने वाली पार्टियाँ दलित आदिवासियों के विस्थापन और दमन पर चुप क्यों रहती हैं ?
उम्मीद है भगाना के विस्थापित दलित पिछड़ों का संघर्ष हमारे राजनैतिक विमर्श का हिस्सा बनेगा। भगाना के संघर्षरत लोगों को हमारा सलाम।
विद्या भूषण रावत
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