फ्रांस में एक अध्यापक की बर्बर और गला रेत कर की गयी हत्या (A teacher was brutally murdered and strangled in France) के कारण दुनिया भर में धर्मांधता, ईशनिंदा और ईशनिंदा पर हत्या तक कर देने की प्रवृत्ति पर फिर एक बार बहस छिड़ गयी है। हालांकि यह बहस धर्मों के प्रारंभ से लेकर अब तक चलती रही है। धर्मों में आपसी धर्मों में आपसी प्रतिद्वन्द्विता (Mutual rivalry between religions) और मेरी कमीज तुम्हारी कमीज से अधिक धवल है की लाइन पर अक्सर बहस होती रहती है। धार्मिक और आध्यात्मिक मुद्दों पर विचार विमर्श और शास्त्रार्थ की परंपरा (Tradition of discussion and debate on religious and spiritual issues) का स्वागत किया जाना चाहिये, पर जब धर्म, राज्य के विस्तार मोह की तरह खुद के विस्तार की महत्वाकांक्षा से ग्रस्त हो जाता है तो वह राजनीति के उन्हीं विषाणुओं से संक्रमित हो जाता है जो राज्य विस्तार के अभिन्न माध्यम होते हैं, यानी, छल, प्रपंच, षडयंत्र, हिंसा, पाखंड आदि-आदि। तब धर्म अपने उद्देश्य, मनुष्य में नैतिक मूल्यों की स्थापना और व्यक्ति को नैतिक और मानवीय मूल्यों से स्खलित न होने देने से ही भटक जाता है। फिर धर्म, राज्य सत्ता के एक नए कलेवर में अवतरित हो जाता है, जो कभी-कभी इतना महत्वपूर्ण और असरदार हो जाता है कि वह राज्य को ही नियंत्रित करने लगता है। इससे राज्यसत्ता को धर्मभीरू जनता का स्वाभाविक साथ भी मिल जाता है।
फ्रांस में एक स्कूल के अध्यापक ने वहां की एक
इस्लाम की मान्यता के अनुसार, पैगम्बर के चित्र बनाना वर्जित है। इस हत्या के बाद फ्रांस के धर्मनिरपेक्ष समाज मे आक्रोश फैल गया औऱ उस पर राष्ट्रपति मैक्रां ने जो बात कही, उसकी व्यापक प्रतिक्रिया मुस्लिम देशों में हुई।
फ्रांस में स्थिति यहीं नहीं थमी बल्कि, उक्त अध्यापक पेटी की हत्या के बाद फ्रांस के एक चर्च में कुछ हमलावरों ने, एक महिला का गला काट दिया और दो अन्य लोगों की भी चाकू मारकर हत्या कर दी।
फ्रेंच राष्ट्रपति के बयान के बाद तुर्की की प्रतिक्रिया सामने आयी और फिर, फ्रांस और मुस्लिम देशों के आपसी संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं।
फ्रांस में हुई इन घटनाओं पर, राष्ट्रपति मैक्रों ने बीबीसी से एक साक्षात्कार में कहा है कि,
''मैं मुसलमानों की भावनाओं को समझता हूं जिन्हें पैगंबर मोहम्मद के कार्टून दिखाए जाने से झटका लगा है। लेकिन, जिस 'कट्टर इस्लाम' से वो लड़ने की कोशिश कर रहे हैं वह सभी लोगों, खासतौर पर मुसलमानों के लिए ख़तरा है। मैं इन भावनाओं को समझता हूं और उनका सम्मान करता हूं। पर आपको अभी मेरी भूमिका समझनी होगी। मुझे इस भूमिका में दो काम करने हैं : शांति को बढ़ावा देना और इन अधिकारों की रक्षा करना।''
आगे वे कहते हैं, वे अपने देश में बोलने, लिखने, विचार करने और चित्रित करने की आज़ादी का हमेशा बचाव करेंगे।
फ़्रांसीसी राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि
"वे मुसलमान कट्टरपंथी संगठनों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करेंगे। फ़्रांस के अनुमानित 60 लाख मुसलमानों के एक अल्पसंख्यक तबक़े से "काउंटर-सोसाइटी" पैदा होने का ख़तरा है।"
काउंटर सोसाइटी या काउंटर कल्चर का अर्थ है, एक ऐसा समाज तैयार करना, जो कि उस देश के समाज की मूल संस्कृति से अलग होता है।
इमैनुएल मैक्रों के इस फ़ैसले पर कुछ मुस्लिम देश में नाराज़गी ज़ाहिर की गई। कई देशों ने फ़्रांसीसी सामान के बहिष्कार की भी अपील की है। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने कहा था कि,
"अगर फ़्रांस में मुसलमानों का दमन होता है तो दुनिया के नेता मुसलमानों की सुरक्षा के लिए आगे आएं। फ़्रांसीसी लेबल वाले सामान न ख़रीदें।"
फ़्रांस में नीस शहर के चर्च नॉट्रे-डेम बैसिलिका में एक व्यक्ति द्वारा चाकू से हमला कर दो महिलाओं और एक पुरुष की हत्या कर दिए जाने पर, राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा,
''मेरा ये संदेश इस्लामिक आतंकवाद की मूर्खता झेलने वाले नीस और नीस के लोगों के लिए है। यह तीसरी बार है जब आपके शहर में आतंकवादी हमला हुआ है। आपके साथ पूरा देश खड़ा है। अगर हम पर फिर से हमला होता है तो यह हमारे मूल्यों के प्रति संकल्प, स्वतंत्रता को लेकर हमारी प्रतिबद्धता और आतंकवाद के सामने नहीं झुकने की वजह से होगा। हम किसी भी चीज़ के सामने नहीं झुकेंगे. आतंकवादी ख़तरों से निपटने के लिए हमने अपनी सुरक्षा और बढ़ा दी है। मुझे लगता है कि मेरे शब्दों को लेकर बोले गए झूठ और उन्हें तोड़मरोड़ कर पेश करने के चलते ही इस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। इससे लोगों को लगा कि मैं उन कार्टून का समर्थन करता हूं। वे कार्टून सरकारी प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं थे नहीं थे बल्कि स्वतंत्र और आज़ाद अख़बारों में दिए गए थे, जो सरकार से जुड़े नहीं है।''
इमैनुएल मैक्रों ने साक्षात्कार में यह भी कहा कि,
''आज दुनिया में कई लोग इस्लाम को तोड़-मरोड़ रहे हैं। इस्लाम के नाम पर वो अपना बचाव करते हैं, हत्या करते हैं, कत्लेआम करते हैं। इस्लाम के नाम पर आज कुछ अतिवादी आंदोलन और व्यक्ति हिंसा कर रहे हैं। यह इस्लाम के लिए एक समस्या है क्योंकि मुस्लिम इसके पहले पीड़ित होते हैं। आतंकवाद के 80 प्रतिशत से ज़्यादा पीड़ित मुस्लिम होते है और ये सभी के लिए एक समस्या है।"
इमैनुएल मैक्रों ने इस साक्षात्कार में कहा है कि,
" हिंसा को सही ठहराना मैं कभी स्वीकार नहीं करूंगा। मैं मानता हूं कि हमारा मकसद लोगों की आज़ादी और अधिकारों की रक्षा करना है। मैंने देखा है कि हाल के दिनों में बहुत से लोग फ़्रांस के बारे में अस्वीकार्य बातें कह रहे हैं। हमारे बारे में और मेरे बयान को लेकर कहे गए झूठों का समर्थन कर रहे हैं और हालात बुरी स्थिति की तरफ़ बढ़ रहे हैं। हम फ्रांस में इस्लाम से नहीं बल्कि इस्लाम के नाम पर किए जा रहे आतंकवाद से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं।"
आज दुनिया भर में जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of expression) की बात की जा रही है, उसका श्रेय महान फ्रेंच क्रांति को दिया जाता है। जब दुनिया मध्ययुगीन सामंतवाद के काल मे पड़ी हुई थी तभी फ्रांस में एक ऐसी क्रांति हुई जिसने दुनिया के मानवाधिकारों और नागरिक अधिकार की अस्मिता की एक नयी रोशनी दिखाई। पहली बार दुनिया ने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के त्रिघोष का नाद सुना और यह घटना दुनिया की उन अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं में शुमार की जाती है जो दुनिया के लिये टर्निंग प्वाइंट घटनाएं मानी जाती हैं।
फ्रांस की क्रांति का इतिहास | History of the French Revolution
आज जो कुछ भी फ्रांस में हो रहा है उस पर कोई भी चर्चा हो, इसके पहले, फ्रांस की राज्यक्रांति की पृष्ठभूमि, कारण और परिणामों का अध्ययन कर लिया जाना चाहिए।
फ्रांस की जनता ने लुई सोलहवें के शासन को उखाड़ फेंका और संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की। हालांकि यह यूरोप का पहला लोकतंत्र नहीं था, बल्कि इंग्लैंड में संसदीय लोकतंत्र की परंपरा का आरंभ, 1215 ई के मैग्ना कार्टा और 1600 ई के ग्लोरियस रिवोल्यूशन से हो चुका था। पर कहा इंग्लैंड की रक्तहीन क्रांति और कहाँ फ्रांस की यह जनक्रांति, दोनो के स्वरूप में मौलिक अंतर था। हालांकि फ्रांस में नेपोलियन के समय मे राजतंत्र कुछ बदले स्वरूप में पुनः आया लेकिन वह लंबे समय तक नहीं रह सका। फ्रांस अपनी राज्यक्रांति से उद्भूत मूल्यों के साथ मज़बूती से जुड़ा रहा।
Secularism is the core of the French Constitution
धर्मनिरपेक्षता, फ्रेंच संविधान का मूल भाव है। लेकिन, सेक्युलरिज्म का फ्रेंच स्वरूप हमारे देश के सर्वधर्म समभाव से अलग है। सेकुलरिज्म की फ्रेंच अवधारणा (French concept of secularism) का जन्म भी, 1789 ई की फ्रेंच राज्यक्रांति का परिणाम है। परिवर्तन की वह पीठिका, तत्कालीन फ्रेंच विचारकों, रूसो ,वोल्टेयर तथा अन्य महानुभावों द्वारा तैयार की गयी थी। पहली बार राज्य को चर्च से अलग करने की बात की गयी। यूरोप के इतिहास में यह एक क्रांतिकारी बदलाव था। इस परिवर्तन में राजा और सामन्त तो जनता के निशाने पर थे ही, पर पौरोहित्य वर्ग भी इससे बच न सका। क्रान्तिकारी राष्ट्रीय असेंबली ने 1789 में चर्च की सारी भू संपदा को जब्त कर लिया। धार्मिक जुलूसों और सलीबों के प्रदर्शन पर भी पाबन्दी लगा दी गई थी। 2 सितंबर 1792 को पेरिस की सड़कों पर आक्रोशित भीड़ ने 3 बिशपों और 200 से ज़्यादा पादरियों की हत्या कर दी, जिसे फ़्रांस के इतिहास में, सितंबर जनसंहार के नाम से जाना जाता है।
इस क्रांति के बाद, राज्य और चर्च पूरी तरह अलग हो गए। राजसत्ता ने चर्च का बहिष्कार कर दिया। लंबे समय तक चर्च और राज्यसत्ता के अविभाज्य होने के बाद, चर्च का राज्य से अलग हो जाना, यूरोपीय इतिहास की एक बड़ी घटना थी।
धर्म के प्रति उदासीन और उसे अप्रासंगिक कर देने का जो भाव, तब विकसित हुआ था वह अब फ्रेंच समाज का स्थायी भाव बन गया है। यह मनोवृत्ति आज भी फ्रेंच सेकुलरिज्म में मौजूद है।
फ्रांस की वर्तमान स्थिति पर समर अनार्य का यह उद्धरण पढ़िये,
"1805 ई में फ़्रांस ने बाक़ायदा एक क़ानून पास किया- सेपरेशन ऑफ़ द चर्चेज़ एंड स्टेट- और राज्य के चर्च से संबंध पर प्रतिबंध लगा दिया। फिर 1946 ई में तो और कमाल किया : सारी धार्मिक इमारतों- चर्च और यहूदी सिनेगाग्स को राज्य की संपत्ति बना दिया। मस्जिदें तब बहुत कम थीं- अब भी बहुत कम हैं। आज भी फ़्रांस में किसी धर्म का दिखने वाला कोई प्रतीक किसी सार्वजनिक जगह पर नहीं पहना जा सकता। क्रॉस भी नहीं। यह प्रतिबंध 2004 ई में लगा- इसमें ईसाई क्रॉस, यहूदी स्टार ऑफ़ डेविड (और किप्पा), सिख पगड़ी, इस्लामिक हिजाब- सब सार्वजनिक जगहों से प्रतिबंधित किए गए। फिर आया 2011 ई, अबकी बार सभी अस्पतालों में दशकों से चल रहे ईसाई उपदेश प्रतिबंधित हुए। फ़्रांस की यह लड़ाई इस्लाम से नहीं है- धर्मांन्धता से है, उसके नाम पर कत्लोगारत से है।"
आज धर्म को लेकर जो मज़ाक़ वहां की कैरिकेचर पत्रिका शार्ली हेब्दो (Charlie Hebdo) अक्सर बनाता रहता है उसके पीछे यही मानसिकता है। फ्रांस में केवल 30 % जनसंख्या आस्तिक है। वैज्ञानिक सोच, तर्कशील उर्वर विचारकों और अस्तित्ववाद के दर्शन ने वहां जिस सेक्युलरिज्म का विकास किया, वह हमारी धर्म निरपेक्षता के मापदंड से अलग है। यदि आप भारतीय सन्दर्भ से, फ्रांस के सेक्युलरवाद का मूल्यांकन करेंगे तो फ्रांस के सेकुलरिज्म को समझ नहीं पाएंगे। भारत में सनातन धर्म में जहां मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना पहले ही कह दिया गया है और हर बिन्दु पर शास्त्रार्थ की दीर्घ और समृद्ध परंपरा है, वहां आहत भाव बहुत ही कम दिखता है। काशी में कबीर की मौजूदगी और उनका धर्म, ईश्वर, पौरोहित्यवाद के खिलाफ खुला तंज इस बात का प्रमाण है कि समाज बहुत कुछ ऐसी आलोचनाओं से आहत नहीं होता था। भारत मे धर्म का ऐसा व्यापक जनविरोध हुआ भी नहीं। क्योंकि यहां सनातन धर्म में ही, अनेक सुधारवादी आंदोलन लगातार चलते रहे और यह क्रम स्वामी दयानंद सरस्वती के आर्यसमाज के आंदोलन तक निरन्तर जारी रहा। जिससे धर्म समय-समय पर प्रक्षालित होकर नए कलेवर में सामने आता रहा। अतीतजीविता तो थी पर जड़ता कम ही रही।
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जब फ्रांस की घटना पर समस्त मुस्लिम देश एकजुट हुए तो इसकी वैश्विक प्रतिक्रिया भी हुई। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। लेकिन एक नयी बहस छिड़ गयी कि, क्या आहत होने पर किसी को, किसी की भी, हत्या कर देने का अधिकार है ? यहीं एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि, अगर फ्रांस के उस अध्यापक की हत्या का समर्थन किया जा रहा है, तो फिर पिछले कुछ सालों से, भारत में, आस्था के आहतवाद के अनुसार, होने वाली मॉब लिंचिंग का विरोध किस आधार पर किया जा सकता है ? फिर यही मान लीजिए कि जिसकी आस्था आहत हो वह फिर, आहत करने वालों की हत्या ही कर दे। फिर एक बर्बर और प्रतिगामी समाज की ओर ही तो लौटना हुआ ?
आस्था से हुआ आहत भाव कितना भी गंभीर हो, पर उसकी प्रतिक्रिया में की गयी किसी मनुष्य की हत्या एक हिंसक और बर्बर आपराधिक कृत्य है। जो कुछ भी उस किशोर द्वारा अपने अध्यापक के प्रति फ्रांस में किया गया है, वह अक्षम्य है, और उसका बचाव बिल्कुल भी नहीं किया जाना चाहिए।
Charlie Hebdo's cartoon is objectionable and condemnable.
शार्ली हेब्दो का कार्टून आपत्तिजनक और निंदनीय है। इस कार्टून के खिलाफ फ्रेंच कानून के अंतर्गत अदालत का रास्ता अपनाया जाना चाहिए था, न कि हत्या का अपराध। अगर आहत भाव पर ऐसी हत्याओं का बचाव किया जाएगा और आहत होने पर हत्या या हिंसा की हर घटना औचित्यपूर्ण ठहराई जाने लगेगी तो फिर कानून के शासन का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। शार्ली हेब्दो (Charlie Hebdo) पहले भी पैगम्बर के आपत्तिजनक कार्टून छाप चुका है। उसने न केवल इस्लाम के ही बारे में आपत्तिजनक कार्टून छापे है, बल्कि उस अखबार में, कैथोलिक धर्म और चर्च के खिलाफ भी कार्टून छापे गए हैं। पहले भी 2012 में, पैगम्बर के आपत्तिजनक कार्टून छापने के बाद शार्ली हेब्दो के कार्यालय पर आतंकी हमला (Terrorist attack on Sharley Hebdo's office) हुआ था और उसके 12 कर्मचारी मारे गए थे। लेकिन उस जघन्य आतंकी घटना के बाद भी उक्त अखबार की न तो नीयत बदली और न नीति।
शार्ली हेब्दो (Charlie Hebdo) (Charlie Hebdo) ने अस्थायी कार्यालय से अपना अखबार निकालना जारी रखा और ऐसे ही कटाक्ष भरे, आपत्तिजनक कार्टून फिर छापे गए। पूरे फ्रांस या यूरोप में मैं हूँ शार्ली का एक अभियान चलाया गया।
किसी की धर्म मे आस्था है तो किसी की संविधान में और किसी की दोनो में। आस्था नितांत निजी भाव है। लेकिन, देश, धर्म की आस्था से नहीं चलता है बल्कि संविधान के कायदे कानून से चलता है। फ्रेंच कानूनों के अंतर्गत वहां के आस्थावान लोगों को शार्ली हेब्दो (Charlie Hebdo) के खिलाफ कार्यवाही करनी चाहिए थी, न कि आतंकी हमला और अध्यापक की हत्या।
धर्म के उन्माद और धर्म के प्रति आस्था के आहत होने की ऐसी सभी हिंसक और बर्बर प्रतिक्रियायें, चाहे वह गला रेत कर की जाने वाली हत्या हो, या मॉब लिंचिंग या भीड़ हिंसा, यह सब आधुनिक और सभ्य समाज पर एक कलंक हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऐसा कार्टून बनाना निंदनीय है और ईश्वर धर्म और पैगम्बर से जिनकी भी आस्था जुड़ी हो, उसे, आहत नहीं किया जाना चाहिए। पर इसका यह अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि, ऐसा कुकृत्य करने वालो की हत्या ही कर दी जाय और फिर उस हत्या के पक्ष में खड़ा हो जाया जाय।
पैगम्बर हजरत मोहम्मद ने अरब के तत्कालीन समाज में एक प्रगतिशील राह दिखाई थी। एक नया धर्म शुरू हुआ था। जो मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करता था, समानता और बंधुत्व की बातें करता था और इस धर्म का प्रचार और प्रसार भी खूब हुआ। वह धर्म इस्लाम के नाम से जाना गया। पर आज हजरत मोहम्मद और इस्लाम पर आस्था रखने वाले धर्मानुयायियों के लिये यह सोचने की बात है कि उन्हें क्यों बार-बार कुरान से यह उद्धरण देना पड़ता है कि, इस्लाम शांति की बात करता है,पड़ोसी के भूखा सोने पर पाप लगने की बात करता है, मज़दूर की मजदूरी, उसका पसीना सूखने के पहले दे देने की बात करता है और भाईचारे के पैगाम की बात करता है। आज यह सारे उद्धरण, जो बार-बार सुभाषितों में दिए जाते हैं उनके विपरीत इस्लाम की यह छवि क्यों है कि इसे एक हिंसक और आतंक फैलाने वाले धर्म के रूप में देखा जाता है। यह मध्ययुगीन, धर्म के विस्तार की आड़ में राज्यसत्ता के विस्तार की मनोकामना से अब तक मुक्त क्यों नहीं हो पाया है ?
फ्रांस में जो कुछ भी हुआ, या हो रहा है वह एक बर्बर, हिंसक और मध्ययुगीन मानसिकता का परिणाम है। उसकी निंदा और भर्त्सना तो हो ही रही है, पर इतना उन्माद और पागलपन की इतनी घातक डोज 18 साल के एक किशोर में कहाँ से आ जाती है और कौन ऐसे लोगों के मन मस्तिष्क में यह जहर इंजेक्ट करता रहता है कि एक कार्टून उसे हिंसक और बर्बर बना देता है ?
Everything that has happened in France is highly reprehensible and shameful.
फ्रांस में जो कुछ भी हुआ है वह बेहद निंदनीय और शर्मनाक है। पहले पैगम्बर मोहम्मद के एक कार्टून का बनाया जाना और फिर उस कार्टून के प्रदर्शन पर एक स्कूल के अध्यापक की गला काट कर हत्या कर देना। बाद में चर्च में घुस पर तीन लोगों की हत्या कर देना। यह सारी घटनाएं यह बताती है कि धर्म एक नशा है और धर्मान्धता एक मानसिक विकृति (Religion is an addiction and bigotry is a mental disorder)।
Is what is happening in France on the Prophet's cartoon justified in Islam?
एक सवाल मेरे जेहन में उमड़ रहा है और उनसे है, जो इस्लाम के आलिम और धर्माचार्य हैं तथा अपने विषय को अच्छी तरह से जानते समझते हैं। एक बात तो निर्विवाद है कि, इस्लाम में मूर्तिपूजा का निषेध है और निराकार ईश्वर को किसी आकार में बांधा नहीं जा सकता है। इसी प्रकार से पैगम्बर मोहम्मद की तस्वीर भी नहीं बनायी जा सकती है। यह वर्जित है और इसे किया भी नहीं जाना चाहिए। यह भी निंदनीय और शर्मनाक है। पर अगर ऐसा चित्र या कार्टून, कोई व्यक्ति चाहे सिरफिरेपन में आकर या जानबूझकर कर बना ही दे तो क्या ऐसे कृत्य के लिये पैगम्बर ने कहीं कहा है कि, ऐसा करने वाले व्यक्ति का सर कलम कर दिया जाय ?
अब एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि जो कुछ खून खराबा, पैगम्बर के कार्टून पर फ्रांस में हो रहा है, क्या इस्लाम में वह जायज है ? एक शब्द है ईशनिंदा यानी ब्लासफेमी। क्या ईशनिंदा की कोई अवधारणा, इस्लाम में है (Is there any concept of blasphemy in Islam) और यह एक जघन्य अपराध है तो क्या इसकी सज़ा खुल कर हत्या ही है ?
2012 में जब शार्ली हेब्दो (Charlie Hebdo) ने विवादित कार्टून छापा था दिल्ली के प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन खान ने इस विषय पर टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा था। उक्त लेख का एक अंश पढ़े,
" कुरान में ईशनिंदा के लिए कोई प्रावधान नहीं है। कुरान में बहुत साफ-साफ यह बात लिखी है कि, इस्लाम में ईशनिंदा के लिए सज़ा नहीं बल्कि इस पर बौद्धिक बहस का प्राविधान है। कुरान हमें बताता है कि प्राचीन काल से ईश्वर ने हर शहर हर समुदाय में पैगंबर भेजे हैं। कुरान बताता है कि हर दौर में पैगंबर के समकालीन लोगों ने उनके प्रति नकारात्मक रवैया अपनाया। कुरान में 200 आयतें ऐसी हैं, जो बताती हैं कि पैगंबरों के समकालीन विरोधियों ने ठीक वही काम किया था, जिसे आज ईशनिंदा कहा जा रहा है। सदियों से पैगंबरों की आलोचना उनके समकालीन लोगों द्वारा की जाती रही है (कुरान 36:30)। कुरान के मुताबिक पैगंबर के समकालीन लोगों ने उन्हें झूठा (40:24), मूर्ख (7:66) और साजिश रचने वाला (16:101) तक करार दिया था। लेकिन कुरान में यह कहीं नहीं लिखा है कि जिन लोगों ने ऐसे शब्द कहे या कहते हैं उन्हें पीटा, मारा या और कोई सज़ा दी जाए। इससे पता चलता है कि पैगंबर की आलोचना करना या उन्हें अपशब्द कहने से ही सज़ा नहीं दी जा सकती है। अगर ऐसा होता है तो अपशब्द या आलोचना करने वाले व्यक्ति को शांतिपूर्ण तरीके से समझाया जा सकता है या उसे चेतावनी दी जा सकती है। पैगंबर को अपशब्द कहने वाले व्यक्ति को किसी तरह की शारीरिक सज़ा नहीं दी जानी चाहिए। ऐसे व्यक्ति को सुतर्क के जरिए समझाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में सज़ा देने की बजाय शांतिपूर्ण ढंग से समझाबुझाकर उस व्यक्ति को बदलने की कोशिश करनी चाहिए। जो लोग पैगंबर के खिलाफ नकारात्मक भाव रखते हैं, ईश्वर उनका फैसला करेगा। ईश्वर उनके हृदय की गहराइयों में छुपी बातों को भी जानता है। ईश्वर में आस्था रखने वाले लोगों को नकारात्मक बातों को टालने की नीति अपनानी चाहिए। इसके अलावा उन्हें सभी के शुभ की इच्छा रखना और ईश्वर के संदेश के प्रचार-प्रसार करने जैसी बातों में खुद को व्यस्त रखना चाहिए।इस सिलसिले में एक अन्य अहम बात यह है कि कुरान में कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं है कि अगर कोई व्यक्ति पैगंबर के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल करता है तो उसे ऐसा करने से रोकना चाहिए। कुरान में कहा गया है कि पैगंबर के विरोधियों के खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए।
आगे वे कहते हैं,
"कुरान की इन आयतों से साबित होता है कि इस्लाम में आस्था रखने वाले लोगों का यह काम नहीं है कि वे पैगंबर की आलोचना करने वाले या अपशब्द कहने वालों पर नज़र रखें और उन्हें मारने की योजना बनाएं। इन बातों के मद्देनजर आज के दौर में कई मुसलमान कुरान के उपदेशों और संदेशों के ठीक उलट काम कर रहे हैं।"
The most dangerous combination is the combination of religion and state.
धर्म और राज्य का कॉम्बिनेशन सबसे खतरनाक कॉम्बिनेशन होता है। राज्य विस्तार की अवधारणा पर चलता है और धर्म जब राज्य के विस्तार के वाहक की भूमिका में आ जाता है तो फिर वह धर्म स्वतः अपने उद्देश्य से भटक जाता है। सेमेटिक धर्मों की सबसे बडी त्रासदी भी यही रही है कि वह राज्य से नियंत्रित होता रहा है। यही नियंत्रण इस्लाम और ईसाई संघर्षों जिसे इतिहास में क्रुसेड के नाम से जाना जाता है का परिणाम रहा है। राज्य और धर्म का घालमेल घातक, हिंसक, बर्बर और एक मध्ययुगीन कांसेप्ट है।
ऐसे कार्टूनों के प्रकाशन अभिव्यक्ति की आज़ादी के दुरुपयोग हैं, यह मानते वालों के लिये इसे फ्रांस के ही सन्दर्भ में सोचना पड़ेगा। सभी समाजों की धार्मिक आस्था की सहनशीलता नापने का कोई एक सर्वमान्य मापदंड नहीं हो सकता है। 1789 ई की फ्रेंच क्रान्ति के वक्त’ मनुष्य के अधिकारों की घोषणा ‘नामक दस्तावेज जारी किया गया था जिसके अनुच्छेद 4 औऱ 5 में मनुष्य की व्यक्तिगत आज़ादी की अवधारणा दी गयी है। इनमें कहा गया है कि
"मनुष्य को वह सब कुछ करने का प्राकृतिक अधिकार प्राप्त है, जिससे किसी अन्य के समान अधिकार प्रभावित न हों और सार्वजनिक अहित उत्पन्न न हो रहा हो। इस आज़ादी की हद वह होगी जिसे क़ानून द्वारा तय किया जाएगा। "
यह प्राविधान आज भी फ़्रांस के संविधान का अंग है। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अक्सर बहस तय होती रहती है। उसकी सीमा क्या हो, इसपर विचार करने के दौरान यह सदैव ध्यान रखा जाना चाहिए कि, आप को सड़क पर खड़े होकर छड़ी घुमाने का अधिकार है, पर वहीं तक जब तक कि वह किसी की नाक पर न लग जाय। हमारे समाज मे सत्य बोलने को सर्वोपरि माना गया है पर वहीं अप्रिय सत्य यानी ऐसा सत्य जो किसी को आहत करे से बचने की बात भी कही गयी है। " सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम”।
लेकिन इन सारे तर्क वितर्क और विमर्श के बीच एक बात निश्चित तौर पर ध्रुव सत्य मान ली जानी चाहिए कि हत्या एक जघन्य और दंडनीय अपराध है जिसका किसी भी दशा में बचाव नहीं किया जाना चाहिये।
विजय शंकर सिंह
लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर हैं।