उस दिन हम लोग दिल्ली से निकलने वाली एक वैकल्पिक अंग्रेजी साप्ताहिक (alternative english weekly) के दफ्तर में बैठ थे। सम्पादक महोदय ने सरकार के खिलाफ एक तीखा और लम्बा लेख दिखाते हुए कहा, अब तो कुछ भी लिख दीजिए खुली आजादी है, पहले इससे हल्के लेख लिख मैं जेल चला जाता था।
ये बात उन्होंने एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कही थी और उनके चेहरे का भाव कुछ-कुछ मोनालिसा की मुद्रा जैसा था, जिससे यह अंदाज लगाना मुश्किल था कि मीडिया को मिली आजादी से खुश हैं या अब अपने लेखन की वजह से जेल न जाने के चलते दुखी हैं।
दरअसल, आज सत्ताविरोधी रूझान रखने वाले अधिकतर पत्रकारों और लेखकों (Journalists and writers holding anti-power trends) की मीडिया के बरअक्स मोनालिसा जैसी ही मुद्रा है। ठीक वैसे ही जैसे लोकतंत्र को लेकर है। जहां एक तरफ इस बात की खुशी है कि वोट परसेंट में वृद्धि हुयी है, दमित उपेक्षित तबकों का चुनावी लोकतंत्र में हस्तक्षेप बढ़ रहा है तो वहीं इस पूरे लोकतांत्रिक ढांचे से किसी भी सार्थक बदलाव न होने और इसके चुक जाने से एक नाराजगी भी है।
यानि एक किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति है जो मीडिया को एकदम खारिज भी नहीं करने देता है और उसकी आजादी का जश्न भी नहीं मनाने देता है।
लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या यह किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति स्वतः आई है। यानी मीडिया के ऊपर से हटा यह सेंसर और उसी के बरअक्स ‘कुछ भी लिख देने की आजादी’ (Freedom to write anything) किसी सुनियोजित परियोजना का हिस्सा है, जिसका अपना दूरगामी राजनीतिक एजेण्डा है।
इस पर बात आगे बढ़ाने से पहले कुछ दूसरे मुद्दों पर बात करना जरूरी है। पिछली सदी के आखिरी दशक की शुरुआत में भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने के बाद मीडिया को भी खोलने की फुसफुसाहट शुरू हो गयी।
तर्क दिया गया कि राज्य द्वारा नियंत्रित मीडिया (State-controlled media) लोकतंत्र
ये बहस उदार अव्यवस्था के समर्थकों के तरफ से लायी गयी। जिसमें मीडिया खास कर दूरर्दशन और रेडियो को सरकारी भोंपू होने का आरोप लगाया जो बहुत हद तक सही भी था।
लेकिन यहां गौरतलब बात यह है कि दूरर्दशन और आकाशवाणी को जो लोग सरकारी भोंपू बता रहे थे, उनका इनके राज्यनियंत्रित होने से कोई राजनीतिक नुकसान नहीं था। क्योंकि वे सत्ता के इर्द-गिर्द घूमने वाले लोग थे।
सत्ता व्यवस्था जिसने उदारीकरण की नीतियों के आवरण के साथ ही तय कर लिया कि अब हर मोड़ पर राज्य की निरर्थकता और निष्क्रियता साबित कर व्यक्तिगत पूंजी की सत्ता को प्रतिष्ठित करना है, ने इस तर्क को तुरंत लपक लिया और सुभाष चंद्रा और रुपर्ट मर्डोक को मीडिया को सरकारी प्रभाव से मुक्त करने और उसे ज्यादा प्रतिनिधिकारी बनाने का जिम्मा सौंप दिया।
यह नवें दशक के मध्यान्ह की बात है। इस समय तक यह तय हो गया था कि मुख्यधारा के राजनैतिक दलों में वैचारिक मतभेद खत्म हो रहे हैं, पक्ष-विपक्ष का अंतर सिर्फ सिटिंग अरेंजमेंट का अंतर है।
यानी लोकतंत्र की जो बुनियादी अवधारणा थी जिसमें अलग-अलग राजनैतिक दलों में सिर्फ चुनावी ही नहीं वैचारिक संघर्ष भी होना था, अब कमजोर पड़ने लगा। ऐसे में सत्ता तंत्र को संचालित करने वाले ईश्वरों के सामने एक चुनौती है कि कैसे लोकतंत्र के भ्रम को जनता के बीच बनाए रखा जाय। यानी विभिन्न राजनीतिक दलों के एक जैसा हो जाने के बावजूद कैसे आम जनता के सवालों को रखने-उठाने वाले एक विजिबल विपक्ष के छद्म को रचा जाय जो नए सिरे से जनता में इस नाम मात्र के लोकतंत्र के प्रति आस्था का ज्वार पैदा करे। शासक वर्ग ने इस छद्म को रचने की जिम्मेदारी ‘फ्री मीडिया’ को सौंप दी।
अब इस फ्री मीडिया (Free media) के सामने यह जिम्मेदारी थी कि वो शासक वर्ग के कल्पनाओं के अनुरूप एक भावी जनता का निर्माण करे। एक ऐसी जनता का जो अब राष्ट्र के बरक्स समाज को रख कर सोचने के बजाय व्यक्ति को रखकर सोचे, जो अब सामाजिक या सामूहिक प्रगति के बजाय व्यक्तिगत प्रगति को राष्ट्रीय प्रगति का आधार समझे।
यानि, मीडिया को अब सामूहिकताबोध पर आधारित पांच हजार वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता के सबसे असामाजिक और व्यक्तिवादी लोगों की खेप तैयार करनी थी। और वो भी राष्ट्र और लोकतंत्र जो मनुष्य के सामूहिकताबोध की सबसे आधुनिक अभिव्यक्तियां हैं के भ्रम को बनाए रखते हुए। इस परियोजना के लिए सबसे जरूरी था कि लोगों को उनकी ‘आजादी’ का एहसास कराया जाए। उस ‘आजादी’ का जो उनके मुताबिक समाजवाद का बोझ ढोते-ढोते कहीं दब गया था।
उसे एहसास कराना था कि उसका इस लोकतंत्र में महत्व है, भले पहले, दूसरे और तीसरे पाए में न सही चौथे खम्भे में तो जरूर है।
इस तरह लोकतंत्र के बाकी तीनों स्तम्भों की प्रासंगिकता पर उठ रहे सवालों के बरअक्स चौथे खम्भे को जनता का सबसे विश्वसनीय, ताकतवर और समावेशी विपक्ष साबित किया जाने लगा।
बहरहाल, मीडिया को लोकतंत्र का छद्म बनाने की यह परियोजना (The project to make the media a proxy for democracy) भारतीय शासक वर्ग की कोई मौलिक खोज नहीं थी। बल्कि यह विश्व के एकध्रुवीय बनने के बाद पूरी दुनिया में अमरीका और उसके सहयोगी राष्ट्रों के नेतृत्व में चल रहे लूटतंत्र की परियोजना का सबसे अहम हिस्सा था, जिसे दुनिया के विभिन्न हिस्सों में आजमाया जा रहा था।
मसलन, इराक में सद्दाम हुसैन के पतन के बाद जब वहां अमरीका ‘लोकतंत्र’ थोपने में लगा था तब इराकी जनता के लोकतांत्रिक आकांक्षा के विस्फोट को रेखांकित करने वाली एक महत्वपूर्ण खबर अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की मीडिया में लगातार छायी रही। खबर यह थी कि हॉलीवुड की सबसे ‘बोल्ड एण्ड सेक्सी’ अभिनेत्री के चुनाव में इराकी नवयुवकों ने बढ़-चढ़ कर ऑन लाइन वोटिंग की थी। जिसके परिणाम में उनका मत महत्वपूर्ण था।
इस प्रकरण को पश्चिमी मीडिया और पूंजीवाद के एक बडे थिंक टैंक थॉमस फ्रीडमैन ने युद्धस्तर पर अभियान जैसा चलाते हुए कहा कि इराक की जनता ने इस वोटिंग से पहली बार वास्तविक लोकतंत्र (Real democracy) का स्वाद चखा है। क्योंकि वहां अब तक सद्दाम हुसैन द्वारा कराए जा रहे जनमत संग्रहों में जिसमें उनकी बाथ पार्टी 98 प्रतिशत वोट पाती थी, उसे कभी भी अपनी पसंद से वोट नहीं देने दिया गया।
इस अभियान के तहत बताया गया कि इराक में भले ही अभी कोई वास्तविक चुनी हुयी सरकार न हो लेकिन लोगों के पास मीडिया के लोकतंत्र का भरोसा जरूर है जो उन्हें अपनी बात रखने का प्लेटफार्म देगा।
दूसरे शब्दों में इराकी जनता को मीडिया के रूप में एक लोकतंत्र का डमी सौंप दिया गया। जाहिर है इसका मकसद इराकी जनता को जिन्हें अपने देश के साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी लूट के खिलाफ लड़ने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी उठानी थी, उन्हें इन सबसे रोकना था। उन्हें बताना था कि साम्राज्यवाद, संप्रभुता और अरब राष्ट्रवाद अब बीते हुए बुरे दिनों के जुमले हैं। भविष्य अब अपनी व्यक्तिगत आजादी को महसूस करने का है जिसका स्पेस आपको ‘फ्री मीडिया’ देगा, यही लोकतंत्र है।
भारत के संदर्भ में भी इस परियोजना के केंद्र में लोगों की आजादी ही थी। जो रणनीतिक तौर पर कारगर भी हुयी।
दरअसल, ‘फ्री मीडिया’ के आगमन से पहले टीवी या अखबारों में आम आदमी के सवाल भले उठते-दिखते हों लेकिन वो खुद उस पर कभी प्रत्यक्ष जगह नहीं पाता था। उसकी तरफ से कोई नेता या बड़ा आदमी उसकी बात रखता था। एक तरह से यह आम मान्यता ही बन गयी थी कि यह स्पेस सिर्फ बडे़ नेताओं, फिल्मी हस्तियों और खिलाड़ियों के लिए ही है।
ऐसे में जब पहली बार आम आदमी को ‘फ्री मीडिया; ने खुद अपनी बात रखने का मौका दिया तो उसे आजादी के 40-45 सालों में पहली बार अपनी ताकत और अहमियत का एहसास हुआ। उसे लगा कि सत्ता व्यवस्था के जिन तीन स्तम्भों में उसकी सुनवाई नहीं होती, वो इस चौथे स्तम्भ से उन्हें अपने अस्तित्व का एहसास करा सकेगा।
ऐसे माहौल में ही टीवी पर कोर्ट-कचहरी लगने लगे जहां लोगों ने देश के भ्रष्टतम लोगों को जनअदालतों में रिरियाते-घिघियाते देखा। ये वो दृश्य थे जो उसके लिए ‘फ्री मीडिया’ की आमद से पहले अकल्पनीय थे। हालांकि उसे शासक वर्ग से मिले अपने अब तक के अनुभवों से पूरा यकीन था कि वास्तविक कोर्ट-कचहरियों में दृश्य एकदम इसके उलटे होंगे और जनता के आक्रोश के शिकार लोग वहां से बरी होते रहेंगे।
बावजूद इसके आम आदमी को यह सुकून हुआ कि वास्तविक न सही इस ‘डमी’ लोकतंत्र ('Dummy' democracy) में तो वही असली मालिक है। इस तरह मीडिया जहां एक तरफ लोकतंत्र के छद्म के बतौर स्थापित होती गयी वहीं इस छद्म के प्रति लोगों के आकर्षण और आस्था की मूल वजह यह धारणा बनती गयी कि अब वास्तविक लोकतंत्र यानि सत्ता व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हो सकता, उसे चैलेंज करना समय बर्बाद करना है।
दूसरे शब्दों में मीडिया के मजबूत होने और सत्ता के निरंकुश होने में समानुपातिक सम्बंध बनता गया।
यानी डमी जितना मजबूत होता गया वास्तविक उतना ही कमजोर होता गया।
इसीलिए हम देखते हैं कि ‘फ्री मीडिया’ की पहुंच वाले वर्गों - मध्य और निम्न, में राज्य को चैलेंज करने का माद्दा खत्म हो चुका है। इस दौरान कहीं कोई सडकों पर जुझारू आंदोलन नहीं हुआ, उसका जो भी आक्रोश है वो बहुत हद तक इस डमी लोकतंत्र के दायरे में ही सिमटा है।
वहीं आदिवासी जैसे समाज, जो अब तक फ्री मीडिया के डायरेक्ट प्रभाव से बाहर हैं, वो राजसत्ता के वास्तविक लोकतांत्रिक ढांचे को सबसे क्रान्तिकारी तरीके से चैलेंज दे रहे हैं।
यह महज संयोग नहीं है कि अरूंधती राय को छत्तीसगढ का कोई पुलिस अधिकारी माओवादी आंदोलन को खत्म करने के लिए सरकार को आदिवासीयों में टीवी बंटवाने की राय देता है।
बहरहाल, चूंकि जनता को ‘आजादी’ का एहसास कराने की इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य एक ऐसी खेप का निर्माण करना है जो समाज या सामूहिक हित के बजाए व्यक्तिगत हित को राष्ट्रनिर्माण का आधार समझे। इसलिए यह जरूरी है कि इस ‘आजादी’ को व्यक्तियों द्वारा सामाजिक और सामूहिक इस्तेमाल से हर कीमत पर बचाया जाए।
दरअसल यह इसलिए जरूरी है कि जनता और व्यक्ति के बीच का फर्क ही इस वास्तविक और छद्म लोकतंत्र के बीच के फर्क को तय करता है। क्योंकि जनता एक सामाजिक चेतना सम्पन्न राजनीति और सत्ता सापेक्ष शब्द है, उसके होने का मतलब है कि कोई सत्ता है, जिसे वो बना बिगाड़ सकता है और सत्ता की उसके प्रति जवाबदेही है।
वहीं, व्यक्ति सामूहिकताबोध के किसी जिम्मेदारी से मुक्त होता है। उसकी मौजूदगी जनता द्वारा चुनी गयी लेकिन जनविरोधी हो चुकी सरकारों के समक्ष एक सुविधाजनक स्थिति पैदा करती है। क्योंकि व्यक्तिवादी आदमी सामूहिकताबोध के अभाव के चलते सरकार से अपेक्षा नहीं करता और सरकार भी उसके प्रति अपनी जवाबदेही से जनता के अपेक्षा आसानी से मुक्त हो जाती है।
पिछले डेढ़-दो दशकों में फ्री मीडिया की जद में आए मध्य और निम्न मध्य वर्गीय लोगों में सरकारों से रोजगार जैसी बुनियादी जरुरत की मांग करने के बजाए स्वरोजगार की अवधारणा के मजबूत होने की परिघटना को यहां उदाहरण के बतौर देखा जा सकता है।
इस रणनीति के तहत फ्री मीडिया ने लोगों को जिसे वो भी ‘जनता’ ही कहती है, समाज और विचारधारा के पुराने बोझों से मुक्त होकर अपने ‘आजाद’ विचारों से सोचने को प्रेरित करने लगी।
धीरे-धीरे वे तमाम मुद्दे और बहसें जो जनता से विशुद्ध तौर पर राजनैतिक और विचारधारात्मक स्तर पर जुडे थे, पर लोगों ने व्यक्तिगत नजरिए से सोचना शुरू कर दिया। जिसे फ्री मीडिया ने खूब जोर-शोर से प्रचारित किया। मसलन, फ्री मीडिया के आने के बाद यानि पिछले 15-20 सालों में यदि लोगों के चुनावों में वोट देने आधार को देखें तो एक तर्क बहुत तेजी से मजबूत हुआ है कि किसी प्रत्याशी को वोट उसके राजनैतिक दल या विचारधारा के बजाए व्यक्तिगत गुणों के आधार पर दिया जाना चाहिए। इस तर्क की बिना पर ही जनता ने देश में पहली बार भारतीय जनता पार्टी के रूप में फासीवाद को स्वीकार किया। जब उसने भाजपा को साम्प्रदायिक मानते हुए भी अटल बिहारी वाजपेयी को ‘व्यक्तिगत तौर पर अच्छे’ होने के तर्क पर सत्ता सौंप दी और देश को गुजरात देखना पड़ा।
इस ‘व्यक्तिगत तौर पर अच्छे’ होने के तर्क के साथ ही कांग्रेस सरकार की महंगाई के खिलाफ ऐतिहासिक बन्दी करने वाली जनता अब राहुल गांधी के ताजपोशी का इंतजार कर रही है।
‘व्यक्तिगत सोच’ के इस तर्क को और व्यावहारिक और विद्रूप तौर पर बन्दी या हड़तालों के दौरान मीडिया में देखा जा सकता है। जब वो मंहगाई जैसे मुद्दे पर जबरदस्त बन्दी के बीच ऐसे लोगों को जो सामाजिक जिम्मेदारी से मुक्त हो कर ‘अजनता’ बन चुके हैं यह कहते हुए दिखाता है कि बन्दी के चलते उन्हे कितना कष्ट उठाना पड़ा।
जाहिर है, ‘फ्री मीडिया’ मनुष्य के, जो हजारों सालों की सभ्यता के विकासक्रम में सामूहिकताबोध के आधार पर व्यक्ति से जनता बना, की दिशा को ही बिल्कुल उलट देने की परियोजना पर काम कर रहा है।
बहरहाल, सत्ता संरचना के एकदम ऊपरी स्तर पर जनता के विरूद्ध़ नीतिगत आमसहमति और समाज को जनता से विखंडित कर व्यक्ति में तब्दील किया जाना जिसे फ्री मीडिया ‘विविधता’ कहता है, ने जनता द्वारा किसी भी क्रान्तिकारी चुनौती से सत्ता तंत्र को अभेद्य दुर्ग में तब्दील कर दिया है। क्योंकि इस प्रयास में जो भी पहल कदमियां होती हैं उसे जनता के सामूहिक सोच के बजाए ऐसा करने वालों का व्यक्तिगत विचार मान कर डायल्यूट कर दिया जाता है।
जनता के मूलभूत सवालों पर चलने वाले आंदोलनों की तरह ही सत्ताविरोधी रूझान वाले लेखक और बुद्धिजीवी इस रणनीति के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं। उनके द्वारा किसी सत्ताविरोधी विचार को इस छद्म लोकतंत्र के किसी भी ‘आजाद व्यक्ति’ के विचार की तरह ही उसके अपने निजी विचार के बतौर प्रचारित किया जाता है। जिससे सत्ता को कोई खतरा नहीं होता, क्योंकि उसका ये विचार समाज के दूसरे ‘आजाद’ लोगों के विचारों के आगे खुद ब खुद लोकतांत्रिक मौत मर जाता है।
मसलन, आंतकवाद से निपटने के नाम पर सरकार द्वारा टाडा या पोटा जैसे काले कानून बनाने के मुद्दे पर आयोजित किसी टॉक शो में प्रगतिशील बुद्धिजीवी का क्या हश्र होता है। उसकी बात को काटने के लिए जनता के तौर पर ‘आजाद सोच’ वाले दर्शक जुटाए जाते हैं। जिनके अराजक तर्कों के आगे जन पक्षधर बुद्धिजीवी अलगाव में पड़ कर विलेन बन जाता है। अंततः उसे लगने लगता है कि जनता ऐसे ही सोचती है, उसकी यह निराशा उसे इस निष्कर्ष पर पहुंचा देती है कि ‘अब इस देश का कुछ नहीं हो सकता’। क्या हममें से अधिकतर लोग इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच चुके हैं।
वहीं उसे इस बात का भी सुकून होता है कि इस बुरे दौर में जब उसका सामाजिक-राजनीतिक स्पेस तेजी से खत्म किया जा रहा हो, उसे कम से कम फ्री मीडिया अपनी बात रखने का मौका तो देता है। यानि वो एक किंकर्त्वयविमूढ़ मुद्रा अख्तियार करने को मजबूर हो जाता है।
बहरहाल, चूंकि फ्री मीडिया के माध्यम से सत्तातंत्र ने उस जनता के सामूहिक सोच को विखंडित किया है जो दीन-हीन अवस्था में है और तमाम छलावों-भटकावों के बावजूद राज्य से ही उम्मीद करता है। इसलिए सत्ता की भी जरूरत हो जो जाती है कि वो अपने दुर्ग को सुरक्षित बनाए रखने के लिए ऐसी उम्मीदों को सोखने के लिए डमी लोकतंत्र में कुछ दिखावटी चेहरे रख दे।
फ्री मीडिया के आगमन के साथ ही सरकार के कुछ लोगों द्वारा सरकारी स्टैंड के इतर किसी मुद्दे पर अपनी ‘निजी राय’ रखने की बढ़ती प्रृवत्ति को इस संदर्भ में देखा सकता है। जिसके चलते संसदीय लोकतंत्र के एक महत्वपूर्ण नियामक तत्व ‘कलेक्टिव रिस्पांसिबिलीटी’ का देखते-देखते लोप हो चुका है।
यहां उदाहरण के बतौर हम कांग्रेस के दिग्गज नेता मणि शंकर अय्यर द्वारा मीडिया में कॉमनवेल्थ गेम्स को जनता के पैसों की बर्बादी और दिल्ली के झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली गरीब जनता को बेघर करने की कोशिश बताने वाले बयानों को देख सकते हैं। जिसे उनकी सरकार ‘निजी’ बयान बताकर नजर अंदाज करती है। तो वहीं समाज के एक बडे़ हिस्से का, जो इन्हीं कारणों से कॉमनवेल्थ गेम का मुखालिफ है, अय्यर चेहरा बन जाते हैं। परिणामतः जनता का जो आक्रोश कांग्रेस सरकार के खिलाफ है और जिसकी स्वाभाविक राजनीतिक परिणति सत्ताविरोधी आंदोलन में होनी चाहिए वो अय्यर तक आकर इस तर्क की स्वीकृति के साथ खत्म हो जाती है कि इस जनविरोधी सरकार में भी अय्यर जैसे ‘अच्छे लोग’ हैं।
इसी तरह दिग्विजय सिंह द्वारा मीडिया में बटला हाउस फर्जी एंकाउंटर को ‘निजी’ तौर पर फर्जी बताना और इस घटना के चलते कांग्रेस से नाराज चल रहे मुस्लिम समुदाय में अपनी ‘हीरो’ की छवि बनाना और उन्हें कांग्रेस से जोड़ने का अभियान चलाने को भी देखा जा सकता है। हालांकि, मीडिया में ‘निजी’ रखने वाले सत्ता पक्ष के नेताओँ के बयानों का अगर विश्लेषण किया जाए तो फ्री मीडिया द्वारा रचे गए लोकतंत्र के छद्म को वो खुद स्वीकार करते भी दिख जाएंगे। मसलन, दिल्ली में आयोजित ‘भारत में मुसलमान होने के मतलब’ विषयक एक सम्मेलन में जब अल्पसंख्क कल्याण मंत्री सलमान खुर्शीद से लोगों ने बाटला हाउस कथित एंकाउंटर को संदिग्ध बताने वाली खबरों की कतरनों को लहराते हुए इसकी न्यायिक जांच की मांग की तो उन्होंने सिर्फ यही कहा कि ‘ये मत भूलिये कि पाकिस्तान या दूसरे मुस्लिम बहुल मुल्कों में जहां लोकतंत्र और मीडिया की आजादी नहीं है वहां इस तरह की बात छपनी असम्भव है’।
जाहिर है वो यही बताना चाहते थे कि पाकिस्तान के सैन्यतंत्र और भारत के कथित लोकतंत्र की विभाजक रेखा सिर्फ यहां की फ्री मीडिया है।
बहरहाल, चूंकि फ्री मीडिया की इस परियोजना का मुख्य लक्ष्य जनता को विभक्त कर व्यक्ति में तब्दील करना है, समाज में किसी भी मुद्दे को लोकतांत्रिक तौर तरीकों से हल करने के विचार का तेजी से लोप हुआ है। इसीलिए हम देखते हैं कि आज से 15-20 साल पहले अलगाववाद या नक्सलवाद जैसे मुददों को जहां समाज में बातचीत द्वारा हल करने की भावना प्रबल थी वहीं इन मुददों पर अब समाज का बड़ा तबका सरकारों से बातचीत के बजाए सैन्य तरीकों से हल करने की मांग करता है। उसमें अधिनायकवाद और सैन्यतंत्र के प्रति रुझान बढ़ा है। सत्ता प्रायोजित जनता के इस फासीवादी रुझान को कथित सरकारें अपने सैन्य रूपांतरण, जो किसी भी सामान्य बुर्जुआ पार्टी की स्वाभाविक दिशा होता है, की प्रक्रिया में वैधता के लिए इस्तेमाल करती हैं। जिसमें फ्री मीडिया उनका सबसे कारगर हथियार होता है।
दरअसल, भारत जैसे घोषित लोकतंत्र में जो सिद्धांतः किसी भी मुद्दे पर सैन्य के बजाए बातचीत जैसे उदार रास्ते का हामी होता है, सरकारों के लिए बिना जनता को अपने सैन्य इरादों पर विश्वास में लिए सैन्यतंत्र थोपना मुश्किल होता है। इसीलिए सत्तातंत्र इस परियोजना के लिए मीडिया में ‘निजी विचार’ रखने की आजादी जैसे चोर दरवाजों का इस्तेमाल करता है। मसलन, यह गौर करने वाली बात है कि आतंकवाद और नक्सलवाद जैसे कथित ‘सुरक्षा’ के सवालों पर पिछले 15-20 सालों से सेना से जुडे़ अधिकारी मीडिया में क्यों और कैसे बयान दे रहे हैं। जबकि इन मुद्दों पर कोई भी बयान देने का अधिकार सिर्फ सरकार और उसके मंत्रियों का होता है।
यानि ‘निजी विचार’ के तर्क से सेना का लोकतांत्रिक सरकार के अधिकार क्षेत्र में निरंतर दखल बढ़ता गया है। जिस पर न तो सरकार कोई आपत्ति करती है और ना न्यायालय ही सेना को उसकी लक्ष्मण रेखा याद दिलाती है।
दरअसल, यह सब एक सुनियोजित रणनीति के तहत होता है, जिसके मूल में किसी भी हिंसा से निपटने में राजनीतिक-लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अर्थहीन साबित कर उसके लिए सैन्य रास्ते को वैधता दिलाना है। चूंकि, सरकारों को लोकतंत्र का चेहरा भी ओढ़े रहना है, वो खुद ऐसा नहीं कर सकतीं। ऐसे में वो मीडिया में ‘निजी राय’ रखने के स्पेस का इस्तेमाल करती हैं। यहीं से वो सेना से जुडे़ लोगों से अपनी बात रखवाती हैं, जो हर मसले का हल बन्दूक बताते हैं। जिस पर अगर कोई हल्ला नहीं मचा तो उसे आम जनभावना के बतौर स्थापित किया जाने लगता है और अगर सवाल उठ जाए तो इसे सिर्फ कुछ लोगों की ‘निजी राय’ बता कर सरकारें अपना पल्ला झाड़ लेती हैं। लेकिन ऐसा होने तक वो समाज के सामने सैन्यतंत्र को लोकतंत्र के एक विकल्प (Military system an alternative to democracy) के बतौर बहस के लिए छोड़ने में सफल हो जाती हैं।
शाहनवाज आलम
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)