बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण (First phase of Bihar assembly election) का वोट पड़ चुका है और पार्टियां अगले चरणों के चुनाव के प्रचार में जुट चुकी हैं. अब तक के चुनाव प्रचार में जितने भी मुद्दे उठाए गए हैं, उनमें तेजस्वी यादव द्वारा सत्ता में आने पर 10 लाख नौकरियां देने का मुद्दा सबसे ऊपर है. इस मुद्दे ने बाकी सभी मुद्दों को फेल कर दिया है. एक समय और कोई उपाय न देखकर इसकी काट के लिए भाजपा की ओर से 19 लाख रोजगार देने और बिहार के लोगों को मुफ्त में कोरोना वैक्सीन सुलभ कराने का घोषणा किया गया था, लेकिन 10 लाख सरकारी नौकरियों के सामने बाकी मुद्दों को पूरी तरह फेल होते देख, अब नरेंद्र मोदी और उनका गठबंधन जंगलराज का मुद्दा उठा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी 10 लाख सरकारी नौकरियां देने का वादा करने वाले तेजस्वी यादव को जंगलराज का युवराज बताते हुए लोगों को यह समझाने में
निश्चय ही लोग प्रधानमंत्री मोदी के इस कथन पर हंस रहे होंगे, क्योंकि जब बिहार में कंपनियां हैं ही नहीं, तब उनके पलायन का सवाल ही कहां पैदा होता है? लेकिन प्रचारतंत्र पर निर्भर संघ प्रशिक्षित मोदी को पता है कि एक झूठ को अगर 100 बार दोहराया जाए तो लोग सच मानने लगते हैं. इस थ्योरी में विश्वास करते हुए ही प्रधानमंत्री मोदी जंगलराज का नए सिरे से हौव्वा खड़ा कर रहे हैं. उनके बार-बार ऐसा करने पर हो सकता है कि सवर्णवादी मीडिया के सौजन्य से लोग यह मानने लगेंगे कि बिहार में कंपनियां हैं, उद्योग- धंधे हैं और महागठबंधन के सत्ता में आने से उद्योगपति बिहार से पलायन कर जाएंगे.
बहरहाल 10 लाख सरकारी नौकरियां देने के घोषणा को तमाम राजनीतिक विश्लेषक ही गेमचेंजर मुद्दा बता रहे हैं, जो कि गलत भी नहीं है. यह मुद्दा वर्तमान बिहार चुनाव में हावी है और यदि यह चुनाव परिणाम को प्रभावित करने में सफल हो जाता है, जिसकी संभावना दिख भी रही है तो न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश में ही यह मुद्दा छा जाएगा और हर राज्य में भाजपा का विपक्ष सरकारी नौकरियां देने का मुद्दा खड़ा करने लगेगा।
10 लाख नौकरियां हाल के वर्षों में मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ा सिर दर्द बढ़ाने वाला मुद्दा साबित होने के बावजूद, यह सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है : सबसे बड़ा मुद्दा बहुजनों की गुलामी है. यह वह मुद्दा है, जिसे पिछले लोकसभा चुनाव में ही छा जाना चाहिए था, किन्तु विपक्ष के निकम्मेपन की वजह से वैसा नहीं हो पाया.
यह एक क्रूर सच्चाई यह है कि वर्ग संघर्ष का खुला खेल खेलते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले 6 सालों में अपने वर्ग - शत्रु बहुजनों को समाप्त करने के लिए, जो नीतियां तैयार की हैं उसके फलस्वरूप आज इनके समक्ष गुलामी की स्थिति पैदा हो गई है. इन विगत 6 सालों में बहुजनों को समाप्त करने की रणनीति के तहत मोदी राज में श्रम कानूनों को निरंतर कमजोर करने के साथ ही नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा देकर बहुजनों को शोषण व वंचना के दलदल में फंसाने का काम जोर-शोर से हुआ है. जो आरक्षण बहुजनों के अर्थपार्जन का प्रधान स्रोत है, उस आरक्षण से महरूम करने के लिए ही एयर इंडिया, रेलवे स्टेशनों, हवाई व बस अड्डों, हॉस्पिटलों, विश्वविद्यालयों इत्यादि को निजी क्षेत्र में देने का काम जोर - शोर से हुआ है. आरक्षण के खात्मे की योजना के तहत ही सुरक्षा तक से जुड़े उपक्रमों में 100% एफडीआई की मंजूरी दी गई. आरक्षित वर्ग के लोगों को बदहाल बनाने के लिए ही 5 दर्जन से अधिक यूनिवर्सिटीयों को स्वायत्तता प्रदान करने के साथ-साथ ऐसी व्यवस्था कर दी गई है, जिससे आरक्षित वर्ग, खासकर एससी - एसटी के लोगों का विश्वविद्यालयों में शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाना एक सपना बनकर रह गया है.
कुल मिलाकर जो सरकारी नौकरियां वंचित वर्गों के धनार्जन का प्रधान स्रोत थीं, मोदी राज में उसके स्रोत आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने का काम लगभग पूरा कर लिया गया है. यह सब काम मोदी ने बहुजनों को बदहाल एवं सवर्णों को खुशहाल करने के कुत्सित इरादे से किया है.
मोदी सरकार की सवर्णपरस्त नीतियों के फलस्वरूप आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग जैसा शक्ति के स्रोतों पर 80 से 90 प्रतिशत कब्जा नहीं है. आज यदि कोई गौर से देखें तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो गगनचुंबी भवन खड़े हैं, उनमें अस्सी से नब्बे प्रतिशत फ्लैट्स सवर्णों के ही हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे- बड़े कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80 से 90 प्रतिशत दुकानें इन्हीं की हैं. 4 से 8 लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हें की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे- बड़े अखबारों से लेकर तमाम चैनल प्राय: इन्हीं के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान- उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादे पर इन्हीं का है. संसद- विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, लेकिन मंत्री- मंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्री- मंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80 से 90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं. न्यायिक सेवा, शासन – प्रशासन, उद्योग – व्यापार, फिल्म- मीडिया, धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में किसी भी वर्ग का नहीं है. इस दबदबे ने बहुजनों के समक्ष जैसा विकट हालात पैदा कर दिया है, ऐसे ही हालातों में तमाम देशों में शासक और गुलाम वर्ग पैदा हुए. ऐसी ही परिस्थितियों में दुनिया के तमाम देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए.
काबिलेगौर है कि शासक और गुलाम के बीच असल फर्क शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक - पर कब्जे में निहित रहता है. गुलाम वे हैं जो शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत रहते हैं : जबकि शासक वह होते हैं जिनका शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार रहता है. शक्ति के समस्त स्रोतों पर अंग्रेजों के एकाधिकार के कारण ही भारतवासियों को स्वाधीनता संग्राम का आंदोलन संगठित करना पड़ा. ऐसे ही हालातों में दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी कालों को शक्ति के स्रोतों पर 80 से 90 प्रतिशत कब्जा जमाए गोरों के खिलाफ स्वाधीनता की लड़ाई लड़नी पड़ी थी.
आज भारत में शक्ति के स्रोतों पर जैसा कब्जा सवर्णों का हो चुका है, वैसा दुनिया में कहीं और होता तो चुनावों में आजादी की लड़ाई, सबसे बड़ा मुद्दा घोषित होती. लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो रहा है तो उसका कारण यह है कि बहुजनों के दुर्भाग्य से इनके बीच से उभरे नेताओं में बहुजनों की गुलामी न तो समझ है और न ही उनकी मुक्ति के प्रति तड़प ! अगर तड़प होती है तो जो बिहार भारत का सबसे पिछड़ा राज्य है : जहां के बहुजन भारत के दूसरे प्रांतों के मुकाबले बहुत ही बदहाल स्थिति में है, उस बिहार में वर्तमान चुनाव में गुलामी से मुक्ति का मुद्दा टॉप पर होता!
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के संयोजक हैं।