चांद और मंगल पर कब्जे की तैयारियों में मशगूल दुनिया को अचानक एक वायरस (Corona Virus) ने घुटनों पर ला खड़ा किया है। कहीं धर्म के नाम पर नरसंहार (Genocide in the name of religion), कहीं जातियों और नस्लों के नाम पर अत्याचार, कहीं अनियंत्रित बलात्कार और व्यभिचार देखकर लगता था कि धरती से लेकर अंतरिक्ष तक कुलांचें मारती मानवता रुग्ण हो चुकी है। ऐसे में प्रकृति ने एक इशारा मात्र किया है।
गांधी ने बहुत पहले ही सभ्यता का यह भवितव्य देख लिया था। 'यह शैतानी सभ्यता है और एक दिन यह खुद को नष्ट कर देगी' - उनके ये शब्द बार-बार पढ़े जाने चाहिए।
महात्मा गांधी के मन में इस दुनिया के बरक्स एक बेहतर दुनिया की कल्पना थी। गांधी को तब भी, जब वे जीवित थे, देश की सीमाओं से बाहर अधिक महसूस किया गया। क्या गांधी की वैचारिक शक्ति को समझने और उसे स्वीकार करने की हमारी योग्यता ही नहीं है? या और कोई दुरभिसंधि है? कुछ तो यह योजनाबद्ध भी लगता है। गांधी ने 1909 में 'हिन्द स्वराज' नाम की एक छोटी-सी किताब लिखी थी। बड़ी बेचैनी से लिखी गई इस किताब पर आज देशों की सीमाएं तोड़कर भाष्य लिखे जा रहे हैं। गांधी विचार (Gandhi idea) का बीजग्रंथ बनने की इसकी पूरी यात्रा की अपनी ही कशमकश है।
इस किताब के आते ही उसे 'एक मूर्ख आदमी की रचना' कह कर भारत में खारिज कर दिया गया था। जवाहरलाल नेहरू (Jawahar Lal Nehru) ने उसे 'पढ़ने लायक भी नहीं' माना। गोपाल कृष्ण गोखले (Gopal Krishna Gokhale) ने तो यह भी कह दिया कि अभी गांधी अपने देश को नहीं जानते। 'कुछ वक्त भारत में बिता लेने के बाद वे स्वयं इस किताब को नष्ट कर देंगे,' लेकिन गांधी तीस वर्ष बाद भी उस किताब का एक शब्द तक बदलने को तैयार नहीं हुए।
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गांधी को 'हिन्द स्व राज' पर ये नसीहतें तब दी जा रही थीं जब वे शोषण के चरित्र को सत्याग्रह की चुनौती देकर दक्षिण अफ्रीका में इतिहास लिख चुके थे।
गांधी ने कहा था कि 'यह किताब किसी बच्चे के हाथ में भी दी जा सकती है क्योंकि यह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म-बलिदान को रखती है और पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है।' यह 'आत्म' शब्द गांधी की वैचारिक जीवनी की कसौटी (Test of ideological biography of Gandhi) है। संघर्ष के साथ-साथ शिक्षण और रचना उनके औजार थे और आजादी मात्र एक पड़ाव। जाना तो उन्हें कहीं दूर था, जहां देश के गांवों में देश की शक्ति को विकेन्द्रित कर देना था।
आज मानवता यह महसूस कर रही है कि मानव समाज को जैसा होना चाहिए, वैसा वह नहीं है। उसमें आमूलचूल परिवर्तन होना चाहिए। मनुष्य के लिए बेहतर समाज कैसा हो (How should society be better for humans), उसकी एक रूपरेखा गांधी ने 'हिन्द स्वराज' में खींची है। इस किताब में आधुनिक सभ्यता की आलोचना है और इसी बिन्दु पर आधुनिक समाज इस किताब, इसमें व्यक्त विचार और जिद्दी सपनों वाले गांधी से कन्नी काटता है। आखिर आप उस पर्वत से कैसे टकरा सकते हैं, जिससे टकराकर अपना ही सिर फूटना निश्चित है?
'सारी दुनिया विपरीत दिशा में जा रही है, लेकिन मुझे उसका डर नहीं है। जब अंत नजदीक आ जाता है तो पतंगा दिये के चारों ओर अधिक चक्कर लगाने लगता है। अगर पतंगे जैसी स्थिति से भारत को न भी बचाया जा सके, तो भी भारत और उसकी मार्फत सारी दुनिया को इस नियति से बचा लेने की मेरी कोशिश अंतिम सांस तक चलती रहेगी, यही मेरा धर्म है।'
बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में लिखे गए इन बेचैन शब्दों को 21वीं सदी में समझने के लिए जिस बारीकी की जरूरत पड़ती है, उसके अभाव में कोई आश्चर्य नहीं कि हम शब्दों की सीमाओं में ही उलझे रह जाएं। आज की दुनिया और समाज बाजार बनते जाने को अभिशापित हैं।
सब कुछ हमें बाजार में उपलब्ध कराये जाने के दावे हवा को प्रदूषित किये हुए हैं। यह अलग बात है कि बाजार अब केवल व्यापार नहीं करता। पहले वह हमारी जरूरतें गढ़ता है फिर उनकी पूर्ति करने का पूंजीवादी खेल खेलता है। बड़ी बारीकी से देखकर गांधी ने कहा था कि 'यह शैतानी सभ्यता है' और 'एक दिन यह खुद को नष्ट कर देगी।' 'हिन्द स्वराज' के ये दो वाक्य आज की दुनिया के सामने साफ चेतावनी बनकर उभरे हैं। यह सभ्यता खुद को नष्ट करने के मार्ग पर कई पड़ाव तय कर आई है।
कैसी कारसाजी है? पहाड़ों को काट डाला, नदियों को सुखा डाला, धरती को छेद डाला, घर को दुकान और नगर को बाजार बना डाला। बच गये गांव, तो उन्हें निर्जन कर डाला। 'लॉक डाउन' के इन दिनों में शहरों के सन्नाटे पर नजर डालिये। अगर कहीं दो-चार पेड़ बचे दिखें, तो उनके आसपास क्षणभर ठहरकर सुनिये। कुछ बची रह गई चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ेगी। मनुष्य की व्यस्तता और विकास के स्वर जरा चुप हैं, तो सुनिये, प्रकृति का अपना राग सुनाई पड़ेगा।
देखे-अनदेखे जीवों की गतिविधियां, पत्तों की सरसराहट और दूर-दूर तक व्याप्त शांति का सन्नाटा सुनकर लगेगा कि अरे, हम ही नहीं हैं, ये भी हैं। हवा में ताजगी मिलेगी। रेलों, बसों और दुपहिया-चार पहिया वाहनों के चक्के थम गये हैं तो डीजल-पेट्रोल और उनके धुएं की गंध गायब है। वातावरण में वायरस के खौफ के साथ-साथ गहरी ली जा सकने वाली सांसों का सुख भी है। अपनी बेतरह और बेहिसाब भागमभाग और अनिर्दिष्ट उद्देश्यों तक अपनी पहुंच बनाने की जद्दोजहद ने मनुष्य को मशीन में तब्दील कर दिया है। ऐसा नहीं है कि आज चिड़ियों की जो आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, वे आवाजें थीं ही नहीं; वे थीं, लेकिन विकास के गगनभेदी नाद तले प्रच्छन्न, अनसुनी और आभासित-सी थीं।
अनियंत्रित बसावट और गांव के शोषण पर आधारित शहरों के विकास की तरफ देखकर गांधी ने चेताया था कि देशों की देह पर ये थोड़े चमकते और ज्यादा बजबजाते हुए शहर मत खड़े करो। एक दिन ये शहर देश की देह पर फोड़े की तरह दुखेंगे। दुनिया तो गांधी को अब पढ़ रही है, समझने की कोशिश कर रही है, लेकिन भारत ने तो गांधी को पैदा किया है। इस मिट्टी में गांधी का खून और पसीना, चिन्तन और विचार, योजनाएं और काम सब शामिल हैं। इस मिट्टी को तो विश्व-बिरादरी का पथ-रोशन करना था, लेकिन हमने उसी शैतानी सभ्यता का अंधानुगामी बनना स्वीकार किया।
न केवल स्वीकार किया, बल्कि उसी पागल दौड़ में शामिल भी हो गये, जिसके खिलाफ कहे गये गांधी के शब्द कालांतर में ब्रह्मवाक्य साबित हुए—'अपनी आवश्यकताएं बढ़ाते रहने की पागल दौड़ में जो लोग आज लगे हैं, वे मान रहे हैं कि इस तरह अपने सत्व और सच्चे ज्ञान में वृद्धि कर रहे हैं। उन सबके सामने यह सवाल पूछने का समय एक दिन जरूर आयेगा कि ये हम क्या कर बैठे? एक के बाद अनेक संस्कृतियां आईं और गईं, लेकिन प्रगति की बड़ी-बड़ी बड़ाइयों के बावजूद भी मुझे बार-बार पूछने का मन होता है कि यह सब किसलिए?' गांधी के दिये इस आलोक की लौ हमने अपने ही हाथों से बुझा दी और अंध-विकास की पागल दौड़ में खुद को विश्व-विनाशक बाजार के हवाले कर दिया।
इधर शैतानी और बाजारू सभ्यता का दुर्निवार सत्य पांव जमा कर खड़ा है। बचने की राह तलाशें या नहीं, यह सभ्यता सोचे, क्योंकि विकास तो उसका ही होना है। सत्यशोधक की भूमिका के साथ न्याय करके, अपने प्रति अन्याय पीकर गांधी जा चुके हैं। पर कहते हैं कि विचार नहीं मरते। एक विचार पुंज है, जिसमें जीवन की सभी संभावनाएं निहित हैं। देश की व्यवस्था पर यह लांछन है कि वह अपने लिए विकास का जब कोई मॉडल ढूंढती है तो उसे केवल गांधी का मॉडल नहीं जमता। सत्य नहीं जमता, अहिंसा नहीं जमती, इसलिए यह सब कहने वाला भी नहीं जमता। यह सब होते हुए भी, वह गांधी ही है, 'जो मरने के बाद भी अपनी कब्र से बोलूंगा' कहते हुए इस सभ्यता को रसातल में जाने से रोकने की अपनी हर कल्पना लिखकर जाता है। अपने देशवासियों को खाने, पहनने, रहने... यहां तक की पाखाना जाने का ढंग भी लिख कर बताता है। सरकारें तो कुछ नहीं मानतीं, पर समाज भी क्यों नहीं मानता, यह बड़ा सवाल है?
प्रेम प्रकाश
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