काबिले गौर है कि विचारों का निर्माण करने वाली मीडिया में सक्रिय लोग काफी पढ़े - लिखे लोग होते हैं, जो देश - समाज सेवा का वृहत्तर संकल्प लेकर इस क्षेत्र में उतरे हैं. अगर अपनी लिखाई - पढ़ाई का इस्तेमाल महज रोजी रोटी के लिए करना होता तो वे अपने ज्ञान के बल पर कोई और पेशा भी ग्रहण कर सकते थे. किन्तु पत्रकारीय कर्म का एक अलग सुख है, जिसका अनुमान प्रोफ़ेसरी, डॉक्टरी, इंजीनियरिंग इत्यादि से जुड़े लोग नहीं लगा सकते : लगा सकता है दुसाध जैसा कोई व्यक्ति.
मुझे अपनी एक किताब प्रकाशित होने पर जितना सुख मिलता है, उससे कहीं ज्यादा सुख एक लेख छपने पर मिलता है, क्योंकि किताब की पहुँच कुछ सौ लोगों तक होती है, जबकि लेख लाखों लोगों तक पहुँचता है.
सामयिक मुद्दों पर हजार डेढ़ हजार शब्दों में जो बात विपुल संख्यक लोगों तक को पहुंचती है, वह किताब के निष्कर्ष जैसी होती है. इस की सत्यता जाँचने के लिए मैं आज का अपना प्रकाशित लेख पढ़ने की गुजारिश करूँगा.
यह लेख ऐसा है जिस पर सही किताब लिखने के लिए दुसाध को तीन महीने तो बाकी के लिए साल - छः महिना लग जायेंगे.
Journalism is the highest level of intellectual action
इतना कुछ कहने का मेरा आशय यह है कि पत्रकारिता सर्वोच्च स्तर का बौद्धिक कर्म है, जिस कारण सामाजिक परिवर्तन की दिशा में महानतम योगदान करने वाले मार्क्स - अम्बेडकर - गांधी- कांशीराम इत्यादि के साथ ही ढेरों नेताओं ने अपनी बात अवाम तक पहुचाने के लिए परत्रकारिय कर्म का सहारा लिया. अब सवाल पैदा होता है क्या ऐसे महत पेशे से जुड़े लोग सहजता से
फिर आप कैसे मान लेते हैं कि मेन स्ट्रीम मीडिया वाले बिकाऊ हैं, जबकि मुख्यधारा के पत्रकार ऐसे सवर्ण समुदाय से होते हैं, जिसका शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार है! बिकाऊ हो सकते हैं अशक्त सामाजिक समूहों से आये पत्रकार.
तो क्या मेरे तर्कों से आपके मन में यह बात जमती है कि सवर्ण पत्रकार, जिनका मीडिया में प्रायः 98 प्रतिशत उपस्थिति है, सहजता से बिक नहीं सकते! लेकिन आप मेरी बात से सहमति जताने में झिझकेंगे, क्योंकि मीडिया सरकार का भोंपू बनी हुई है, उसके हर काम को युक्ति संगत ठहराने का प्रयास करती है: भूत -प्रेत, साधु - संतों की बातों को अधिक से अधिक स्पेस देती है!
तो मीडिया बिकाऊ है, सत्ता के गोद में बैठी हुई है, यह ख्याल इसलिए आता है क्योंकि वह सत्ता का भोंपू बनी हुई है.
अब सवाल पैदा होता है क्या मीडिया यह सब पैसे के लालच में कर रही हैं? आप कहेंगे,' हां'. लेकिन आपका यह ख्याल काफी हद तक भ्रांत है, यही बतलाने के लिए इस लेख का आधा से अधिक प्रारंभिक हिस्सा खर्च करके के निष्कर्ष दिया हूँ कि मीडिया में लोग देश - समाज की सेवा का उच्च भावना लेकर प्रवेश करते हैं. इसलिए सवर्ण पत्रकार सत्ता के गुलाम नहीं हैं, : फिर भी वे सत्ता के संगी बने हुए हैं तो इसलिए कि वर्तमान सरकार का जो लक्ष्य है उससे इनकी सहमति है, इसलिए वे स्वेच्छा से सरकार का भोंपू बने हुए हैं.
What is the goal of Modi government
अब मोदी सरकार का लक्ष्य क्या है, यदि आप दुसाध को पढ़ते हैं तो आप को जरूर पता होगा. अगर नहीं पता है तो मेरे टाइम लाइन पर जाइये और पढ़िये - ' मुक्ति की लड़ाई में उतरने से भिन्न: मोदी ने बहुजनों के समक्ष नहीं छोड़ा हैं कोई विकल्प '!
सच्ची बात है यह है कि मोदी सरकार हिंदू राष्ट्र निर्माण की आड़ में सबकुछ इस देश के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग अर्थात सवर्णों के हाथ में देने के लिए जुनून की हद तक आमादा है. उसकी समस्त गतिविधियों का ही लक्ष्य सवर्णों को अतिसंपन्न और बहुजनों को विशुद्ध शक्ति - हीन और अधिकार विहीन गुलाम में परिणत करना है.
मोदी सरकार का जो लक्ष्य है, वही मीडिया में छाए सवर्णों का है, इसलिए वे मोदी सरकार का भोपू बने हुए हैं: सभ्यता का गियर बदलकर वे आधुनिक भारत को राम राज्य युग में ले जाना चाहते हैं. अगर वे ऐसा कर रहे हैं तो उसके पीछे उनका वर्गीय हित है, जिसके दायरे में आने वाले लोगों की 20 - 25 करोड़ से कम नहीं होगी. इतनी बड़ी संख्या में यूरोप के कई देश आ जायेंगे. तो सवर्ण मीडिया कर्मी उस के लिए काम कर रहे हैं, जिसकी आबादी कई देशों के बराबर और इतनी बड़ी आबादी वाले वर्ग के हित में हद से गुजर जाना मेरे विचार से गलत नहीं है. इसलिए मोदी सरकार और मीडिया को गाली गलौज करने के बजाय आप भी अपने वर्गीय हित में यथासाध्य जो कर सकते हैं, करें!
Nb: रवीश कुमार युनिवर्सिटी के जो छात्र 'गोदी मीडिया' का जाप करते रहते हैं उनसे गुजारिश है कि मेरे इस लेख को अतिरिक्त मनोयोग पूर्वक पढ़ें और मुमकिन हो तो इसे 'गोदी मीडिया' के पॉपुलर कांसेप्ट के जन्मदाता तक पहुंचा दें!
- एच एल दुसाध