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मनुष्यता ही मनुष्य का धर्म,  मनुष्यता ही इतिहास भूगोल

रवींद्र का दलित विमर्श -एक

पलाश विश्वास

(सत्ता की राजनीति हमारे इतिहास, जीवन दर्शन, संस्कृति, मातृभाषा, लोक, जनपद और जीवन यापन पर हावी है। जिन शाश्वत मूल्यों पर आधारित है भारत की सभ्यता, उन्हें सिरे से बदलने की कोशिश हो रही है। ब्रिटिश हुकूमत के साम्राज्यवाद के खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध महासंग्राम ने इस देश को एकसूत्र में बांधा है। इससे पहले भारत अलग अलग राष्ट्रीयताओं के खंडित भूगोल का समूह मात्र था। स्वतंत्रता, संप्रभुता और लोकतंत्र की दिशा में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विरासत हमारी नींव है। भारतीय रेलवे नेटवर्क, इंडियन स्टैंडर्ड टाइम, भारतीय सिनेमा, भारतीय रंगकर्म, भारतीय संविधान के साथ साथ भारत की संत फकीर बाउल गुरु परंपरा में विविधता, बहुलता के मध्य एकता और सहिष्णुता के भारत का निर्माण हुआ जिसका इतिहास पिर बौद्धमय है। हड़प्पा मोहनजोदोड़ो की सिंधुसभ्यता, वैदिकी सभ्यता और बौद्धमय भारत के इतिहास और विकास के मध्य भारतीय जीवन दर्शन का लोकतंत्र है। रवींद्र साहित्य की भावभूमि यही है, जो दरअसल आधुनिक भारत की परिकल्पना है, जिसका अंतिम लक्ष्य समानता और न्याय है। असहिष्णुता, घृणा, हिंसा की मुक्तबाजारी कारपोरेट नरसंहार संस्कृति में जब भारतीय सभ्यता, इतिहास, विरासत और लोकतंत्र, स्वतंत्रता और संप्रभुता के साथ राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए गंभीर चुनौतियां हैं, तब रवींद्र के व्यक्तित्व और कृतित्व को मिटाने के लिए विभाजनकारी धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रवाद की सुनामी चली है।

मैंने अस्पृश्यता, असमानता और अन्याय के खिलाफ मनुष्यता और भारतीयता के रवींद्र दर्शन पर एक पुस्तक 2002-2003 के दौरान लिखी थी, जो प्रकाशित नहीं हो सकी। इस बीच मैंने अपनी तमाम प्रकाशित अप्रकाशित रचनाओं और संदर्भ पुस्तकों को पैक अप की तैयारी में कबाड़ीवाले को दे दिया है क्योंकि बहुत जल्दी किराये का यह दड़बा छोड़ना है। संजोग से रवींद्र का दलित विमर्श की पांडुलिपि की कुछ टुकड़े बचे हुए मिल गये

हैं, जो अधूरे हैं। नये संदर्भों और सवालों के परिप्रेक्ष्य में मैं कोशिश कर रहा हूं कि वह विमर्श कमसकम मेरे ब्लागों के जरिये आपको शेयर करुं। उम्मीद है कि आप इस विमर्श में सहभागी बनेंगे। यह उपक्रम अमेरिका से सावधान की तरह इंटरएक्टिव हो, मेरी कोशिश यही रहेगी। मेरे पास फिलहाल कोई काम नहीं है तो मैंने वक्त बिताने का यह बहाना खोज लिया है, ऐसा समझकर विद्वतजन मेरे दुस्साहस का अन्यथा नहीं लेंगे, उम्मीद है। )

आर्यावर्त का भूगोल भारत का भूगोल नहीं है। भारत के भूगोल को बदलने में गुरखा और डोगरा शासकों की जैसी भूमिका रही है, जैसे तमिलराजाओं का दक्षिण पूर्व एशिया तक साम्राज्य विस्तार रहा है, जैसे कनिष्क और समद्र गुप्त के समय भारत का भूगोल रहा है या सम्राट अशोक या चंद्रगुप्त के समय भारत का भूगोल रहा है या पठानों की सल्तनत और मुगलिया हिंदुस्तान का भूगोल रहा है, वैसा कोई भूगोल उसीतरह भारत का नक्शा नहीं है जैसे सिंधु सभ्यता में रेशम पथ के समूचे भूखंड, भूमध्य सागर,  मध्यएशिया और डेनमार्क नार्वे तक विस्तृत भारत के इतिहास का भूगोल बारत का नक्शा नहीं है। आर्यावर्त में तो समूचा गायपट्टी भी नहीं है। विंध्य और अरावली के उत्तर तक आर्यावर्त सीमाबद्ध रहा है, जिसमें बंगाल, ओड़ीशा समेत पूर्वोत्तर भारत कभी नहीं रहा है। वैदिकी सभ्यता का भूगोल यही रहा है। जबकि बौद्धमय भारत का भूगोल लगभग समूचा भारत और तिब्बत चीन से लेकर दक्षिण पूर्व एशिया तक विस्तृत रहा है और इसीतरह तमिल अनार्य राजाओं का साम्राज्य लगभग समूचे दक्षिण पूर्व एशिया है, जो कंबोडिया और वियतनाम तक विस्तृत है।

जाहिर है कि भारतीय इतिहास सिर्फ वैदिकी और आर्य सभ्यता का इतिहास नहीं है। यह सिर्फ रामायण महाभारत का भूगोल भी नहीं है और न वेदों, उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों तक सीमाबद्ध है भारत, जैसा कि अब इतिहास बदलने वाले लोग साबित करने का उपक्रम चला रहे हैं। इस इतिहास का एक बड़ा हिस्सा प्राचीन भारत की सिंधु सभ्यता है तो बौद्धमय भारत के बिना यह इतिहास भूगोल अधूरा है।

वेद,  उपनिषद,  पुराण और स्मृतियां बेशक भरतीय इतिहास और संस्कृति के महत्वपूर्ण अध्याय हैं, लेकिन वह अनार्य,  द्रविड़,  तमिल,  शक,  हुण,  कुषाण,  खस,  गुरखा,  डोगरी,  अहमिया, बंग, उत्कल सभ्यताओं की विविधताओं के बिना अधूरा है।

रवींद्रनाथ विविधता और बहुलता, सहिष्णुता, मनुष्यता, सभ्यता, संस्कृति और विश्वबंधुत्व के शायद सबसे बड़े प्रवक्ता रहे हैं और वैसे ही वे भारतीयता के सबसे बड़े भविष्यद्रष्टा भी थे। जिस धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और अस्मिता राजनीति के तहत उन्हें अस्पृश्य बहिस्कृत करने का कार्यक्रम है, वह कोई नया उपक्रम भी नहीं है।

बंगाल के नवजागरण के समय से यथास्थिति की जन्मजात मनुस्मृति स्थाई बंदोबस्त प्रगति के खिलाफ लगातार सक्रिय है, उन्होंने रवींद्र नाथ को शुरु से अस्पृश्य बना रखा है।  

पश्चिम ने रवींद्रनाथ को नोबेल पुरस्कार देने के तुरंत बाद उन्हें भारतीय सभ्यता की संत परंपरा में शामिल किया हुआ है। गीतांजलि के लिए उन्हें मिले नोबेल पुरस्कार के बाद यूरोप के तमाम अखबारों में एक भारतीय संत रवींद्रनाथ की चर्चा होती रही है, जिनका धर्म मनुष्यता है।

रवींद्रनाथ के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए मनुष्यता के इस धर्म को समझना बेहद जरुरी है, जिसकी जड़ें मनुस्मृति विरोधी निराकार एकेश्वरवादी ब्रहमसमाज आंदोलन और बंगाल में सतीप्रथा, बाल विवाह, बहुविवाह जैसी कुरीतियों का अंत करने वाले पितृसत्ता के विरुद्ध स्त्री मुक्ति आंदोलन के साथ साथ जल जंगल जमीन के हकहकूक के लिए भारत के आदिवासियों, बहुजनों, किसानों के जनविद्रोहों और भारत की एकताबद्ध साम्राज्यवाद विरोधी स्त्रतंत्रता संग्राम और साधु,  संत, फकीर, बाउल की सामंतवाद विरोधी मनुष्यता के दर्शन और बौद्धमयभारत में हैं।

1930 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में मनुष्य के धर्म शीर्षक से हिबर्ट लेक्चर में विश्वकवि गुरुदेव रवींद्रनाथ ने विशवबंधुत्व के इस मनुष्यता के धर्म पर विस्तार से अपना वक्तव्य रखा है, जिसे बाद में उन्होंने पुस्तकाकर में प्रकशाति किया है। भारतीय इतिहास, साहित्य और संस्कृति के छात्रों के लिए यह एक अनिवार्य पाठ है।

विकीपीडिया के मुताबिकः

The Religion of Man (Manusher Dhormo) (1931) is a compilation of lectures by Rabindranath Tagore,  edited by him and drawn largely from his Hibbert Lectures given at Oxford University in May 1930.

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