जबसे मनुष्य अस्त्तिव में आया है, तबसे व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य प्रकृति पर आधिपत्य जमाना रहा है। प्रकृति पर आधिपत्य जमाने की इस प्रक्रिया को ही मनुष्य ने ‘‘विकास‘‘ कहा है। पर्यावरण प्रदूषण (environmental pollution) सारी दुनिया के लिए एक गम्भीर रूप ले चुका है। प्रदूषित प्राकृतिक पर्यावरण सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण कुप्रभावित करते हैं और सामाजिक-सांस्कृतिक जटिलताएं, प्राकृतिक पर्यावरण पर कुप्रभाव डालती हैं। इससे मानव सभ्यता को खतरा (Threat to human civilization) पैदा हो गया है।
पर्यावरण को जो एक शब्द से पहले ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है, वो है ‘‘विकास‘‘। विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य ने पर्यावरण का बुरा हाल कर दिया है और यह पिछले कई दशकों से चिन्ता का कारण बना हुआ है। विकास की रफ्तार का पर्यावरण पर हो रहे अत्याचार से निपटने के लिए दुनिया के सभी देश कोशिश कर रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ महीनों से पर्यावरण में एक अनोखा बदलाव आ गया है, और इस आकस्मिक बदलाव का कारण बना कोरोना वायरस (कोविड-19)।
इस जानलेवा वायरस की शुरूआत चीन के वुहान शहर से हुई और थोड़े ही समय में इसने दुनिया में उथल-पुथल मचा कर रख दिया। दिसम्बर 2019 में यह वायरस पहली बार वुहान शहर में आया और तालाबंदी अर्थात लॉकडाउन की शुरूआत वुहान शहर से ही हुई। लेकिन तब तक यह खतरनाक वायरस दुनिया के अलग-अलग देशों तक पहुंच गया था। इटली, ईरान, स्पेन, अमेरिका, फ्रांस, भारत और दुनिया के अनेक बडे राष्ट्र इसके दंश को झेलते हुए तबाह हो रहे है। संक्रमण को रोकने के लिए तालाबंदी और सामाजिक दूरी को ही सबसे महत्वपूर्ण हथियार माना गया है।
तालाबंदी का कदम इसलिए उठाया गया कि संक्रमण को रोका जा सके और कोविड-19 के कारण हो रही मौतों के सिलसिले को रोका जा सके। हालाकि इन पाबंदियों का एक नतीजा ऐसा भी सामने आया जिसके बारे में किसी ने शायद सोचा भी न था। यह नतीजा पर्यावरण सुधार के रूप में सामने आया।
दिल्ली को दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में गिना जाता है लेकिन 21 दिन के लॉकडाउन के बाद वहां की आबोहवा एकदम बदली नजर आयी। इतना साफ और नीला आसमान दिल्ली में रहने वाले बहुत से लोगों ने शायद पहली बार देखा हो। सड़कें सुनसान जरूर दिखीं लेकिन यमुना के निर्मल पानी और पक्षियों के चहचहाने की आवाज दिल को छू जाने वाली लगी।
आश्चर्य की बात यह भी कि जो काम सरकार हजारों करोड रूपये खर्च करने के बावजूद भी न कर पायी वह लॉकडाउन के 21 दिनों ने कर दिखाया।
ऐसे ही नजारे दुनिया के और कई महानगरों में भी देखने को मिले हैं। इसमें कोई शक नहीं कि कोविड-19 दुनिया के लिए एक बड़ी त्रासदी बनकर आया है और इसने बेशुमार लोगों को निगल लिया है। अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, फ्रांस, जैसी महाशक्तियां भी इसका सामना कर पाने में खुद को बेबस पा रही हैं। लेकिन इन चुनौतियों के बीच एक बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि लॉकडाउन प्रकृति के घावों पर मरहम लगाने में काफी कामयाब साबित हुआ है। कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए जो कदम उठाये गये उनकी पर्यावरण को सुधारने में एक बड़ी भूमिका रही।
लॉकडाउन के कारण विश्व भर में तमाम फैक्ट्रियां बंद हैं। अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था जरूर चरमराई है और परिणामस्वरूप लाखों करोड़ों लोग बेरोजगार भी हो गये हैं। यह दुख और सहानुभूति का विषय अवश्य है लेकिन इसका एक सकारात्मक प्रभाव यह जरूर हुआ है कि विश्व स्तर पर कार्बन उत्सर्जन लगभग उतने समय के लिए थम सा गया है। विकसित देशों में कार्बन उत्सर्जन में भारी गिरावट देखने को मिली है।
वायु प्रदूषण का मनुष्य, जीव-जन्तुओं व पृथ्वी पर जीवन को बनाये रखने वाले हरे पेड-पौधों पर अत्यन्त प्रतिकूल असर होता होता है। सल्फर डाई-ऑक्साइड और आद्यौगिक कचरें से मृत्यु दर, रोगों और अपंगता में वृद्धि होती। नाइट्रोजन डाई-ऑक्साइड व ओजोन गैस सांस लेने में तकलीफ पैदा करने के अलावा आंख व गले में जलन पैदा करती है। ओजोन गैस से सिर दर्द भी हो सकता है। जबकि कार्बन मोनो-ऑक्साइड खून में ऑक्सीजन को हटा कर स्वयं मिल जाती है। जिससे हृदय और मस्तिष्क के रोग हो सकते हैं। सीसा से हड्डियों पर बुरा असर पडता है और जिगर व गुर्दा प्रकिया प्रभावित होती है।
लॉकडाउन के दौरान वाहनों और फैक्ट्रियों के बंद रहने से इन विषाक्त पदार्थों पर पर्यावरण ने काबू पा लिया और हवा सांस लेने लायक बन सकी।
स्थाई नहीं है लॉकडाउन का सकारात्मक परिणाम | Positive result of lockdown is not permanent
अमेरिका के न्यूयार्क शहर में पिछले साल की तुलना में इस साल प्रदूषण 50 प्रतिशत कम हो गया है। चीन में भी कार्बन उत्सर्जन में 25 फीसदी की कमी आयी है। चीन के 6 बडे पॉवरहाउस में 2019 के अन्तिम महीनों से ही कोयले के इस्तेमाल में 40 फीसदी की कमी आयी है। पिछले साल के मई-जून के दिनों की तुलना में चीन के 337 शहरों की हवा की गुणवत्ता में 11.4 फीसदी का सुधार हुआ है।
हालांकि कुछ लोगों का यह भी मत है कि इस महामारी को पर्यावरण में अनुकूल परिवर्तन के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि यह अस्थाई उपचार है। लॉकडाउन महज थोड़े समय के लिए है और इसका सकारात्मक प्रभाव बहुत लम्बे समय तक नहीं रहने वाला। साथ ही यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि जिस तरह मौजूदा समय में जान बचाना लोगो की प्राथमिकता बना हुआ है उसी तरह की पहल पर्यावरण को बचाने के लिए भी की जानी चाहिए।
जिस प्रकार इस महामारी से लड़ने के लिए पूरी दुनिया एकजुट है उसी प्रकार की इच्छा शक्ति और निश्चय की जरूरत पर्यावरण को स्वच्छ बनाने के लिए होनी चाहिए।
आज की परिस्थति कुछ ऐसी है कि भोजन, वस्त्र और आवास की अनिवार्य आवश्यकता से कहीं पहले पर्यावरण को सुरक्षित रखने की आवश्यकता है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के अत्यन्त विकराल एवं विनाशकारी नतीजे सामने आ रहे हैं। अगर इन्सान ने अब भी प्रर्यावरण को सुधारने और प्राकृतिक तरीके से जीवन जीने की शुरूआत नहीं की तो आगे के हालात कहीं ज्यादा गम्भीर हो सकते हैं।
डॉ. मो. शारिक,
असिस्टेंट प्रोफेसर, शारीरिक शिक्षा विभाग,
ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय, लखनऊ।