गोटाबाया राजपक्षे की प्रचंड जीत सिंहली राष्ट्रवाद की बड़ी जीत है (Gotabaya Rajapaksa's fiery victory is a major victory for Sinhalese nationalism.) - जो श्रीलंकाई मतदाताओं के बीच पैदा हुए धार्मिक और जातीय ध्रुवीकरण (Religious and ethnic polarization among Sri Lankan voters) की तरफ भी इशारा करती है।
एम. के. भद्रकुमार
शनिवार को श्रीलंका में हुए राष्ट्रपति चुनाव (Presidential elections held in Sri Lanka) में गोटाबाया राजपक्षे (Lieutenant Colonel Nandasena Gotabaya Rajapaksa) की प्रचंड जीत हुई। उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी सजीथ प्रेमदासा को 13 लाख मतों पछाड़ दिया, गोटाबाया को 52.25 प्रतिशत मत मिले जबकि उनके प्रतिद्वंदी को 41.5 प्रतिशत मत मिले हैं। निःसंदेह यह सिंहली राष्ट्रवाद की जीत (Sinhalese nationalism victory) है। साथ ही यह श्रीलंका के मतदाताओं के बीच पैदा हुए धार्मिक और जातीय ध्रुवीकरण का नतीजा भी है।
यदि श्रीलंका के 'सांप्रदायिक मानचित्र' को 'मतदाता मानचित्र' के साथ रख कर देखा जाए तो पता चलता है कि गोटाबाया के लिए जिन क्षेत्रों से भारी मतदान हुआ हैं, वे लगभग पूरी तरह से उन क्षेत्रों को ओवरलैप करते हैं जहाँ बौद्ध आबादी का एक बड़ा हिस्सा रहता है। इसके विपरीत, उन्हे उन क्षेत्रों में भारी हार का सामना करना पड़ा जहां हिंदू और मुस्लिम की बड़ी आबादी रहती हैं।
विडंबना यह है कि प्रेमदासा एक भी चुनाव उस जिले से नहीं जीते जहां बौद्ध आबादी बहुमत में हैं, जबकि उन्होंने तमिल और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भारी जीत हासिल की है। जब हम देश के उत्तर और उत्तर-पूर्व के तमिल और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के चुनावी जिलों में हुए मतदान के पैटर्न को देखते हैं तो पाते हैं कि वास्तव में ध्रुवीकरण बड़ा तेज था :
जाफना-प्रेमदासा (83.86 प्रतिशत), राजपक्षे (6.24 प्रतिशत); वन्नी-प्रेमदासा (82.12 प्रतिशत), राजपक्षे (12.27 प्रतिशत);
अगर दूसरी तरफ दक्षिण, पश्चिम और मध्य प्रांतों सिंहली बौद्ध बहुल चुनावी ज़िलों को देखें तो वे सभी समान रूप से राजपक्षे के समर्थन का बड़ा आधार बने हैं जहां उन्हें: हंबनटोटा में (66.17 मत मिले हैं); मटारा में (67.25 प्रतिशत); गाले में (64.26 प्रतिशत); मोनारगला (65.34 प्रतिशत); रत्नपुरा (59.93 प्रतशत); कलूतर (59.49 प्रतिशत); बदुल्ला (49.29 प्रतिशत); केगेल (55.66 प्रतिशत); गम्पहा (59.28 प्रतिशत); कोलंबो (53.19 प्रतिशत); कैंडी (50.43 प्रतिशत); मातले (55.37 प्रतिशत); कुरुनगला (57.90 प्रतिशत); पुट्टलम (50.83 प्रतिशत); पोलोनारुवा (53.01 प्रतिशत); और, अनुराधापुरा में (58.97 प्रतिशत) मिले हैं।
स्पष्ट रूप से, राजपक्षे (gotabaya rajapaksa sri lanka) को तमिल और मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने बड़ी ही मजबूती से खारिज कर दिया गया है, जबकि इसके विपरीत ईसाई चर्च ने लगता है एक व्यावहारिक रवैयाअखितयार किया है।
पहली नज़र में श्रीलंका को मिली नई सरकार, भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लहर के ही समान है। यदि भारत के सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के भीतर पाकिस्तान और 'हिंदू राष्ट्र' के संदर्भ में अपने राष्ट्रवादी लोकाचार को परिभाषित करने की प्रवृत्ति है, तो औसत सिंहली बौद्ध राष्ट्रवादी खासकर दक्षिण क्षेत्र को, अपने देश में बचे थेरवाद बौद्ध धर्म के अंतिम गढ़ के रूप में देखता है जो भारत और हिंदू धर्म के खिलाफ खुद को परिभाषित करता है।
अगर इसे ऐसे कहा जाए कि संघ की धारणा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुल पर चढ़कर भारत और श्रीलंका के बीच एक संबंध स्थापित करना संभव है तो यह उनका भोलापन तो कहलाएगा ही साथ ही एक खराब धारणा भी।
उनके भीतर न जाने कैसे एक धारणा बन गई है कि एक भारतीय-अमेरिकी साजिश के तहत 2015 में महिंद्रा राजपक्षे सरकार को ‘शासन परिवर्तन’ परियोजना के तहत सत्ता से उखाड़ दिया गया था। उनकी यह धारणा बदल नहीं पा रही है। यह धारणा तो जैसे मिट्टी में दफन पड़ी है।
इस बीच, सिंहली बौद्ध लोगों की सामूहिक चेतना में यह बस गया है कि गोटाबाया राजपक्षे को वोट विदेशी प्रभुत्व से मुक्त करने और देश की स्थिरता और स्वतंत्रता का वोट देना है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि पिछले साल हुए आतंकवादी हमलों ने ज़ेनोफोबिया को हवा दी थी, जिससे राजपक्षे के पक्ष में समर्थन की यह सुनामी आई है।
श्रीलंकाई तमिल समुदाय को भारी हार का सामना करना पड़ा है। कोलंबो में सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग ने और दिल्ली में सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग ने विस्थापित श्रीलंकाई तमिल को आज खुद के भरोसे छोड़ दिया है। उनके लिए आगे कठिन समय है।
जब बहुमतवाद बढ़ता है, जैसा कि भारत में भी देखने को मिला, उससे अल्पसंख्यक को चोट पहुँचती हैं। ऐसा कोई तरीका नहीं है कि राजपक्षे श्रीलंका में फेडरल सिद्धान्त को स्वीकार करेंगे। तमिल समुदाय को इसके गंभीर प्रभावों को समझना होगा और जो सामने है उसके साथ रहना सीखना होगा। दिल्ली उनके मुद्दों को उठाएगी इसकी संभावना न के बराबर है।
जाहिर है, राजपक्षे की जीत मोदी सरकार की विदेश नीति के लिए गंभीर चुनौती है। इसके ऊपर ईमानदारी से पुनर्विचार करने और एक कठोर रास्ते की दरकार है। पड़ोसी देश की राजधानियों में सत्ता में ‘पसंदीदा’ सरकार रखने की मोदी सरकार की कोशिश या कारगुजारी स्पष्ट रूप से अस्थिर है। उनका यह दृष्टिकोण नेपाल में और अब श्रीलंका में विफल हो गया है।
यह एक थोड़ी सी सहूलियत है कि दिल्ली माले में एक 'भारतीय समर्थक' राजनेता के साथ काम कर रही है। वास्तव में, पड़ोसी देशों में ‘भारत समर्थक’ या ‘चीन समर्थक’ के रूप में राजनेताओं को परिभाषित करना बहुत ही गलत किस्म का प्रयास है। दिल्ली को चीन के उदाहरण से सीखना चाहिए कि पड़ोसी देशों में जो भी चाहे सत्ता में आए, हमें उससे निपटना या उनसे रिश्ता कायम करना आना चाहिए।
पश्चिमी मीडिया इस पागलपन को गला फाड़-फाड़ कर बोलेगा कि श्रीलंका अब चीन की दायरे में आ गया है। कई भारतीय विश्लेषकों बिना यह महसूस किए कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र में चीन के वैध हित हो सकते हैं और इसके कार्य भारत केंद्रित नहीं हैं, फिर भी वही राग अलापेंगे।
इस पृष्ठभूमि में दिल्ली को भूराजनीतिक वास्तविकता के साथ सामंजस्य स्थापित करना पड़ सकता है क्योंकि ऐसा हो सकता है कि राजपक्षे शायद चीन को खेलने का मैदान प्रदान करे।
कोलंबो में राजपक्षे की नई सरकार (gotabaya rajapaksa political party) के तहत, चीन की बेइंतहा वित्तीय ताक़त और आक्रामक व्यापारिक परम्पराओं को देखते हुए, श्रीलंका में चीनी उपस्थिति की महत्वपूर्ण विस्तार की उम्मीद की जा सकती है।
हालांकि, आखिरकार हमें श्रीलंकाई अभिजात वर्ग पर भरोसा करना होगा कि वह अपने देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता को बनाए रखेगा। राजपक्षे जैसे कठिन राजनीतिज्ञों को चारों ओर से धकेला नहीं जा सकता है क्योंकि वे अपनी ‘माटी के पूत’ हैं और चीन को यह बात अच्छी तरह से पता है।
इस पूरी चर्चा का लब्बोलुआब यह है कि राजपक्षे प्रधानमंत्री मोदी से कम 'मजबूत' नहीं हैं। राजपक्षे सरकार के प्रति हुक्मरानी रवैया अपनाना मूर्खतापूर्ण होगा। इस तरह की कोई भी कोशिश बगावत पैदा करेगी। हमारी सफलता राजपक्षे को साथ लेने में है।
कोलंबो में औपचारिक रूप से परिणाम घोषित होने से पहले और मतगणना के दौरान ही मोदी ने राजपक्षे को बधाई देकर विश्व के पहले नेता बन कर अच्छा काम किया है। चर्चा के दौरान मोदी ने उम्मीद जताई है कि वे और राजपक्षे मिलकर "दोनों देशों और नागरिकों के बीच घनिष्ठ और भाईचारे के संबंधों को स्थापित करने के लिए और शांति, समृद्धि और साथ ही क्षेत्र में सुरक्षा के लिए मिलकर काम कर सकते हैं।"
प्रमुख बात यह है कि भारत अपने पड़ोसियों को नहीं चुन सकता है। प्रचलित बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के भीतर देश फिर चाहे वे बड़े हों या छोटे, वे अपने बाहरी संबंधों में विविधता लाने के लिए रणनीतिक गहराई हासिल करते हैं ताकि उनके कथित मूल हितों और महत्वपूर्ण चिंताओं को बड़ी शक्तियों से प्रभावित होने से बचाया जा सके।
इसलिए, भारतीय कूटनीति को कोलंबो के साथ अपने अनुकूल हितों और सामान्य चिंताओं को पहचानने पर ध्यान देना चाहिए। श्रीलंका के एकमात्र पड़ोसी होने के नाते, भारत के लिए कई ऐसे लाभ हो सकते हैं यदि सरकार केवल उन्हें धैर्य और विवेक के साथ टैप करे तो लेकिन इसे हासिल करने के लिए रोबदार व्यवहार से बचा जाना चाहिए। बेशक, मुनाफे और हानी की मानसिकता केवल हानिकारक साबित होगी।
Courtesy: Indian Punchline
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