ओबरा (उत्तर प्रदेश), 17 फरवरी। पुलवामा में मारे गये सीआरपीएफ के शहीदों के परिवारों (Families of CRPF martyrs killed in Pulwama) के दुःख के साथ हम पूरी तौर पर शरीक हैं और अपनी एकजुटता सेना और सुरक्षा दलों के साथ व्यक्त करते हैं। पुलवामा की घटना (Pulwama incident) भारी सुरक्षा चूक (Heavy security defaults) और मुख्य तौर पर मोदी सरकार की लगभग पिछले 5 वर्षों से चल रही कश्मीर नीति व पाकिस्तान नीति की असफलता का परिणाम (The result of failure of Kashmir policy and Pakistan policy) है और मोदी सरकार को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। यह बातें आज ओबरा कार्यालय में सोनभद्र, मिर्जापुर व चंदौली के अगुवा साथियो के साथ बातचीत करते हुए स्वराज अभियान के राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहीं।
मोदी सरकार की कोई दुस्साहसिक कार्यवाही अलगाववादियों को मदद करेगी
Any miserable action of the Modi government will help separatists
अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि भाजपा कश्मीर समस्या (Kashmir problem) को हल करने में कम और कश्मीर घाटी में अपना जनाधार बढ़ाने में ज्यादा दिलचस्पी ले रही थी। इसी के तहत जिस पीडीपी के बारे में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा आतंकियों के सहयोगी दल होने की बात करते थे उसके साथ उन्होंने मिलकर जम्मू कश्मीर में सरकार बनाई और पार्टी स्वार्थ में ही सरकार को भी गिरा दिया। घाटी में शांति बहाली और लोगों के अलगाव को दूर करने की कोई राजनीतिक समझ मोदी सरकार में नहीं दिखी। उनके कार्यकाल में केंद्र सरकार व राज्य सरकार से कश्मीरी अवाम का अलगाव बढ़ता गया और आज हालत यह हो गई कि कश्मीरी नौजवान आत्मघाती दस्ते में तब्दील होते जा रहे हैं। पूरे देश को अपने रंग में रंगने की आरएसएस की जो आत्मघाती व वैचारिक कट्टरपन की नीति है, उसी का परिणाम है कि उत्तर पूर्व में भी अलगाव बढ़ रहा है और नागरिकता संशोधन
कश्मीर समस्या का राजनैतिक-कूटनीतिक हल करे सरकार
Government should solve political-diplomatic solution of Kashmir problem
कश्मीर की समस्या इजराइल के विरूद्ध फिलीस्तीन के पैटर्न पर बढ़ती जा रही है जो पूरी तौर पर चिंताजनक है। पाकिस्तान के बारे में भी कोई ठोस नीति मोदी सरकार की नहीं दिखती है। कभी दोस्ती कभी युद्ध का माहौल बनाया जाता है। दरअसल पूरी विदेश नीति ही दिशाहीन हो गई है और सभी पड़ोसी मुल्कों के साथ सम्बंध खराब होते गए हैं यहां तक कि भूटान से भी पहले वाले सहज सम्बंध नहीं रह गया हैं। इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान के विरूद्ध लिया गया कोई भी दुस्साहिक कदम अलगाववादियों का मनोबल बढायेगा, कश्मीर की समस्या को और जटिल करेगा और विदेशी ताकतों को भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का मौका देगा। इराक और अफगानिस्तान में अमरीकी दमन के बावजूद आतंकी घटनाएं खत्म नहीं हुई हैं।
भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके संगठनों द्वारा पैदा किया जा रहा युद्धोन्माद व सांप्रदायिकता चिंताजनक है, इससे देश को बचने की जरूरत है। जो लोग ‘खून का बदला खून‘, ‘युद्ध करो-युद्ध करो‘ का नारा लगा रहे हैं वह लोग बेरोजगारी, दरिद्रता व भयावह गरीबी में फंसे आम जनजीवन की जिंदगी को तबाही की तरफ ले जाना चाहते हैं और युद्ध से मालामाल होने वाले हथियार के सौदागरों को मदद पहुंचा रहे हैं। 1971 में पाकिस्तान के विरूद्ध इन्दिरा की जीत की नसीहत का आज कोई मायने मतलब नहीं है, क्योंकि उस समय उनकी जीत के पीछे अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के संतुलन के साथ-साथ बंगलादेश की मुक्ति का राष्ट्रीय आंदोलन भी था। इसलिए ऐसे नाजुक वक्त में देश को नफरत व उन्माद में ढकेलने की जगह ठण्डे दिमाग से प्रभावशाली राजनैतिक-कूटनीतिक पहल लेने की जरूरत है। जिससे पाकिस्तान पर दबाब बनाया जा सके और कश्मीर की आवाम का विश्वास भी जीता जा सके। हमें यह याद रखना होगा कि राजनीतिक खालीपन में ही अलगाव और आतंकी घटनाएं बढ़ती है। इसलिए हिंसा और युद्धोन्माद नहीं कश्मीर के सभी हिस्सेदारों (स्टेक होल्डरों) से वार्ता की जरूरत अब भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना चार साल पहले थी। इस तरह की कार्यवाही यदि चार साल पहले हुई होती तो सम्भवतः उरी, पठानकोट और अब पुलवामा जैसी आतंकी घटनाओं से देश बच गया होता और किसानों, मजदूरों और गरीबों के सैनिक बेटों की जिदंगी बच गयी होती।
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