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The government wants to increase corporate investment in agriculture through new laws

नये कृषि कानूनों के अंतर्गत अनाज, दलहन, तिलहन, आलू, प्याज जैसी रोजमर्रा की आवश्यक चीजों को अत्यावश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया है। अब इन वस्तुओं को सरकार की सूची में गैरजरूरी वस्तुएं माना जाने लगा है, और इनकी स्टॉक लिमिट भी समाप्त हो गई है। इसका मतलब साफ है कि अब बड़े कारोबारी एवं कार्पोरेट इनका बेहिसाब भंडारण कर सकेंगे। संघ, समूह, कॉर्टेल बनाकर अपने फायदे के लिए मनमानी तरीके से बाजार में कीमतें तय करेंगे। स्पष्ट है कि सरकार नये कानूनों के द्वारा कृषि में निजी बल्कि कार्पोरेट निवेश को बढ़ाना चाहती है, और कृषिक्षेत्र को बड़े कार्पोरेट घरानों को सौंपना चाहती है।

नये कृषि कानूनों में 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का एजेंडा ही गायब है, जिसे सरकार (विशेषकर मोदी) अभी तक अपना बड़ा संकल्प के तौर पर प्रचारित करती आई है।

पिछले दिनों इसी को लेकर देशभर में जोरदार हल्ला मचा, बहस छिड़ी, सड़को पर जबर्दस्त प्रदर्शन एवं आंदोलन हुए। पंजाब-हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, कर्नाटक सहित कई राज्यों में बड़ी तादाद में इसके विरोध में आवाजें उठीं हैं। किसान नेता, कृषक संघ, विपक्ष की राजनीतिक पार्टियां आपस में लामबंद हुए एवं हो रहे हैं।

सरकार इन कृषि विधेयकों, कानूनों को कृषि सुधार कानून कह रही है, और आने वाले दिनों के लिए कृषि क्षेत्र के लिए देश की बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। लेकिन विपक्ष एवं किसान इसे किसान विरोधी मानकर सड़कों पर उतरकर इसका पुरजोर विरोध प्रदर्शन कर रहें हैं। इन प्रदर्शनों में दुखद घटनाएं आरंभ हो चुकीं हैं।

पंजाब के एक किसान ने इसके विरोध में आत्महत्या कर ली,

किसान कई दिनों से सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं, इसके बावजूद सरकार इस कानून को लेकर अपने अड़ियल रवैये पर सुधार अथवा विचार करने तक को तैयार नहीं है।

दरअसल इन कृषि बिलों को लेकर मचा घमासान तब और अधिक चर्चा में आ गया, एवं रोचक बना हुआ है, जब सरकार के ही बहुत पुराने सहयोगी, समर्थक दल के वरिष्ठ मंत्री ने इस बिल के विरोध में अपना त्यागपत्र ही दे दिया है।

पूर्व मंत्री एवं सहयोगी, समर्थक दल द्वारा इन बिलों को लेकर बाहर खुलकर विरोध किया जा रहा है, जिससे इन बिलों के किसान विरोधी होने की बातों को समर्थन तो मिलता ही है।

अब इस बात की संभावना बनती दिख रही है कि पंजाब-हरियाणा, राजस्थान से शुरू होकर यह विरोध देशभर में फैलेगा। आने वाले महीनों में बिहार, पं. बंगाल जैसे बड़े राज्यों में चुनाव हैं, इसलिए विपक्ष इसे मुद्दा बनाकर जोरशोर से उठायेगा, जो कि स्वाभाविक है।

नये कृषि कानूनों के संदर्भ में सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन विधेयकों को लेकर सरकार इतनी जल्दबाजी में क्यों है ? क्या सरकार भी इन विधेयकों का फायदा बिहार, पं. बंगाल चुनाव में उठाना चाहती है ? क्या सरकार इन विधेयकों के द्वारा वास्तव में देश के किसानों का भला करना चाहती है ? क्या इन विधेयकों से वास्तव में हमारे किसान समुदाय का भला होगा ? यदि इन विधेयकों से किसानों का हित, लाभ होना है, तो फिर इन्हें लेकर इतना उग्र विरोध एवं प्रदर्शन क्यों हो रहा है ? सरकार के ही पुराने भरोसेमंद साथी शिरोमणी अकालीदल इस कदर विरोध पर क्यों उतारू है ? जहां कद्दावर केन्द्रीय मंत्री जैसा बड़ा पद छोड़ दिया। पूर्व मंत्री क्यों कह रहीं हैं कि सरकार को उन्होंने अध्यादेश लाने के वक्त भी समझाना चाहा लेकिन सरकार को मनाने में विफल, असफल रहीं। उनका साफ कहना है कि विधेयक किसान विरोधी हैं, इन कानूनों के बाद कृषि क्षेत्र पर निजी कंपनियों का वर्चस्व एवं नियंत्रण बढ़ेगा जिससे किसानों का नुकसान होगा।

बहुत दिलचस्प बात कि पूर्व मंत्री महोदया इसकी तुलना ’Jio’ से करते हुए मुकेश अंबानी को बीच में क्यों ला रही हैं ?

यदि इतनी बातें हो रहीं हैं, तो इन कृषि विधेयकों के संबंध एवं संदर्भ में जानने, समझने की आवश्यकता है।

भारत के कितने किसान-कृषक अपने उत्पादों को अपने निकट स्थान की मंडियों से बाहर ले जाकर बेचते हैं ? या इसके लिए सक्षम एवं समर्थ हैं ? कितने किसान ऑनलाईन प्रक्रिया एवं व्यवस्था के बारे जानते हैं ? कितने किसान कंपनियों की एग्रीमेंट की भाषा जानते, समझते हैं ? अभी कृषि में मिलने वाली सहायता, अनुदान, बीमा का फायदा कितने किसानों को मिलता है ? देश के कितने प्रतिशत किसान होंगे जो बिना कर्ज के खेती-किसानी करने में समर्थ एवं सक्षम होंगे ? कितने किसान हैं जो अच्छी बाजार कीमत की आस में अपने उत्पाद को कुछ दिनों तक के लिए ही सही स्टोर करके रखते हैं ? रख सकते हैं ? 10 प्रतिशत भी नहीं होंगे, क्योंकि देश के बाकी 90 प्रतिशत किसानों की स्थिति आज भी अच्छी नहीं है, और ये बेहद छोटे, सीमांत, लघु किसानों की श्रेणी में आते हैं, फिर इनका क्या होगा ? सरकार इन 90 प्रतिशत किसानों की चिंता क्यों नहीं करती है ?

Our public representatives are actually bureaucrats' servants, not representatives of the public

दरअसल सरकार को देश की खेती-किसानी एवं किसानों की हकीकत का अंदाजा नहीं है। हमारे जनप्रतिनिधि कुर्सी के मोह में गूंगे-बहरे बने हुए हैं। बहुत लोग सही कहते हैं कि हमारे जनप्रतिनिधि वास्तव में नौकरशाहों के नौकर हैं, जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं। यह केवल दुर्भाग्य की बात नहीं है कि सरकार वास्तविकता जानते हुए या अनजाने में यह सब कर रही है, बल्कि यह राष्ट्रीय शर्म एवं चिंता की बात होनी चाहिए कि हमारे नेताओं की इतनी समझ ही नहीं है कि वे देशहित के मुद्दों को उठा सकें। कुछ लोगों को लग रहा है कि विधेयक में कोई ऐसी बात नहीं है जिसका इतना विरोध होना चाहिए, या इतना विरोध किया जाए, यह केवल विरोध के लिए विरोध है। विधेयकों में बहुत अच्छे प्रावधान हैं जिनसे किसानों का भला होगा जो आज तक नहीं हुआ है। इस मत के समर्थक यह बतायें कि नोटबंदी तो कालाधन, आतंकवाद, नक्सलवाद खत्म करने का सबसे अचूक उपाय था, कितना कालाधन बाहर आया ? आतंकवाद, नक्सलवाद की कमर कितनी टूटी ? 20 लाख करोड़ के विशेष आर्थिक पैकेज से बाजार में कितनी रौनकता आई ? कितनी मांग बढ़ी ? स्टार्ट-अप, स्टेंड-अप, मुद्रा योजना, मेक इन इंडिया, जनधन योजना, स्मार्ट सिटी, सांसद आदर्श गांव, स्किल इंडिया मिशन, श्रमेव जयते, स्वच्छ भारत, सॉयल हैल्थ कार्ड योजना, फसल बीमा योजना जैसी सैकडों योजनाओं से किसानों, देश के आम नागरिकों को कितना फायदा हुआ एवं हो रहा है ?

क्या किसानों की यह आशंका निराधार है कि मंडियों से बाहर जाकर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य कैसे, कब तक मिलता रहेगा ?

क्या निजी कंपनियां न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एग्रीमेंट करेंगी ? क्या निजी कंपनियां बीमा कंपनियों की तरह किसानों का शोषण नहीं करेंगी ? क्या गांरटी है कि कंपनियां से बीच में एग्रीमेंट, करार निरस्त-रद्द हो जाने की स्थिति में किसानों को न्याय मिल सकेगा ? किसान दूसरी कंपनी के साथ करार कर सकेंगे ? अपने बुरे अनुभव के बाद किसान बीच में करार तोड़ सकेंगे ? किसान बाजार का रूख कर सकेंगे ? क्या यह आशंकाएं निराधार हैं कि कृषि क्षेत्र में देश के बड़े कार्पोरेट घरानों के काले धन को समायोजित करने के लिए कृषि को कार्पोरेट घरानों को सौंपा जा रहा है ? देश के दो-तिहाई जनसंख्या वाले किसान परिवारों का क्या यह दुर्भाग्य नहीं है कि प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से रोजगार, खान-पान, रहन-सहन यानि अपनी जीवनचर्या अर्थात् आजीविका के लिए कृषि अथवा खे़ती-किसानी एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह आश्रित एवं निर्भर होने के बावजूद इनकी औसत वार्षिक आमदनी आज एक लाख रूपए भी नहीं है ?

नये कृषि कानूनों के विरोध को दबाने के लिए सरकार ने आनन-फानन में गेहूं, चना, सरसों आदि गिनती के चार-पांच जींसों के समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी कर दी है, लेकिन यह बढ़ोतरी ढाई से लेकर पांच प्रतिशत मात्र ही है, जबकि इस अवधि में लागतों में कई गुना की वृद्धि हुई है। समय से पहले समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी का मकसद साफ है कि आगामी बिहार, बंगाल चुनाव को देखते हुए यह किया गया है, और इस समय बिहार में किसानों की स्थिति सबसे अधिक खराब है।

सरकार धान का समर्थन-खरीद मूल्य 2,500 रूपया प्रति क्विंटल क्यों नहीं करती ? सरकार सारे उत्पादों का समर्थन मूल्य उसकी लागतों के आधार पर क्यों नहीं बढ़ाती है ? सरकार स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को लागू क्यों नही करती है ? सरकार तमाम कृषि उत्पादों का ’न्यूनतम बाजार मूल्य’ निर्धारित, तय क्यों नहीं करती है ? जिससे सीधा-सीधा किसानों को फायदा होगा। जिससे किसान परिवारों में वास्तविक खुशहाली आ सकेगी, उनकी आमदनी बढ़ेगी। सरकार की प्राथमिकताओं में किसानों की आत्महत्याओं का मसला क्यों नहीं रहता है ? किसान परिवार के बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य का मुद्दा सरकार की वरियता सूची में क्यों नहीं रहते हैं ? सरकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था की चिंता क्यों नहीं करती है ? सरकार की प्राथमिकताओं में हमेशा अमीर, उद्योगपति, पूंजीपति, कार्पोरेट, बड़े चंद औद्योगिक घराने, एनआरआई ही क्यों रहते हैं ?

भारत जैसे ग्रामीण पृष्ठभूमि में इसका महत्व और भी बढ़ जाता है, जहां की दो तिहाई से अधिक जनसंख्या गांवों में रहती है। आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहर लाल नेहरू ने उचित कहा है कि ‘बड़े संयत्रों सहित किसी भी अन्य वस्तु की अपेक्षा कृषि अधिक महत्वपूर्णं है, क्योंकि कृषि उत्पादन सभी प्रकार की आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है, कृषि ही प्रगति के लिए साधन जुटाती है।’ आज भी देश की ‘अर्थव्यवस्था में कुल रोजगार का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र से ही उत्पन्न होता है। जनगणना वर्ष 2011 के अनुसार कृषि क्षेत्र से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 70 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिलता है।’

देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में कृषि का अत्यंत ही सकारात्मक एवं सार्थक महत्व एवं योगदान है।

देश की कुल श्रम शक्ति का आधा हिस्सा कृषि क्षेत्र से संबंधित है। देश के आधा प्रमुख, लघु एवं कुटीर उद्योगधंधों को कच्चा माल कृषि क्षेत्र ही प्राप्त होता है, तथा देश से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में लगभग 15 से 20 प्रतिशत कृषि वस्तुओं का अनुपात होता है। जहां तक देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (जीडीपी यानि सकल घरेलु उत्पाद) में कृषि क्षेत्र के योगदान की बात है तो उसमें लगातार गिरावट आ रही है, लेकिन इससे कृषि क्षेत्र के महत्व में कोई कमी नहीं आने वाली है। स्वतंत्रता के समय देश की अर्थव्यवस्था में कृषि एवं कृषि सहायक क्षेत्र का योगदान लगभग दो तिहाई के आसपास हुआ करता था, किन्तु यह स्थिति धीरे धीरे कम होती चली गई। 1950-51 में जिस कृषि क्षेत्र का योगदान देश की अर्थव्यवस्था में 55 प्रतिशत से उपर था वह आज घटकर 10 प्रतिशत तक रह गया है।

महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा है कि ‘भारत गांवों का देश है और कृषि भारत की आत्मा है।’ सचमुच जब तक इस धरती पर इंसान रहेगें तब तक कृषि का वर्चस्व एवं अस्तित्व दोनों रहेगा, इसलिए कृषि की उपेक्षा करके कोई भी राज्य या देश कभी भी विकास के शिखर पर नहीं पहुंच सकता है। लेकिन देश का दुर्भाग्य यह है कि यह बात मौजूदा सरकार को समझ ही नहीं आ रही है।

डॉ. लखन चौधरी

(लेखक; हेमचंद यादव विश्वविद्यालय दुर्ग, छत्तीसगढ़ में अर्थशास्त्र के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)


डॉ. लखन चौधरी
(लेखक; हेमचंद यादव विश्वविद्यालय दुर्ग, छत्तीसगढ़ में अर्थशास्त्र के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)