ये पंक्तियां Gulzar (गुलज़ार) की हैं, जो आज 86 साल के हो गए। चांद ने अक्सर खुराफात ही की है। इंसानी जेहन हो या समंदर। उथल-पुथल कर के सब कुछ उलट पलट देता है। न जाने इसे क्या मजा मिलता है ? पानी को बाहर उलीच कर। ख़यालात को हरफ में ढाल कर। कुछ भी कहिए! चांद होता ही शरारती है। अगर ऐसा न होता तो ये किसी हसीना का कटा हुआ नाखून न होता। न ही इसे कोई चुराकर चर्च के पीछे ले आता। न ही कोई इसे कश्ती बना के पार उतरता। चांद जली हुई रोटी भी है। चांद भिखारी का कासा है। चांद दुल्हन भी है। ये सारे चांद गुलजार के हैं।
गुलजार! वे मकबूल शायर हैं, जिन्हें हिंदी, उर्दू दोनों में बड़े अदब से सुना पढ़ा जाता है। मगर अपनी अदबी दुनिया के इतर इन्हें इतनी शोहरत फिल्मों ने दी है। बकौल राही मासूम रज़ा हिंदी फिल्में हिंदुस्तान को जोड़ती है। गुलजार इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं। उनको पसंद करने वालों में एक ही परिवार की चार-चार पीढ़ियां शामिल हैं। दादा को मोरा गोरा अंग लईलें पसंद है तो पोते को - मेरी आरज़ू कमीनी, मेरे ख्वाब भी कमीने, ये हुजूर भी कमीने। ये अनायास नहीं है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण है।
इंसानी फितरत होती है, उसके इर्द गिर्द घटती घटनाओं को खुद के नजरिए से देखने की। इसके लिए अरस्तू नहीं होना होता है। बस! कुदरती एहसास जगाना होता है। जो सबमें
अक्सर ये कहा जाता है कि रोटी, इंसानी ज़िंदगी में सबसे अहम है। इससे किसी को नाइत्तेफाकी नहीं है। मगर ये भी सच है कि आदमी सिर्फ रोटी के भरोसे नहीं जी सकता। उसे रोटी के बाद सम्मान चाहिए होता है। उसके जाती जज्ब़ात होते हैं, जिससे उसे ताकत और ऊर्जा मिलती है। जो उसके लिए जिजीविषा का काम करती है। इंसानी दिमाग हमेशा जागता रहता है। वो जब सोता है तब इंसान हमेशा के लिए सो जाता है। इसी दिमाग में एहसास, भाव जगते रहते हैं, इसलिए यहीं से आदमी अपना एक दुनियावी नजरिया गढ़ता है। जो जितना ज्यादा दूसरे लोगों के साथ जुड़ता चला जाता है वो उतना ही प्रासंगिक और यथार्थवादी हो जाता है। गुलजार इसमें माहिर हैं।
गुलज़ार की खासियत है सीधे-सीधे अपनी बातों को कहना। स्क्रिप्ट के पात्र के अनुसार गीत रचते हैं। इनके पात्र जैसे होते हैं वैसी ही बोलते हैं। बबली! जो पंजाबी पुट के साथ अंग्रेजी बोलती है, कजरारे-कजरारे में वैसी ही लाइनें वो गाती है। ओमकारा की धम धम धड़म धड़ैया रे, बड़े लड़ैया रे, को सुनिये। इसमें रान (जांघ) बजा चल पड़ते हैं, का जिक्र है। बाहुबली को चुनौती मिलने पर वो कैसे निकलता है? उसका रूप कैसा है? बहुत सटीक चित्र प्रस्तुत करते हैं।
इमेजिनेशन और फिर प्रेंजेंटेशन का तरीका गुलजार का शानदार है।
गुलज़ार के चरित्र अपनी भाषा के अनुरूप ही गीत गाते हैं। सामाजिक रूप से ये कितने संवेदनशील हैं कि 1971 में उनकी फिल्म मेरे अपने आती है। जिसका एक गाना जबरदस्त तंज है। आज भी 50 साल बाद उतना ही प्रासंगिक है। इसके बोल है- बीए किया है, एमए किया है, लगता है वो भी एमए किया, काम नहीं है वर्ना यहां, आपकी दुआ से सब ठीक ठाक है।
प्रतीक से बिंब रचना एक कौशल है। ये जितना इंसान और उसके जेहन के करीब होगा उतना ही आकर्षक होगा। आसान अल्फाज़ में दुरूह बातें कहना इनकी खासियत है। इज़ाजत फिल्म का एक गाना है- पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट/ कानों में एक बार पहन के लौट आयी थी/ पतझड़ की वो शाख अभी तक कांप रही है वो शाख गिरा दो/ मेरा वो सामान लौटा दो।
इस गीत की भी एक कहानी है। इस गाने को लेकर पंचम दा ने गुलजार को कहा कि कुछ भी लिख के लेके चला आता है। कहता है-धुन बनाओ। गद्य लिख के लायेगा और पद्य में सुनाने को कहेगा। इस गाने की आखिरी पंक्ति मेरा सामान लौटा दो, जब आशा भोंसले ने गाया तब पंचम दा ने कहा कि ये गाना है? सुनाओ फिर से। आखिरी लाइन। मेरा वो सामान लौटा दो।
ये गाना एक इतिहास है, हिंदी सिनेमा का। नितांत वैयक्तिक संबंधों का। गीले मन का। इस गीत को सुनने के बाद सिर्फ एहसास जगते हैं। इन्हें महसूस किया जा सकता है। ये गुजरे पल हैं, ज़िंदगी के। जिनसे ज़िंदगी बनती है, संवरती है। इसे आप किसी और के साथ चाहे तो जोड़ के देख सकते हैं। अगर निजी अनुभव ही मानते हैं, तब भी इससे जुड़े रहते हैं।
दरअसल गुलजार आपको अकेला नहीं छोड़ते। वो आपके साथ हो लेते हैं या आपको किसी के हवाले कर देते हैं। आज जब ये 86 साल के हो चुके हैं, फिर भी उनमें एक बच्चा दिखता है। कुछ इस तरह कि उसे बरसात में पानी में चलती साइकिल, पैडल के पास से कुल्ली करती दिखती है। ये अंदाज किसी चुहलबाज और क्रिएटिव बच्चे का ही हो सकता है। ये बच्चा हमेशा लोगों के बीच रहेगा। कुछ इस तरह भी-
नहीं रहूंगा/ मैं तब भी रहूंगा/ तुम्हारी पलकों तले लरजते/ नमी के कतरे में/ उलझा-उलझा !!
संजय दुबे
स्वतंत्र पत्रकार