पिछले 16 अक्टूबर से हरियाणा रोडवेज कर्मचारी हड़ताल पर थे। ये हड़ताल 18 दिन चली, जो एक ऐतिहासिक कर्मचारी आंदोलन रहा। दो नवंबर को माननीय हरियाणा एण्ड पंजाब उच्च न्यायालय के आश्वासन पर कि 12 नवंबर को सरकार और कर्मचारी प्रतिनिधियों को आमने-सामने बैठाकर बातचीत के माध्यम से सही फैसला कोर्ट करेगा। इस आश्वासन पर रोडवेज कर्मचारी यूनियनों ने हड़ताल समाप्त कर दी। ये कर्मचारियों की जीत है या सरकार की जीत है। ये सोचने का विषय है। मुझे तो ये सरकार की जीत लग रही है। जो काम सरकार करना चाहती थी वो अदालत ने कर दिया।
लेकिन बहुमत के कर्मचारियों ने जिस एकता और बहादुरी से लड़ने का परिचय दिया, फासीवादी सत्ता का बहादुरी से सामना किया, उसने आम जनता का दिल जीत लिया। इसलिए आंदोलन को देखें तो ये कर्मचारियों की बहुत बड़ी जीत है। जो एकता कर्मचारियों में देखने को मिली, शायद ऐसा पहली बार हुआ। ये एकता भविष्य में रंग लाएगी।
Haryana Roadways is the life line of Haryana
हरियाणा में परिवहन की लाइफ लाइन हरियाणा रोडवेज है। हड़ताल होने के कारण आम जनता जो हजारों की तादाद में रोजाना सफर करती है, वो खासी परेशानी में थी। हरियाणा सरकार जो तानाशाही में विश्वास रखती है, इस हड़ताल को कुचलने के लिए प्रत्येक हथकंडा अपनाया गया। सरकार और भाजपा द्वारा हड़ताल को तोड़ने के लिए झूठा प्रचार से लेकर
हरियाणा सरकार कह रही है कि कर्मचारियों की लड़ाई वेतन बढ़वाने के लिए है। सरकार ने रोडवेज कर्मचारियों को मिल रही सारी सुविधाएं उस विज्ञापन में छपवाईं। लेकिन रोडवेज कर्मचारी अपनी इस हड़ताल करने की वजह सरकार द्वारा रोडवेज के निजीकरण करने की योजना, जिसके तहत हरियाणा सरकार 720 निजी बसें ला रही है, को बताते रहे।
Condition of movement of roadways employees
हरियाणा रोडवेज कर्मचारी यूनियन, जो 3-4 यूनियनों का सांझा गठजोड़ थी, मजबूती से खड़ी थी। सभी सरकारी विभागों के कर्मचारी भी इनके समर्थन में दो दिन का सामूहिक हड़ताल करके समर्थन दे चुके थे। अध्यापक 100 बस सरकारी बेड़े में अपनी तनख्वा से देने की पेशकश सरकार को कर चुके थे। सैकड़ों कर्मचारियों को बर्खास्त किया जा चुका था, तो हजारों पर मुकदमे दर्ज हुए थे, गिरफ्तारियां हुई थी। ये कर्मचारी आंदोलन (Employee movement) इतिहास में एक मजबूत आंदोलन के तौर पर याद किया जाएगा।
अपने छात्र जीवन से ही मैं कर्मचारियों के आंदोलन का समर्थन करता रहा हूँ। बहुत बार कर्मचारी आंदोलन में लाठियां भी खाई हैं।
मुझे याद है 2006-07 में हरियाणा सरकार हिसार से दिल्ली व चंडीगढ़ के लिए वोल्वो बस चला रही थी। हम रात 12 बजे ही कर्मचारियों के साथ रोडवेज हिसार में वोल्वो बस न चले इसके विरोध में रुक गए। सुबह 6 बजे बस चलनी थी, विरोध हुआ। सरकार ने लाठी चार्ज किया। कर्मचारी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। लाठी चार्ज और वोल्वो बस के खिलाफ पूरे हरियाणा में रोडवेज ने चक्का जाम कर दिया। हड़ताल दो दिन चली उसके बाद सरकार और कर्मचारी यूनियनों का समझौता हो गया। यूनियन ने ऐलान किया कि सरकार झुक गयी और हमारी सब मांगे मान ली गयी है।
लेकिन वोल्वो बस उसके बाद भी चलती रही अब सवाल ये पैदा हुआ कि कौन सी मांग मानी ली गई। क्योंकि विरोध और चक्का जाम तो वोल्वो बस के खिलाफ था, लेकिन वो तो अब भी चल रही थी।
How did the privatization happen if the union wins?
मैंने अलग-अलग विभागों की दर्जनों हड़तालें देखी हैं, उनमें गया भी हूँ। यूनियन नेताओं के निजीकरण के खिलाफ जोश भरे भाषण भी सुने हैं, लेकिन फिर भी सरकारें निजीकरण करने में कामयाब रही हैं। लेकिन प्रत्येक आंदोनल के बाद यूनियन बोलती रही है कि सरकार झुक गई और जीत हमारी हुई है, अगर ऐसा हुआ है तो फिर निजीकरण क्यों हुआ है। जिस जीत का दावा यूनियनें करती रहीं आखिर वो कौनसी जीत थी, किन मुद्दों पर जीत हासिल की गई।
कर्मचारी यूनियनों के अवसरवाद से रुकेगा निजीकरण ?
Will privatization stop the opportunism of employee unions?
हरियाणा ही नहीं पूरे देश का प्रगतिशील बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, वामपन्थी आज भी इस हड़ताल को मजबूती से समर्थन कर रहा है।
लेकिन क्या इन कर्मचारी यूनियनों के अवसरवादी, सुधारवादी, समझौतावादी कार्यक्रम के आधार पर निजीकरण को रोका जा सकता है?
हड़ताल के दौरान सरकार और कर्मचारियों के प्रतिनिधियों की बातचीत का वीडियो देखा। सरकार जहां निजी बसों के पक्ष में मजबूती से खड़ी दिखी, तो वहीं कर्मचारी नेता बातचीत में सरकारी बस लाने की और इसके लिए एक महीने का वेतन देने की बात करते हुए दिखे, लेकिन साथ ही सरकार पर ये आरोप लगाते मिले कि ये बस महंगी है और इनके टेंडर बंटवारे में बहुत बड़ा घोटाला हुआ है। इन बसों के सिर्फ कुछ मालिक हैं।
यूनियन पक्ष के अनुसार अगर बस सस्ती और टेंडर बंटवारा सरकार ईमानदारी से करती तो क्या कर्मचारी यूनियन को कोई दिक्कत नहीं है?
इस हड़ताल को इनेलो नेता अभय चौटाला और कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी समर्थन दिया है। लेकिन क्या वो ईमानदारी से समर्थन में हैं। जब इनेलो और कांग्रेस की सरकार थी तो उस समय ये खुद भी निजीकरण कर रहे थे, साथ में कर्मचारी आंदोलन का दमन भी कर रहे थे। दोनों विपक्षी पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं को आंदोलन के पक्ष में उतारने की बजाए सिर्फ बयान देकर ही फसल काटने की फिराक में हैं।
हरियाणा में सर्व कर्मचारी संघ सी.पी.एम. समर्थित और हरियाणा कर्मचारी महासंघ सीपीआई समर्थित यूनियनें है, जिनका लगभग सभी विभागों में मजबूत प्रभाव है। हरियाणा का कर्मचारी आंदोलन ही नहीं पूरे देश का कर्मचारी आंदोलन जहां सी.पी.एम. या सीपीआई की या दूसरी अवसरवादी यूनियनें है। जिनका कोई क्रांतिकारी कार्यक्रम नहीं है, वहाँ सब जगह बड़ी बुरी दशा है।
इन कर्मचारी यूनियनों में व्यक्तिवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और अवसरवाद हावी होता है। जो कर्मचारी यूनियन का नेता बन गया वो ड्यूटी कभी करता ही नहीं। एक रोडवेज डिपो की कर्मचारी यूनियन यूनिट का प्रधान तो ऐसा था जो खुद निजी बस में हिस्सेदार था। क्या ऐसे नेता लड़ेंगे निजी बसों के खिलाफ लड़ाई।
इस पूरी लड़ाई में हरियाणा का नागरिक क्या सोचता है और वो किस तरफ खड़ा है। ये जरूर देखना चाहिए।
जनता रोडवेज कर्मचारियों के खिलाफ क्यों है
Why is public against roadways employees
कर्मचारियों की ये लड़ाई रोडवेज को बचाने की लड़ाई है, ताकि रोजगार बचाया जा सके। सरकार पूंजीपतियों के फायदे के लिए सरकारी विभागों को निजी हाथों में सौंप कर रोजगार खत्म करना चाहती है। इसलिए कर्मचारी सरकार के खिलाफ व रोजगार के लिए लड़ रहे हैं।
हरियाणा रोडवेज के निजीकरण के खिलाफ आंदोलन दमन पर उतरी खट्टर सरकार
हरियाणा की जनता की पहली पसन्द सरकारी नौकरी है। इसके बाद भी क्या कारण है कि जनता रोडवेज के समर्थन में मजबूती से क्यों नहीं आई। इसके विपरीत जैसे ही सरकार ने सिर्फ तीन महीने के लिए भर्ती करने के लिए बेरोजगारों को बुलाया, हजारों की तादाद में 10 वीं से लेकर एम. फिल. किए हुए नौजवानों ने नौकरी के लिए आवेदन कर दिया। दूसरे विभागों के कर्मचारियों ने टिकट काटने व बस चलाने की जिम्मेदारी उठाई।
एक कर्मचारी दूसरे कर्मचारी के खिलाफ क्यों, नौजवानों ने विश्वासघात क्यों किया
इसका सीधा कारण जनता व कर्मचारियों में वर्गीय चेतना का न होना है। कुछ साल पहले कर्मचारियों की हड़ताल का समर्थन कर रहे किसान सभा वालों पर एक गांव में हमला तक कर दिया गया था। इसके लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार खुद कर्मचारी है या कर्मचारियों की अवसरवादी यूनियनें हैं। सरकारी कर्मचारी वो चाहे किसी भी विभाग से और किसी भी पोस्ट से सम्बंध रखता हो, उसका व्यवहार आम जनता के प्रति बहुत ही घटिया स्तर का हो गया है। वो अपने आपको जनता का नौकर नहीं मालिक समझने लगता है। उसी समझ के अनुसार वो जनता से घटिया व्यवहार करता है।
कर्मचारियों का वेतन 30 हजार से लाख रुपये तक है, लेकिन फिर भी बहुमत कर्मचारी की नजर जनता की जेब पर रहती है। किसी भी विभाग में बिना रुपये लिए कोई काम नहीं होता है। अच्छा वेतन और अच्छी सुविधाएं लेने के बावजूद कर्मचारी ईमानदारी से अपनी ड्यूटी नहीं निभाता है। सफाई कर्मचारी सफाई नहीं करता, बिजली कर्मचारी बिना रुपये लिए तार भी नहीं जोड़ता, सरकारी स्कूलों और अस्पतालों के जो हालात हैं, वो सबके सामने ही है। बाकी विभागों के हालात भी बहुत बुरे हैं। अगर कर्मचारी यूनियनों का कार्यक्रम क्रांतिकारी कार्यक्रम होता तो उनके मार्फ़त सभी विभागों के कर्मचारियों को सत्ता की जन विरोधी नीतियों, उदारीकरण, भूमंडलीकरण व निजीकरण के खिलाफ वर्गीय राजनीतिक चेतना से लैस किया जा सकता था। अगर कर्मचारियों में ये चेतना आती तो जनता में भी आती और उनके व्यवहार में ये सब दिखता और जनता कभी खिलाफ नहीं जाती।
वर्गीय राजनीतिक चेतना के अभाव में अवसरवाद
वर्तमान में वर्गीय राजनीतिक चेतना न होने के कारण कर्मचारी कितना अवसरवादी है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि हरियाणा में कर्मचारी यूनियनों का गठन सी.पी.एम. और सीपीआई की बदौलत हुआ। आज तक जितने भी कर्मचारी आंदोलन हुए उनमें लाठी खाने से जेल जाने तक इन दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता शामिल रहे। लेकिन ये भी सच्चाई है कि कभी भी कर्मचारियों ने सी.पी.एम. और सीपीआई को वोट नहीं दिया। वोट देने के समय उन्ही पार्टियों को चुना जो निजीकरण करना चाहती थीं। कर्मचारियों ने कभी भी अपने गांव या कालोनियों में नौजवानों, मजदूरों, किसानों और महिलाओं के जन संगठन बनाने में कभी भी साथ नहीं दिया। विरोध जरूर किया।
आंदोलन की क्या दिशा हो
1. ईमानदारी से अगर निजीकरण रोकना है तो सबसे पहले कर्मचारियों में क्रांतिकारी विचार से लैस कर्मचारी यूनियन बनाने की जरूरत है, जो साम्राज्यवादी नीतियों को पहचान ले और सुधारवाद, अवसरवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूती से लड़ सके।
2. कर्मचारियों को यूनियन के मार्फ़त मेहनतकश अवाम के पक्ष में वर्गीय राजनीतिक चेतना से लैस किया जाना सबसे पहली जरूरत है।
3. कर्मचारी जिस भी जगह रहता है उस जगह अपने आस-पास जनवादी संगठनों का निर्माण करने में मदद करे, ताकि सरकार की जनविरोधी और निजीकरण विरोधी नीतियों के खिलाफ जनता का एक मजबूत मोर्चा बनाया जा सके।
4. जनता के साथ कर्मचारियों का व्यवहार सुधारा जाए। क्योंकि कर्मचारी का वेतन जनता की जेब से ही जाता है।
5. कर्मचारी ईमानदारी से अपना काम करे ताकि जनता को विश्वास हो सके कि कर्मचारी काम चोर नहीं है।
6. दुश्मन और दोस्त को पहचाना जाए।
ये लड़ाई सिर्फ निजीकरण के खिलाफ नहीं है, सिर्फ लड़ाई रोजगार के लिए नहीं है। ये लड़ाई साम्राज्यवाद की उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण (LPG) नीतियों के खिलाफ है जो मेहनतकश अवाम को गुलाम बनाती है। अगर आने वाले समय में आंदोलन की सही दिशा नहीं पकड़ी तो सरकार को निजीकरण करने से रोकना नामुमकिन है।
UDay Che
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