हमारा संविधान हमें एक लोक कल्याणकारी राज्य का दर्जा देता है। लोक कल्याणकारी राज्य का अर्थ (Meaning of public welfare state) समाज के हर तबके को उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति और उसके सम्यक विकास हेतु शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजी, रोटी, आवास की सुविधा प्रदान करना और एक ऐसे समाज तथा परिवेश का निर्माण करना, जो न केवल विचारों से प्रगतिशील हो बल्कि वह आर्थिक दृष्टि से भी उन्नतिकामी हो। पर हमारी सरकार अपने बजट का जितना स्वास्थ्य और चिकित्सा पर व्यय करती है वह दुनिया मे चौथे नम्बर पर सबसे कम है। यानी नीचे से हम चौथे नम्बर पर हैं।
हर साल हमारी सरकार चुनाव में शहर-शहर एम्स जैसे उन्नत और आधुनिक अस्पताल का वादा तो करती है पर वह वादा पूरा नहीं होता है तब तक नया चुनाव आ जाता है। अब नया चुनाव तो नया वादा।
अब सवाल उठता है कि क्या बजट 2020-21 में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए किया गया आवंटन काफी है?
वित्तमंत्री ने 2020-21 के बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट (Allocation made for health sector in budget 2020-21) में 10 फीसदी की वृद्धि ज़रूर की है, लेकिन तब भी विशेषज्ञों ने इस वृद्धि पर सवाल उठाया था और अब जब कोरोना के कारण हमारी स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा चरमरा रहा है, तब भी सवाल उठा रहे हैं।
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वस्थ्य मिशन (एनआरएचएम) को इस साल बजट में मिला फंड पिछले साल के बजट के बराबर तो है पर अगर हम पिछले साल किये गए आवंटन के रिवाइज हुए आंकड़ों को देखें तो पता चलता
एनआरएचएम को पिछले साल बजट में 27,039 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया था। हालांकि नए आंकड़े बताते हैं कि असल में आवंटन इससे कुछ ज्यादा था। यह 27,833.60 करोड़ रुपए था। लेकिन इस साल का आवंटन पिछले साल के बजट में किये गए 27039.00 करोड़ रुपए के आवंटन के बराबर है।
विशेषज्ञों के एक समूह द्वारा पन्द्रवें वित्त कमीशन को सौंपी गयी एक रिपोर्ट समेत कई अन्य रिपोर्ट्स ने यह बताया है कि ग्रामीण आबादी को उपचार मुहैया कराने वाली प्राथमिक चिकित्सा में ज्यादा फंडिंग की जरुरत है।
एनएचआरएम का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि, ग्रामीण स्वास्थ्य की यह एक धुरी है। समस्या, अपोलो, मैक्स, मेदांता में इलाज कराने वाले तबके के सामने नहीं है, समस्या उस तबके के सामने है जो कंधे, चारपाई और साइकिल पर कई किलोमीटर दूर से मरीज लेकर सरकारी अस्पतालों में पहुंचता है और फिर वहां सुविधाओं और डॉक्टरों के अभाव में धक्के खाता है।
इस साल बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र का कुल 69,000 करोड़ रुपये का है जो, पिछले साल के मुकाबले 10 फीसदी बढा हुआ है। अब अगर इसको मुद्रास्फीति दर के समानुपातिक लायें तो, दिसंबर में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में सालाना आधार पर मुद्रास्फीति दर (इंफ्लेशन रेट) 7.5% ठहरता है।
भारतीय स्वास्थ्य संगठन के सचिव अशोक केवी ने मीडिया को बताया कि,
"बढ़े हुए आवंटन में से आधे से ज्यादा महंगाई दर को रोकने में ही चला जाएगा। इससे सरकार को क्या हासिल होगा। हम किसी भी तरीके से स्वास्थ्य को जीडीपी का 2.5 फीसदी आवंटन करने के 2011 के लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाएंगे।"
2011 में सरकार ने कहा था कि स्वास्थ्य बजट जीडीपी का 2.5 % होना चाहिए, पर यह हो न सका। अब तो फिलहाल जीडीपी की बात ही न की जाय क्योंकि वह माइनस 23.9% पर है।
वित्त मंत्री ने पीपीपी मोड पर जिला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेजों से जोड़ने के नीति आयोग के प्रस्ताव पर भी मुहर लगाई। देश की सबसे बड़ी समस्या देश का नीति आयोग है जो हर योजना में पीपीपी का मॉडल घुसेड़ देता है जो सीधे-सीधे निजीकरण की एक साजिश है। सरकार ने अभी इस स्कीम की डिटेल्स तय नहीं की है। जब विस्तृत शर्ते सामने आ जायें तभी कुछ इस बिंदु पर कहा जा सकता है।
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने यह पहले ही साफ कर दिया है कि वे इस पीपीपी स्कीम को लागू नहीं करेंगे। आयोग का कहना है कि कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों ने कई टुकड़ों में पीपीपी मॉडल को लागू किया है। लेकिन उसके कोई बेहतर परिणाम नहीं निकले हैं। ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे आप यह अंदाजा लगा सकें कि इन राज्यों का यह प्रयास सफल रहा है, क्योंकि इन राज्यों के बाद कहीं और इस स्कीम को लागू नहीं किया गया। साथ ही अगर निजी मेडिकल कॉलेजों को जिला अस्पतालों से जोड़कर डॉक्टरों की कमी पर ध्यान लाने की कोशिश की जा रही है, तो यह संभव नहीं है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने इस कदम का विरोध किया है और इसे, 'घर का सोना बेचने' जैसा बताया है।
अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री ने कहा था कि विदेश में हमारे स्वास्थ्य पेशेवरों की भारी डिमांड है, लेकिन उनकी स्किल (योग्यता) वहां की जरूरतों के मुताबिक नहीं हैं। उन्होंने कहा 'मेरा प्रस्ताव है कि स्वास्थ्य मंत्रालय और कौशल विकास मंत्रालय पेशेवर संस्थाओं के साथ मिलकर ऐसे कोर्स डिजायन करें, जिससे हमारे स्वास्थ्य कर्मियों की क्षमताएं बढ़ सकें।'
हालांकि विशेषज्ञों को ऐसे कोर्सेज की जरूरत नहीं लगती है। डाउन टू अर्थ नामक एक एनजीओ के अनुसार,
"हमारे यहां डॉक्टरों की कमी है। किसी भी सरकार को सबसे पहले भारतीय टैलेंट को यहीं बनाए रखने और उसे जरूरी संसाधन मुहैया कराने पर ध्यान देना चाहिए। आखिर जनता का पैसा ठीक इसका उलटा करने में क्यों ज़ाया किया जाए।"
संक्रामक रोगों के प्रति आवंटन को पिछले साल के 5003 करोड़ रुपये से घटाकर 4459.35 रुपये कर दिया गया है। पिछले साल प्रकाशित हुई नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट (National sample survey organization report) में कहा गया था कि सभी बीमारियों में से संक्रामक रोग भारतीयों को सबसे ज्यादा बीमार बनाते हैं। ऐसे में सरकार द्वारा इस मद में आवंटन घटाने की बात समझ नहीं आती है। इन इन्फेक्शंस में मलेरिया, वायरल हेपेटाइटिस/पीलिया, गंभीर डायरिया/पेचिश, डेंगू बुखार, चिकिनगुनिया, मीसल्स, टायफॉयड, हुकवर्म इन्फेक्शन फाइलारियासिस, टीबी व अन्य शामिल हैं।
विडंबना देखिये हम इस साल अब तक के सबसे जटिल और लाइलाज संक्रामक रोग, कोरोना-19 से रूबरू हो रहे हैं। इस संदर्भ में स्वास्थ्य सेवाओं की क्या स्थिति है, किसी से छुपा नहीं है।
एक योजना जिसके आवंटन में सबसे बड़ी गिरावट देखी गई है, वह है राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (National Health Insurance Scheme in India)। पिछले साल इस योजना को 156 करोड़ रुपये मिले थे, इस साल यह सिर्फ 29 करोड़ रह गए। आयुष्मान भारत के आवंटन में भी कोई वृद्धि नहीं की गयी है, यह भी तब जब इस योजना को बड़े धूमधाम से प्रधानमंत्री जी ने प्रचारित किया था। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक संस्थान (Food Safety and Standards Authority of India (FSSAI),) को मिलने वाले फंड को भी 360.00 करोड़ रुपये से कम करके 283.71 करोड़ रुपये कर दिया गया है। जन औषधि केंद्रों (Jan Aushadhi Center (Kendra,) का सभी जिलों तक विस्तार देने की बात कही गयी है। राज्य सभा में जून, 2019 में दी गई एक जानकारी के अनुसार, यह केंद्र खोलने के लिए केवल 48 जिले ही बाकी रह गए हैं।
सरकार हर योजना में पीपीपी मॉडल लाकर उनका निजीकरण करने की सोचती है। निजी क्षेत्रों में अस्पताल हैं और उनमे से कुछ बेहद अच्छे भी हैं। ऐसे अस्पतालों को सरकार रियायती दर पर ज़मीन देती है पर ये अस्पताल गरीब वर्ग की चिकित्सा में रुचि नहीं दिखाते हैं। हालांकि अदालतों के ऐसे आदेश भी हैं कि ऐसे अस्पताल, गरीब वर्ग के लिये कुछ प्रतिशत बेड सुरक्षित करें। सन 2000 ई में न्यायाधीश ए. एस. कुरैशी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी थी जिसका उद्देश्य निजी अस्पतालों में गरीबों के लिए निशुल्क उपचार से संबंधित दिशानिर्देश तय करना था। इस कमेटी ने सिफारिश की कि, रियायती दरों में जमीन हासिल करने वाले निजी अस्पतालों में इन-पेशेंट विभाग में 10 फीसदी और आउट पेशेंट विभाग में 25 फीसदी बेड गरीबों के लिए आरक्षित रखने होंगे। लेकिन यह धरातल पर नहीं हो रहा है।
कोविड-19 महामारी जन्य स्वास्थ्य आपातकाल (COVID-19 Epidemic Public Health Emergency) से बहुत पहले ही सर्वोच्च् न्यायालय ने ईडब्ल्यूएस ( दुर्बल आय वर्ग ) के मरीजों की पहुंच निजी स्वास्थ्य सेवाओं तक हो सके, इसलिए उनके हक़ में, एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था। जुलाई 2018 के उक्त फैसले में सर्वोच्च् न्यायालय ने उन निजी अस्पतालों को, जो सरकारी रियायती दरों पर भूमि प्राप्त कर बने हैं को, आदेश दिया था कि, वे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के मरीजों को निशुल्क उपचार मुहैया कराएं। अदालत के अनुसार,
"अगर अस्पताल इस आदेश का अनुपालन नहीं करेंगे तो उनकी मान्यता रद्द कर दी जाएगी।"
अब सवाल उठता है कि अदालत के इन निर्देशों का पालन हो रहा है या नहीं, इसे कौन सुनिश्चित करेगा ? उत्तर है सरकार। पर सरकार क्या इसे मॉनिटर कर रही है ? क्या सरकार ने ऐसा कोई तंत्र विकसित किया है जो नियमित इन सबकी पड़ताल कर रहा है।
हिंदी वेबसाइट कारवां के कुछ लेखों के अनुसार, सोशल जूरिस्ट नाम के एनजीओ के संचालक अशोक अग्रवाल कहते हैं,
“सरकारी जमीन पर बने दिल्ली के निजी अस्पतालों की पहचान की जा चुकी है। और उनमें आज कम से कम 550 बेड ईडब्ल्यूएस मरीजों के लिए आरक्षित हैं.”
अग्रवाल नियमित रूप से जनहित याचिका दायर कर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के स्वास्थ्य और शैक्षिक अधिकारों को सुनिश्चित करने का प्रयास करते रहते हैं।
2002 में सोशल जूरिस्ट ने 20 निजी अस्पतालों के खिलाफ दिल्ली उच्च अदालत में याचिका दायर की थी, क्योंकि इन अस्पतालों ने गरीबों का निशुल्क इलाज नहीं किया था।
मार्च 2007 के फैसले में उच्च न्यायालय ने कहा था कि न्यायाधीश कुरैशी समिति ने जो अनुशंसा की थी उनका पालन सिर्फ याचिका में उल्लेखित प्रतिवादी अस्पतालों को नहीं करना है बल्कि उनके जैसी स्थिति वाले सभी अस्पतालों को करना है। यह आदेश केवल दिल्ली के अस्पतालों के लिये नहीं है बल्कि देश भर के अस्पतालों के लिये दिया गया है। इसे मॉनीटर करने की जिम्मेदारी केवल केंद्र सरकार पर ही नहीं बल्कि समस्त राज्य सरकारों पर भी है।
एक शोध पत्र के अनुसार, जो कारवां वेबसाइट पर है,
"एक बड़ी समस्या यह है कि नियमों के होने के बावजूद निजी स्वास्थ्य क्षेत्र नियमों का पालन नहीं करते हैं। डीजीएचएस के 14 मई के आदेश में यह बात दिखाई देती है। उस आदेश में डीजीएचएस ने निर्देश दिया था कि ईडब्ल्यूएस मरीजों के संबंध में जो नियम हैं उनका पालन अस्पताल करें। आदेश में लिखा है, “हमारे ध्यान में लाया गया है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने चिन्हित अस्पतालों को पात्र मरीजों को निशुल्क उपचार देने के संबंध में जो निर्देश दिए हैं, उन नियमों के विपरीत जाकर ये अस्पताल ऐसे मरीजों से कोविड-19 किटी या जांच की फीस वसूल रहे हैं. ऐसा करना सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन है.” महानिदेशालय ने सभी चिन्हित निजी अस्पतालों को ईडब्ल्यूएस मरीजों को निशुल्क उपचार मुहैया कराने का आदेश देते हुए कहा है,
“यदि ईडब्ल्यूएस के मरीज को उपचार देने से इनकार किया जाता है तो आवश्यक कार्रवाई की जाएगी.”
लेकिन अदालत के इस आदेश के बावजूद चीजें नहीं बदलीं है। निजी क्षेत्र द्वारा नियमों की अवहेलना का एक उदाहरण सोशल जूरिस्ट ने दिया जो इस प्रकार है।
“1997 से दिल्ली सरकार ने दिल्ली सरकार कर्मचारी स्वास्थ्य योजना (डीजीईएचएस) के तहत अपने कर्मचारियों और पेंशनधारियों का इलाज राहत दरों में करने वाले निजी अस्पतालों का पैनल बनाया था। जब ज्यादा मरीजों का सीजन होता है तो ये अस्पताल मरीजों को बेड देने से इनकार करते हैं। ये लोग उनको भाव देते हैं जो पैसा खर्च करते हैं. यह एक तरह का फ्रॉड है. अगर ये अस्पताल जरूरत के समय मरीजों का उपचार नहीं करेंगे तो मरीजों को वहां भेजा ही क्यों जाए? उन्हें पैनल में रखना ही क्यों?”
9 जून के डीजीएचएस के आदेश में लिखा है कि निजी अस्पताल डीजीईएचएस के उन लाभार्थियों को जिनमें कोविड-19 संक्रमण का शक है या जिन्हें कोविड-19 संक्रमण है उन्हें तब तक भर्ती नहीं कर रहे जब तक कि ऐसे मरीज भारी-भरकम फीस जमा नहीं कर रहे।
उस आदेश में लिखा है कि अस्पताल सामान्य दर पर मरीजों का इलाज कर रहे हैं जबकि उन्हें राहत दरों में उपचार करना चाहिए। आदेश में पैनल के अस्पतालों को याद दिलाया गया है कि
"उन्हें कोविड-19 सहित सभी रोगों का इलाज स्वीकृत दरों में या पेंशनरों के मामले में निशुल्क करना होगा. अग्रवाल ने समझाया कि सरकारी स्वास्थ्य उपचार योजना के लाभार्थी सरकारी अस्पताल में उपचार नहीं कराना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि वे निजी अस्पताल में इलाज कराने के पात्र हैं. दूसरा कारण सरकारी अस्पतालों की खस्ता हालत है. गरीब से गरीब आदमी भी इन अस्पतालों में नहीं जाना चाहता।"
कोरोना ने जिंदगी जीने का तरीका बदल दिया है। बदले हालात में सरकारी से लेकर निजी चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सा सेवा की सेहत व चाल बदलने लगी है। इससे देश भर में स्वास्थ्य सेवाओं और डॉक्टरों सहित स्वास्थ्य कर्मियों पर मानसिक, शारीरिक और प्रोफेशनल रूप से असर पड़ा है। शुरू में पीपीई किट, अस्पतालों में दवा, वेंटिलेटर के अभाव, बेड की अनुपलब्धता और जांच की समस्या तथा कोरोना से जुड़े भय ने, स्वास्थ सेवाओ को लगभग बेपटरी कर दिया है। अधिकतर चिकित्सक कोरोना के अतिरिक्त अन्य मरीजों को भी ठीक से न तो देख पा रहे थे और न ही, उनका नियमित इलाज कर पा रहे है। कई ऐसे भी चिकित्सक हैं जिन्होंने कोरोना के डर से अपने क्लीनिक बंद कर दिये तो कई चिकित्सक ऐसे भी हैं, जो चिकित्सा को सेवा भावना के समकक्ष रख मरीजों का इलाज करने में जुटे हैं।
अधिकतर निजी अस्पताल प्रबंधन कह रहे हैं कि कोरोना से निपटने के लिए लंबी लड़ाई लड़ने के लिए वृहत पैमाने पर कार्ययोजना बनानी होगी। किसी भी तंत्र की परख और परीक्षा संकट काल में ही होती है, और कोरोना के इस संकट, आफत और आपातकाल ने हमारी स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर और सरकारों की उनके प्रति नीयत तथा उदासीनता को उधेड़ कर रख दिया है।
आज़ादी के पहले से अंग्रेजों ने देश भर में सिविल अस्पताल और कुछ मेडिकल कॉलेज खोले थे। लेकिन आज़ादी के बाद सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत देश भर में अस्पताल, प्राइमरी हेल्थ और कम्युनिटी हेल्थ सेंटर के रूप में सरकारी चिकित्सा सेवाओं का एक संजाल बिछाना शुरू कर दिया था। तब भी निजी अस्पताल थे पर कम थे। तब अधिकतर निजी अस्पताल, किसी ट्रस्ट या, धर्मादा द्वारा संचालित थे, जो मूलतः व्यावसायिक मनोवृत्ति के नहीं थे, बल्कि उनका उद्देश्य चैरिटी था। पर बाद में बड़े धनपतियों ने चैरिटी पर आधारित अस्पताल बनवाने और संचालित करने बंद कर दिए और 'दुनिया में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता है' के स्वार्थी पूंजीवादी सिद्धांत पर महंगे अस्पताल बनवाने और संचालित करने लगे। अस्पताल अब उद्योग हो गया और वह जितना गुड़ डालियेगा उतना मीठा होगा, के सिद्धांत पर चलने लगे। इसी के साथ साथ मेडिक्लेम जैसी चिकित्सा बीमा की योजनाएं आने लगीं और इससे निजी अस्पतालों की एक नयी संस्कृति ही विकसित होने लगी।
सरकारी अस्पताल कभी बजट की कमी से, तो कभी प्रशासनिक लापरवाही से तो कभी भ्रष्टाचार के कारण तो कभी निजी अस्पतालों के साथ सांठ-गांठ से उपेक्षित होते चले गए और एक समय यह भी आया कि सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ही अपने मरीजों को उचित चिकित्सा के लिये निजी अस्पतालों के नाम बताने लगे और सरकार द्वारा निजी प्रैक्टिस पर रोक और नॉन प्रैक्टिसिंग भत्ता के बाद भी उनका झुकाव निजी अस्पतालों की ओर बना रहा। जिनके पास पैसा है, जिन्होंने मेडिक्लेम करा रखा है या जिनको सरकार और कंपनियों द्वारा चिकित्सा प्रतिपूर्ति की सुविधाएं हैं उन्हें तो कोई बहुत समस्याएं नहीं हुयी पर उन लोगों को जो असंगठित क्षेत्र में है और ऐसी किसी सुविधा से वंचित हैं, वे या तो अपनी जमा पूंजी बेचकर निजी अस्पतालों में इलाज कराते हैं या फिर अल्प सांधन युक्त सरकारी अस्पताल की शरण में जाते हैं।
The first objective of a public welfare state is to provide health and education facilities to all citizens.
लोककल्याणकारी राज्य का पहला उद्देश्य ही है स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधा सब नागरिकों को मिले। लेकिन सरकार स्वास्थ्य बीमा की बात करती है, पर बेहतर सरकारी अस्पतालों की बात नहीं करती है। सरकार का कोई भी नियंत्रण निजी अस्पतालों द्वारा लगाए गए शुल्क पर नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह निजी अस्पतालों के चिकित्सा दर को एक उच्चस्तरीय कमेटी बना कर कम से कम ऐसा तो कर ही दे, जिससे लोगो को उनकी आर्थिक क्षमता के अनुरूप स्वास्थ्य सुविधाएं तो मिल सके। अगर सरकार ने चिकित्सा क्षेत्र में सरकारी अस्पतालों के प्रति उदासीनता बरतनी शुरू कर दी तो अनाप-शनाप फीस लेने वाले निजी अस्पतालों का एक ऐसा मकड़जाल खड़ा हो जाएगा जो देश की साठ प्रतिशत आबादी को उचित चिकित्सा के अधिकार से वंचित कर देगा। सरकार द्वारा जिला अस्पतालों को पीपीपी मॉडल पर सौंपना, पूरी चिकित्सा सेवा के निजीकरण और सभी अस्पतालों को पूंजीपतियों को बेच देने का एक छुपा पर साथ ही अपना एजेंडा भी है।
भारत में ही, पहले भी सामुदायिक स्वास्थ्य के लिये मलेरिया, डिप्थीरिया, पोलियो, चेचक आदि संक्रामक रोगों से बचाव के लिये सघन टीकाकरण कार्यक्रम चलाए गए हैं, और यह सब एक अभियान के अंतर्गत निःशुल्क ही चलाये गए थे। लेकिन जब खुली अर्थव्यवस्था का दौर आया तो सब कुछ निजीकरण के उन्माद में सरकार ने अपनी सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी स्वास्थ्य को भी निजी क्षेत्रों के हवाले छोड़ दिया और पीपीपी मॉडल की बात करने लगी।
निजी अस्पतालों का विकास हो, उन्हें सरकार जो सुविधा देना चाहे वह दे भी, पर सरकारी अस्पताल या सरकारी चिकित्सा इंफ्रास्ट्रक्चर जिंसमें गांव के प्राइमरी हेल्थ सेंटर से लेकर एम्स जैसे सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल और चिकित्सा विज्ञान संस्थान हैं, की उपेक्षा तो न हो। अगर शिक्षा और चिकित्सा की मूलभूत सुविधाएं आम जनता को सरकार उपलब्ध नहीं करा सकती तो लोककल्याणकारी राज्य की बात करना महज एक पाखंड ही होगा।
सरकार कोई साहूकार नहीं है जो हर काम व्यावसायिक लाभ के लिये ही करे। सरकार को चाहिए कि, वह एक सुगठित चिकित्सा तंत्र को विकसित करे जिससे समाज के उंस तबके को भी उपयुक्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो, जो बड़े कॉरपोरेट अस्पतालों में धनाभाव के कारण इलाज कराने में सक्षम नहीं है। यह सरकार की कृपा नहीं बल्कि सरकार का दायित्व है और सरकारें इसीलिए चुनी भी जाती हैं।
विजय शंकर सिंह