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उत्तर भारत, मध्य भारत व दक्षिण के कुछ शहर गर्मी में झुलस रहे हैं और ये शहर दुनिया के सबसे गर्म शहरों में से एक हैं। इस ग्रीष्म लहर के अभी कुछ दिन तक कम होने के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं और उत्तर के मैदान बुरी तरह तप रहे हैं। विश्व के 15 सर्वाधिक गर्म शहरों में अकेले दस भारत के हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक राजस्थान का चुरू 50 डिग्री सेल्सियस (122 डिग्री फॉरेनहाइट) के साथ सर्वाधिक गर्म शहर था।

इस गर्मी की घटना को एक खबर की तरह सुनने या पढ़ने के बीच क्या कभी आपने यह सोचने की जहमत भी उठाई है कि विगत कुछ वर्षों में मौसम में ऐसा परिवर्तन कैसे हो रहा है कि गर्मी भी बेतहाशा और कभी सर्दी व बाढ़ भी बेतहाशा !

जी हां, यह पिछले कुछ वर्षों में पूरी दुनिया के स्तर पर पर्यावरण मानकों की अनदेखी कर अंधाधुंध और अनियंत्रित औद्योगीकरण व विकास के नाम पर जंगलों के कटान (Forest cutting) के परिणामस्वरूप हो रहे प्रदूषण (Pollution) के चलते जो जलवायु परिवर्तन (Climate Change) हो रहा है, यह बेतहाशा गर्मी उसी का परिणाम है।

इसके साथ ही आपने कभी सोचा है कि अगर इसी तरह मौसम बदलता रहा तो इसका असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा ?

इसके लिए भारत और दुनिया के संदर्भ में हाल के कुछ शोध व अध्ययनों पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि भारत क्या पूरी दुनिया विनाश के मुहाने पर खड़ी है और समय रहते अगर हम न चेते तो इस धरती पर जीवन भी मुश्किल हो जाएगा।

संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की जलवायु परिवर्तन पर बीते वर्ष अक्टूबर माह में जारी की गई

रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि वैश्विक तापमान (Global temperature) उम्मीद से अधिक तेज गति से बढ़ रहा है।

रिपोर्ट कहती है कि यदि कार्बन उत्सर्जन (Carbon emission) में समय रहते कटौती के लिए कदम नहीं उठाए जाते तो इसका विनाशकारी प्रभाव हो सकता है।

मानवीय गतिविधियों की वजह से वैश्विक तापमान (औद्योगिक क्रांति से पूर्व की तुलना में) पहले ही एक डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ गया है। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि इसी दर से धरती गरम होती रही तो वर्ष 2030 और 2052 के बीच ग्लोबल वार्मिंग का स्तर बढ़कर 1.5 डिग्री तक पहुंच सकता है। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि भारत उन प्रमुख देशों में है जो ग्लोबल वार्मिंग से होने वाले नुकसान को झेलने में अव्वल होगा।

एक अन्य भारतीय पर्यावरण संस्था (Indian Environmental organization) क्लाइमेट ट्रेंड्स (Climate Trends) की एक रिपोर्ट सरकारी आंकड़ों पर आधारित एक अध्ययन के हवाले से बताती है कि तीव्र मौसम की घटनाओं के कारण भारत में प्रतिवर्ष लगभग 5600 लोग अथवा पांच व्यक्ति प्रति मिलियन काल कवलित हो जाते हैं। भारत में कुल आकस्मिक मौतों की एक चौथाई आकस्मिक मौतें प्राकृतिक आपदाओं के कारण होती हैं। यह संख्या कम अनुमानित होने की संभावना है क्योंकि सूखे से हुई मौतें इसमें शामिल नहीं हैं, उदाहरण के लिए 2015-16 के भारतीय सूखे से लगभग 330 मिलियन लोग प्रभावित हुए।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव तथाकथित विकास के मुद्दे पर संपन्न भी हो गया और प्राकृतिक आपदाओं के कारण इतनी अधिक संख्या में नागरिकों की मौतें न तो किसी राजनीतिक दल के लिए मुद्दा बन पाईं न स्वयं सरकार अपने ही आंकड़ों को देख पा रही है ।

क्लाइमेट ट्रेंड्स की ही यह रिपोर्ट भी बताती है कि जलवायु परिवर्तन भारत में असमानता के अंतर को बढ़ा देगा और गरीबों पर इसकी ज्यादा मार पड़ेगी।

विश्व मौसम संगठन ने भी पिछले दिनों एक रिपोर्ट जारी की थी और उस रिपोर्ट में जारी आंकड़े स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि पिछले चार वर्ष में दुनिया सबसे ज्यादा गर्म थी।

लैंसेट काउंटडाउन 2018 के मुताबिक वर्ष 2017 में दुनिया भर में 157 मिलियन से अधिक लोग ग्रीष्मलहर (हीटवेव) की चपेट में थे। 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान के दिनों में जाहिर तौर पर जनजीवन ठप्प पड़ जाता है और भारत जैसे देश की अर्थव्यवस्था पर इसके दूरगामी प्रभाव होते हैं।

पर्यावरण कार्यकर्ता गुंजन जैन का कहना है कि वर्ष 2017 में ग्रीष्म लहर के चलते भारत को 75 बिलियन से अधिक श्रम घंटों की हानि हुई जो कुल वैश्विक हानि का 48.8% और भारत की कुल कार्यशील आबादी का 7% है।

विगत वर्ष नेचर पत्रिका में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) गांधीनगर, गुजरात के विमल मिश्रा और सौरव मुखर्जी द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र में कहा गया था कि दो डिग्री सेल्सियस वार्मिंग परिदृश्य के तहत भारत में ग्रीष्म लहर में छह गुना वृद्धि हो सकती है। इसके मुताबिक गंभीर प्रभावों के साथ ग्रीष्म लहर बढ़ रही है जिससे भारत की जलवायु और गर्म होने की आशंका है। दिन व रात में चलने वाली ग्रीष्म लहर मानव जीवन को अस्त व्यस्त कर सकती है और इसके चलते रोगियों की संख्या में बड़ा इजाफा हो सकता है और मृत्यु दर बढ़ सकती है।

इसी शोधपत्र के परिणाम बताते हैं कि एक और तीन के समवर्ती गर्म दिन और गर्म रातों की भारत की जलवायु में काफी वृद्धि हुई है और इस घटना के लिए मानवजनित उत्सर्जन काफी जिम्मदार है।

सन् 1984 के बाद से पश्चिमी और दक्षिणी भारत में ग्रीष्म लहर की घटनाओं में तीव्रता से वृद्धि हुई है। इसमें भी देखने वाली बात यह है कि दिन में ग्रीष्मलहर की अपेक्षा रात में ग्रीष्म लहर तेज होने की घटनाओं में अधिक वृद्धि हुई है।

हालांकि, भारत-गंगा के मैदान और पूर्वी हिस्सों में एक और तीन-दिवसीय ग्रीष्म लहर की घटनाओं की आवृत्ति में कुछ गिरावट देखने को मिली है, जो कि स्थानीय सिंचाई संसाधनों और वायुमंडलीय एरोसोल के कारण हो सकता है।

तीन दिवसीय समवर्ती गर्म दिन और गर्म रातों की आवृत्ति आरसीपी 8.5 के उच्च उत्सर्जन पथ के तहत 21वीं सदी के अंत तक 12 गुना बढ़ने और 21वीं सदी के मध्य तक चार गुना बढ़ने की आशंका है। तीन दिवसीय समवर्ती गर्म दिन और गर्म रातों को 21वीं सदी सदी के अंत तक केवल दोगुना तक सीमित करने का एक ही रास्ता है कि उत्सर्जन को कम करके RCP 2.6 पर रोका जाए। यदि वैश्विक औसत तापमान पर पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री से नीचे प्रतिबंध लगाया जाता है तभी भारत में एक और तीन-दिवसीय ग्रीष्म लहर की घटनाओं और उससे जुड़े जोखिम को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

इसलिए अब जब गर्मी ज्यादा हो तो मौसम और प्रकृति को दोष देने के बजाय तथाकथित ‘विकास’ की भूख, अनियंत्रित औद्योगीकरण, जंगलों के कटान और निश्चित तौर पर सरकारों की अकर्मण्यता और पर्यावरण के प्रति हमारे रहनुमाओं की असंवेदनशीलता को भी धिक्कारिएगा। और निश्चित तौर पर इन सब कारकों के पीछे एक केंद्रीय कारक कॉरपोरेट्स की मुनाफे की भूख भी है। यानी प्रकृति का सत्यानाश करके अकूत मुनाफा कमाएं कॉरपोरेट्स और उसके दुष्परिणाम भुगते आम जनता।

अमलेन्दु उपाध्याय

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक समीक्षक व टीवी पैनलिस्ट हैं।)

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