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Swami Vivekananda's thoughts about cow protection and human safety

Hindi Article by L.S. Hardenia - Vivekanand on Cow Protection

मध्यप्रदेश सरकार ने गायों की देखरेख के लिए उपकर लगाने का फैसला किया है। इस संबंध में विभिन्न प्रतिक्रियाएं हुई हैं। यहां हम गौरक्षा एवं इंसान की रक्षा के बारे में स्वामी विवेकानंद के विचार प्रकाशित कर रहे हैं। उनके विचारों को हमने रामकृष्ण मठ, नागपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘विवेकानंदजी के संग में’ से लिया है। इस पुस्तक के लेखक श्री शरच्चन्द्र चक्रवर्ती हैं।

साथ ही मीडिया में आ रही टिप्पणियों में से हम प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिंक ‘द टाईम्स ऑफ़ इंडिया’ के संपादकीय का अनुवाद भी प्रकाशित कर रहे हैं।

एल. एस. हरदेनिया

स्वामी विवेकानंद के गोरक्षा पर विचार | Swami Vivekananda's thoughts on cow protection

गोरक्षण सभा के एक उद्योगी प्रचारक स्वामीजी के दर्शन के लिए साधु-सन्यासियों का सा वेष धारण किए हुए आए। उनके मस्तक पर गेरूए रंग की एक पगड़ी थी। देखते ही जान पड़ता था कि वे हिन्दुस्तानी हैं। इन प्रचारक के आगमन का समाचार पाते ही स्वामीजी कमरे से बाहर आए। प्रचारक ने स्वामीजी का

अभिवादन किया और गौमाता का एक चित्र उनको दिया। स्वामीजी ने उसे ले लिया और पास बैठे हुए किसी व्यक्ति को वह देकर प्रचारक से निम्नलिखित वार्तालाप करने लगे -

स्वामीजी - आप लोगों की सभा का उद्देश्य क्या है?

प्रचारक - हम लोग देश की गौमाताओं को कसाई के हाथों से बचाते हैं। स्थान-स्थान पर गोशालाएं स्थापित की गई हैं जहां रोगग्रस्त, दुर्बल और कसाईयों से मोल ली हुई गोमाता का पालन किया जाता है।

स्वामीजी- बड़ी प्रशंसा की बात है। सभा की आय कैसे होती है?

प्रचारक- आप जैसे धर्मात्मा जनों की कृपा से जो कुछ प्राप्त होता है, उसी से सभा का कार्य चलता है।

स्वामीजी - आपकी नगद पूंजी कितनी है?

प्रचारक - मारवाड़ी वैश्य सम्प्रदाय इस कार्य में विशेष सहायता देता है वे इस सत्कार्य में बहुत सा धन प्रदान करते हैं।

स्वामीजी - मध्य भारत में इस वर्ष भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा है। भारत सरकार ने घोषित किया है कि नौ लाख लोग अन्नकष्ट से मर गए हैं। क्या आपकी सभा ने इस दुर्भिक्ष में कोई सहायता करने का आयोजन किया है?

प्रचारक- हम दुर्भिक्षादि में कुछ सहायता नहीं करते। केवल गोमाता की रक्षा करने के उद्देश्य से यह सभा स्थापित हुई है।

स्वामीजी- आपके देखते-देखते इस दुर्भिक्षादि में आपको लाखों भाई कराल काल के चंगुल में फंस गए। आप लोगों के पास बहुत नगद रूपया जमा होते हुए भी क्या उनको एक मुट्ठी अन्न देकर इस भीषण दुर्दिन में उनकी सहायता करना उचित नहीं समझा गया?

प्रचारक – नहीं, मनुष्य के कर्मफल अर्थात पापों से यह दुर्भिक्ष पड़ा था। उन्होंने कर्मानुसार फलभोग किया। जैसे कर्म हैं वैसा ही फल हुआ है।

प्रचारक की बात सुनते ही स्वामीजी के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी और ऐसा मालूम होने लगा कि उनके नयनप्रान्त से अग्निकण स्फुरित हो रहे हैं। परंतु अपने को संभालकर वे बोले, “जो सभा-समिति मनुष्यों से सहानुभूति नहीं रखती, अपने भाईयों को बिना अन्न मरते देखकर भी उनकी रक्षा के निमित्त एक मुट्ठी अन्न से सहायता करने को उद्यत नहीं होती तथा पषु-पक्षियों के निमित्त हजारों रूपये व्यय कर रही है, उस सभा-समिति से मैं लेशमात्र भी सहानुभूति नहीं रखता। उससे मनुष्य समाज का विशेष कुछ उपकार होना असंभव सा जान पड़ता है। ‘अपने कर्मफल से मनुष्य मरते हैं!’ इस प्रकार की बातों में कर्मफल का आश्रय लेने से किसी विषय में जगत में कोई भी उद्योग करना व्यर्थ है। यदि यह प्रमाण स्वीकार कर लिया जाए जो पशु-रक्षा का काम भी इसी के अंतर्गत आता है। तुम्हारे पक्ष में भी कहा जा सकता है कि गोमाताएं अपने कर्मफल से कसाईयों के पास पहुंचती हैं और मारी जाती हैं - इससे उनकी रक्षा का उद्योग करने का कोई प्रयोजन नहीं है।’’

प्रचारक कुछ लज्जित होकर बोला – “हां महाराज, आपने जो कहा वह सत्य है, परंतु शास्त्र में लिखा है कि गौ हमारी माता है’’।

स्वामीजी हंसकर बोले- “जी हां, गौ हमारी माता है यह मैं भलीभांति समझता हूं। यदि यह न होती तो ऐसी कृतकृत्य संतान और दूसरा कौन प्रसव करता?”

प्रचारक इस विषय पर और कुछ नहीं बोले। शायद स्वामीजी की हंसी प्रचारक की समझ में नहीं आई। आगे स्वामीजी से उन्होंने कहा “इस समिति की ओर से आपके सम्मुख भिक्षा के लिए उपस्थित हुआ हूं।’’

स्वामीजी - मैं साधु-सन्यासी हूं। रूपया मेरे पास कहां है कि मैं आपकी सहायता करूं? परंतु यह भी कहता हूं कि यदि कभी मेरे पास धन आए तो मैं प्रथम उस धन को मनुष्य सेवा में व्यय करूंगा। सब से पहले मनुष्य की रक्षा आवश्यक है – अन्नदान, धर्मदान, विद्यादान करना पड़ेगा। इन कामों को करके यदि कुछ रूपया बचेगा तो आपकी समिति को दे दूंगा।

इन बातों को सुनकर प्रचारक स्वामीजी का अभिवादन करके चले गए। तब स्वामीजी ने कहा “देखो कैसे अचम्भे की बात उन्होंने बतलायी! कहा कि मनुष्य अपने कर्मफल से मरता है, उस पर दया करने से क्या होगा? हमारे देश के पतन का अनुमान इसी बात से किया जा सकता है। तुम्हारे हिन्दू धर्म का कर्मवाद कहां जाकर पहुंचा? जिस मनुष्य का मनुष्य के लिए जी नहीं दुखता वह अपने को मनुष्य कैसे कहता है?’’

इन बातों को कहने के साथ ही स्वामीजी का शरीर क्षोभ और दुःख से सनसना उठा।

द टाइम्स ऑफ़ इंडिया का संपादकीय | The Times of India Editorial

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने गायों के चतुर्दिक कल्याण के लिए एक उपकर लगाने का फैसला किया है। चौहान ने उपकर लगाने के विचार की घोषणा गौ केबिनेट की पहली बैठक में की। गौ केबिनेट में छःह विभागों को शामिल किया गया है। ये हैं गृह, राजस्व, पशुपालन, कृषि, पंचायत और वन।

गाय कई लोगों के लिए पूजनीय पशु है। परंतु जब मध्यप्रदेश मानव विकास के अनेक क्षेत्रों में पीछे है ऐसे में पशुओं के कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के लिए स्थिति बेहतर होने का इंतजार किया जाना चाहिए। कम से कम अभी पशुओं के कल्याण के लिए उपकर लगाना औचित्यपूर्ण नजर नहीं आता। इस तरह का कर उन क्षेत्रों के लिए लगाना उचित होगा जिनमें विकास के लिए वित्तीय स्रोतों की कमी है।

केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार मध्यप्रदेश के स्कूलों में चालू स्थिति में कम्प्यूटरों का प्रतिशत 2.57 है। जबकि राष्ट्रीय औसत 20.3 प्रतिशत है। प्राप्त तुलनात्मक आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में यह प्रतिशत 87.5 है। केरल में 72.4 और गुजरात व महाराष्ट्र में 56 है।

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी मध्यप्रदेश काफी पिछड़ा हुआ है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर प्रति एक लाख जनसंख्या पर 2.8 महाविद्यालय हैं। जबकि मध्यप्रदेश में इनकी संख्या 2.4 है।

ताजा सेम्पल रजिस्ट्रेशन प्रणाली बुलेटिन के अनुसार मध्यप्रदेश में शिशु मृत्यु दर देश में सबसे अधिक है व मातृ मृत्यु दर के मामले में भी प्रदेश नीचे से तीसरे नंबर पर है। ये आंकड़े चीख-चीखकर बता रहे हैं कि शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ाने की बहुत ही ज्यादा आवश्यकता है। इसी तरह के हस्तक्षेप से मानव संसाधन बेहतर बन सकते हैं।

मध्यप्रदेश में शासकीय नौकरियां राज्य के निवासियों के लिए आरक्षित की गई हैं। इस तरह की नकारात्मक नीतियों से प्रदेश में होने वाले निवेश पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। गाय की राजनीति भले ही प्रतियोगात्मक लोकप्रियता के लिए जरूरी हो परंतु प्रबुद्ध, उदारमना राजनीति की मांग है कि हर मामले में इंसान को प्राथमिकता दी जाए। इसी तरह अंडे के स्थान पर आंगनवाड़ी के मेनू में दूध शामिल करना एक संकुचित वैचारिक दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय है। इसके बजाए सभी राज्यों को कर्नाटक के उदाहरण से प्रेरणा लेनी चाहिए जहां बच्चों के कुपोषण को दूर करने के लिए प्रोटीनयुक्त अंडे और दूध दोनों का लाभ दिया जाता है। शाकाहार व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का मामला है और उसे राजसत्ता द्वारा नहीं लादा जाना चाहिए।

गाय के कल्याण के मसले को नागरिकों और उनके संगठनों पर छोड़ दिया जाना चाहिए।