Hastakshep.com-आपकी नज़र-Contemporary poetry-contemporary-poetry-कविता की आलोचना-kvitaa-kii-aalocnaa-नयी कविता-nyii-kvitaa-मासिक धर्म-maasik-dhrm-समकालीन कविता-smkaaliin-kvitaa-साहित्य की जननी-saahity-kii-jnnii-हिंदी कविता-hindii-kvitaa

Hindi poetry has become a dead body

कितनी ही सुंदर हो, कितने ही जेवरात सजे हों, सेज फूलों से लबालब लदी फन्दी हो, अगरबत्ती और चंदन की खुशबू हो, लेकिन उसकी सड़ांध सही नहीं जाती।

हिंदी कविता में तत्सम शब्दों का, विशुद्धता का, भाषिक दक्षता का, बाजार की ब्रान्डिंग का, अमेज़न की मार्केटिंग का, इंटरनेट आधारित अंतर्राष्ट्रीयता का, राष्ट्र, धर्म,जाति, वर्ग, कुलीनता और अस्पृश्यता का, महानगरों का वर्चस्व इतना प्रलयंकर है कि केदार आपदा की तरह  सारे गांव, शिखर, घाटियां, पगडंडियां और आबादियां सिरे से गायब हो गयी हैं।

हिंदी कविता सिरे से महानगरीय हो गयी है।

हिंदी कविता सत्ता की राजनीति की दासी हो गयी है।

हिंदी कविता पार्टियां के रंगों से सराबोर है।

हिंदी कविता इतिहास और परम्परा से कटी है।

हिंदी कविता चरित्र से विदेशी हो गयी है और विदेशी कविताओं के अनुवाद में तब्दील हो गयी है।

हिंदी कविता के मुहावरे मर गए हैं।

हिंदी कविता में भदेस और लोक से घृणा का स्थायी भाव बन गया है।

कमोबेश यह दुर्गति सभी भारतीय भाषाओं की कविता की है।

हिंदी कवि चरित्र से कायर शुतुरमुर्ग बन गए हैं, जो कोरोना काल में अपने-अपने दड़बे से चौबीसों घण्टे लाइव जरूर हैं, लेकिन उनमें समाज और देश को बदलने के ख्वाब जनमानस में पैदा कर देने की कुव्वत नहीं है और न ही ऐसा करने का उनका कोई इरादा है।

बड़े, अंतरराष्ट्रीय, पुरस्कृत और प्रतिष्ठित कवियों ने भारतीय भाषाओं की कविता की यह दुर्गति कर दी है।

उन्होंने माफिया की तरह गिरोह बना लिए हैं और उनके किले इतने दुर्जेय हैं कि वहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता। नई कविता की भ्रूणहत्या करने वाले नवधनाढ्य सामन्त बन गए हैं वे।

नये कवि उन्हीं का अनुकरण करते हैं और लोक की उन्हें कोई परवाह नही है और महानगरों से बाहर गंदगी, सड़ांध, बेरोज़गारी, भुखमरी, अस्पृश्यता से जद्दोजहद करती ज़िंदगी की धड़कनों से उनका कोई नाता नहीं है।

कविता में सब कुछ बेजान शब्द बनकर

रह जाता है। उसमें रूप रस गन्ध के जरिये पाठक के इंद्रियों को स्पर्श करने की कोई कारगर कोशिश नहीं होती।

गांव और किसान से लेकर हरिजन टोले की बात होती है लेकिन मिट्टी कीचड़ नहीं, सीमेंट के जंगल में कैद बौद्धिकता के तिलिस्म में पाठक के लापता हो जाने के अलावा उसका कोई दूसरा प्रभाव नहीं होता।

कविता न दिलों तक पहुंचती है और न दिमाग के तारों में कोई संगीत पैदा करती है।

कविता पढ़ने का कोई आनन्द नहीं होता। मज़ा नहीं आता। कोई पंक्ति किसी को याद भी नहीं रहती

पढ़ने के बाद कविता किसीको अपने जादू में गिरफ्तार नहीं करती और न उसकी गूंज कही सुनाई पड़ती है। बच्चे ऐसी बेरस बेजान कविता का पाठ नहीं कर सकते और न बाबुलन्द आवाज बनकर अभिव्यक्त हो पाती है कविता और न वह सुर और संगीत में समाहित हो सकती है।

नये रचनाकार जल्द से जल्द छपकर मशहूर होकर अमिताभ बच्चन बन जाने की फिराक में हैं।

बड़े कवियों का झोला उठाकर यह काम आसानी से कर लेने का उनका जुगाड़ है। उनके साथ अपनी सेल्फी लगाकर वे लिटरेचर फेस्टिवल में शामिल होकर खुद को बड़े कवि समझने लगे हैं।

दूतावासों, हिंदी के सत्ता प्रतिष्ठानों और विदेशों में वर्गीय जातीय पारिवारिक सम्पर्कों के जरिये अपनी बेहद घटिया और ज़िंदगी से कटी कविताओं का अनुवाद छपवाकर और वहां से पुरस्कृत होकर इन कवियों ने हिंदी कविता की हत्या कर दी है।

इनकी कविताएँ जनता न पढती है और न सुनती हैं। जनता उन्हें जानती तक नहीं है।

वे हाथी दांत के मिनारों में बैठकर महारानी क्लियोपेट्रा की तरह दुनिया को फतह कर लेने की गलतफहमी में हैं।

बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन शास्त्री जैसे हिंदी के शीर्ष कवि लोक में गहरे पैठे थे। छायावादी कवियों का भी समाज और सामाजिक यथार्थ, प्रकृति और पृथ्वी से जितना नाता था, वह मुक्तबाजार के कवियों का नहीं है।

महाकवि निराला की कविता वह पत्थर तोड़ती या त्रिलोचन की कविता काला आखर नहीं चीन्हती चंपा से हिंदी कविता खान कितने आगे बढ़ी है?

अभी तक हिंदी कविता मुक्तिबोध के अंधेरे में चौराहे पर दिग्भ्रमित क्यों है?

मुक्तिबोध और शमशेर बहादुर सिंह जैसे कवियों की कविता में जो सघनता थी, वह आज की कविताओं में कहाँ है?

मुक्तिबोध और शलभ श्रीराम सिंह की तरह लम्बी कविताएँ साधना हर किसी के बस में नहीं है, लेकिन हर नया कवि मीलों लम्बी कविताएँ लिखकर सीधे छपने को भेजता है और न छापो तो बच्चों की तरह रूठ जाता है।

भारतीय सन्त साहित्य धर्म सत्ता और राजसत्ता के खिलाफ जनता की आवाज बुलंद करता रहा है 7 वीं से लेकर 16 वीं सदी तक। उनकी रचनाओं को दुबारा पढ़ने की जरूरत है। जितनी विधाएं उन्होंने पैदा कर दी हैं, उनसे आगे हम कहां तक पहुँचे हैं?

कबीर दास से ज्यादा प्रासंगिक कवि कौन है? Who is more relevant poet than Kabir Das?

मीरा बाई से ज्यादा मुखर स्त्री विमर्श किसका है?

रसखान से ज्यादा धर्मनिरपेक्ष कौन है? Who is more secular than Rasakhan?

सूरदास से ज्यादा प्रखर दृष्टि किसकी है?

रविदास से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय कौन है?

गुरु नानक से ज्यादा सामाजिक कौन है?

दादू से ज्यादा लोकप्रिय कौन है?

तुलसी न धर्म सत्ता और न ही राजसत्ता के विरुद्ध थे, लेकिन लोक में वे गहरे पैठे थे। बोलियों में कही गयी उनकी रचनाएँ कालजयी हैं लेकिन लिखित मुद्रित कविताएँ इतनी तदर्थ क्यों हैं?

हिंदी कविताओं के पाठक क्यों नहीं है?

क्या हिंदी समाज को कविता से घृणा है या कविता समझने की संवेदना नहीं है उसमें?

या हिंदी समाज की संवेदना को स्पर्श करने का सामर्थ्य ही नहीं है कविता में?

क्या वैचारिक बनने के फिराक में हिंदी कविता असामाजिक या समाजविरोधी हो गयी है?

क्या चर्यापद या सन्त आंदोलन के कवि किसी सत्तपोषित महानगरीय राजनीतिक कवि थे?

कविता ही साहित्य की जननी है।

बाकी विधाएं कविता की कोख से निकली हैं।

कविता श्रुति परम्परा के तहत अपढ़ जनता को सम्प्रेषित होती रही है लेखन मुद्रण से पहले।

सभ्यता के सारे मानक और आस्था के सारे मिथक कविता ने ही रचे हैं।

हम क्या रच रहे हैं जो जन मानस को कहीं स्पर्श ही नहीं करता?

पलाश विश्वास जन्म 18 मई 1958 एम ए अंग्रेजी साहित्य, डीएसबी कालेज नैनीताल, कुमाऊं विश्वविद्यालय दैनिक आवाज, प्रभात खबर, अमर उजाला, जागरण के बाद जनसत्ता में 1991 से 2016 तक सम्पादकीय में सेवारत रहने के उपरांत रिटायर होकर उत्तराखण्ड के उधमसिंह नगर में अपने गांव में बस गए और फिलहाल मासिक साहित्यिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक। उपन्यास अमेरिका से सावधान कहानी संग्रह- अंडे सेंते लोग, ईश्वर की गलती। सम्पादन- अनसुनी आवाज - मास्टर प्रताप सिंह चाहे तो परिचय में यह भी जोड़ सकते हैं- फीचर फिल्मों वसीयत और इमेजिनरी लाइन के लिए संवाद लेखन मणिपुर डायरी और लालगढ़ डायरी हिन्दी के अलावा अंग्रेजी औऱ बंगला में भी नियमित लेखन अंग्रेजी में विश्वभर के अखबारों में लेख प्रकाशित। 2003 से तीनों भाषाओं में ब्लॉग पलाश विश्वास
जन्म 18 मई 1958
एम ए अंग्रेजी साहित्य, डीएसबी कालेज नैनीताल, कुमाऊं विश्वविद्यालय
दैनिक आवाज, प्रभात खबर, अमर उजाला, जागरण के बाद जनसत्ता में 1991 से 2016 तक सम्पादकीय में सेवारत रहने के उपरांत रिटायर होकर उत्तराखण्ड के उधमसिंह नगर में अपने गांव में बस गए और फिलहाल मासिक साहित्यिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक।
उपन्यास अमेरिका से सावधान

हमने प्रेरणा अंशु के आठ पेज बढ़ा दिए हैं और इनमें से चार पेज कविताएँ होंगी।

थोक भाव से कविताएँ आती हैं। हम एक कवि की एक ही छोटी कविता एक अंक में छपते हैं, फिर भी लम्बी लम्बी कविताओं का पुलिंदा आ जाता है।

हम इन अनावश्यक कविताओं का क्या करें?

जब बेहतर कविता लिखने की कोई जहमत नहीं करता तो नई कविताएँ कहाँ से लाएं?

Contemporary poetry has become a burden loaded with intellectualism

हम कवर पर काव्य रचना छपते हैं, विषय सूची नहीं।

हम चाहते हैं कि हमारी विषय सूची कवर की कविता से अभिव्यक्त हो।

बहुत दुख के साथ कहना पड़ता है कि कवर के लिए हिंदी कविता मिलना कठिन है। हमें अक्सर शायरों की गज़लों से कम चलाना होता है।

समकालीन कविता अति बौद्धिकता से लदी बोझ बन गयी है

समकालीन कविता किसी के दिलों पर दस्तक नहीं देती।

मुझे अफ़सोस है कि मेरे बहुत प्रिय मित्रों को नाराज करना पड़ रहा है। वे मुझे इस वक्तव्य के लिये माफ करें।

पलाश विश्वास

 

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