धर्म का ऐसा कोलाहल है कि धार्मिकता कहीं मुंह छिपा कर बैठी है. हर किसी का दावा है कि वह है जो अपने धर्म का रक्षक है. जो भी भीड़ जुटा लेता है वह धर्म का अधिष्ठाता बन बैठता है. ऐसे में कौन इस सत्य की याद करे कि जो कहती है कि भीड़ जिसकी रक्षा करने खड़ी हो जाए वह चाहे कुछ भी हो, धर्म कि देश कि समाज कि नेता, अधर्म में बदल जाता है. अधर्म यानी दूसरे धर्म की जगह छीनना, अधर्म यानी दूसरे मनुष्य की हैसियत छीनना, अधर्म यानी अपने ही धर्म की ध्वजा लहराना ! ऐसा पहले भी हुआ है. आसमान को मुट्ठी में करने की ऐसी बचकानी लेकिन बेहद खतरनाक कोशिश पहले भी हुई है. ऐसी कोशिश हुई कि हजारों साल की सभ्यता वाला भारतीय समाज ही टूट गया. एक देश दो बन गया.
इसलिए रास्ता यह निकाला गया कि इस गांधी को भी किसी एक दायरे में, किसी एक पहचान में बांध कर दुनिया के सामने पेश किया जाए. अंग्रेजों ने इसलिए वह पूरा नाटक रचा वहां सुदूर इंग्लैंड में - लंदन में - और तमाम दबाव डाल कर गांधी को भी वहां ले गये. गांधी इस दूसरे गोलमेज सम्मेलन में जाना नहीं चाहते थे और कांग्रेस से
यह समीकरण अंग्रेजों को बहुत भारी पड़ रहा था. वे समझ गये थे कि जब तक गांधी की यह विशिष्ट स्थिति वे तोड़ नहीं डालेंगे तब तक उनके उस जादुई असर की काट नहीं निकल सकती है जो तब समाज के सर चढ़ कर बोलता था. इसलिए गांधी के सामने वहां उन्होंने कई हिंदुस्तान खड़े कर दिए - हिंदू हिंदुस्तान, मुस्लिम हिंदुस्तान, दलित हिंदुस्तान, सिख हिंदुस्तान, रियासतों वाला हिंदुस्तान, राजाओं वाला हिंदुस्तान, एंग्लो-इंडियन हिंदुस्तान आदि-आदि ! यह गांधी को उनकी औकात बताने की साम्राज्यवाद की तिकड़म थी जिसमें सभी शामिल थे - पूरी रजामंदी के साथ और पूरी रणनीति के साथ ! गांधी को बिखरने, उनके प्रभाव को छिन्न-भिन्न करने की इस कोशिश में वे सब साथ आ जुटे थे जो वैसे किसी भी बात में एक-दूसरे के साथ नहीं थे.
बाबा साहब आंबेडकर ने तो आखिरी तीर ही चलाया था और गांधी को इसलिए कठघरे में खड़ा किया था कि आप भंगी हैं नहीं तो हमारी बात कैसे कर सकते हैं ! जवाब में गांधी ने इतना ही कहा कि इस पर तो मेरा कोई बस है नहीं लेकिन अगर भंगियों के लिए काम करने का एकमात्र आधार यही है कि कोई जन्म से भंगी है या नहीं तो मैं चाहूंगा कि मेरा अगला जन्म भंगी के घर में हो. आंबेडकर कट कर रह गये.
इससे पहले भी आंबेडकर तब निरुत्तर रह गये थे जब अपने अछूत होने का बेजा दावा कर, उसकी राजनीतिक फसल काटने की कोशिश तेज चल रही थी. तब गांधी ने कहा : मैं आप सबसे कहीं ज्यादा पक्का और खरा अछूत मैं हूं, क्योंकि आप जन्मत: अछूत हैं, मैंने अपने लिए अछूत होना चुना है.
गांधी ने जब कहा कि वे रामराज लाना चाहते हैं, तो हिंदुत्व वालों की बांछें खिल गईं - अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे ! लेकिन उसी सांस में गांधी ने यह भी साफ कर दिया कि उनका राम वह नहीं है जो राजा दशरथ का बेटा है ! अब सनातनी हिंदुत्ववादी कट कर रह गये.
गांधी ने रामराज्य का अपना संदर्भ साफ करते हुए कहा कि जनमानस में एक आदर्श राज की कल्पना रामराज के नाम से बैठी है. मैं उस सर्वमान्य विभावना को छूना चाहता हूं. हर क्रांतिकारी जनमानस में मान्य, प्रतिष्ठित प्रतीकों में नये अर्थ भरता है. उस पुराने माध्यम का छोर पकड़ कर वह अपना नया अर्थ समाज में मान्य कराने की कोशिश करता है.
इसलिए गांधी ने खुलेआम कहा कि वे सनातनी हिंदू हैं लेकिन हिंदू होने की जो कसौटी बनाई उन्होंने, वह ऐसी थी कि कोई कठमुल्ला हिंदू उन तक फटकने तक की हिम्मत नहीं जुटा सका; उनकी परिभाषा और मान्यता को स्वीकारना तो एकदम ही अलग बात थी.
पूछा किसी ने कि सच्चा हिंदू कौन है - गांधी ने संत कवि नरसिंह मेहता का भजन सामने कर दिया : “ वैष्णव जन तो तेणे रे कहिए जे / पीड पराई जाणे रे !”
कौन है सच्चा और अच्छा आदमी ? किसे कहेंगे सच्चा भक्त इंसान ? गांधी ने कहा : “ सबसे सच्चा और अच्छा इंसान वह है जो दूसरों की पीड़ा जानता है. और फिर यह शर्त भी बांध दी - “ पर दुखे उपकार करे तोय / मन अभिमान ना आणी रे !”
पीड़ा जानना ही काफी नहीं है, पीड़ा में हिस्सेदारी भी करनी होगी.
बात यहीं रुकती नहीं है, आगे बढ़ जाती है कि दूसरे को उसकी पीड़ा के क्षण में मदद करना, उसकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझ कर उसे दूर करने के उपाय करना, यह सच्चे व अच्छे आदमी की पहचान तो है लेकिन ऐसा करने का अभिमान न हो ! यह जताते और अपने नाम का पत्थर न लगवाते फिरो कि यह हमने किया है याद रखना ! मन अभिमान ना आणी रे ! गांधी कहते हैं कि यही सच्चे व अच्छे आदमी की पहचान है. फिर कौन हिंदुत्व वाला आता गांधी के पास !
वेदांतियों ने फिर गांधी को गांधी से ही मात देने की कोशिश की : आपका दावा सनातनी हिंदू होने का है तो आप वेदों को मानते ही होंगे, और वेदों ने जाति-प्रथा का समर्थन किया है. गांधी ने दो टूक जवाब दिया:
“वेदों के अपने अध्ययन के आधार पर मैं मानता नहीं हूं कि उनमें जाति-प्रथा का समर्थन किया गया है लेकिन यदि कोई मुझे यह दिखला दे कि जाति-प्रथा को वेदों का समर्थन है तो मैं उन वेदों को मानने से इनकार करता हूं.”
मैं सनातनी हिंदू हूं, बार-बार ऐसा दावा करते रहने के बावजूद वे कठमुल्ले हिंदुत्ववादियों के लिए किसी भी मंच पर, कोई जगह छोड़ने को तैयार नहीं थे. वे मुसलमानों के कठमुल्लेपन पर भी इसी तरह लगातार चोट करते रहते थे.
ईसाइयों और मुसलमानों के धर्म परिवर्तन के दर्शन से वे बिल्कुल भी सहमत नहीं थे. उनकी मान्यता थी, और दुनिया के सभी धर्मों के लिए थी कि सारे धर्म, अपने वक्त और समाज की जरूरतों को देखते हुए इंसान ने ही बनाए हैं और चूंकि इंसान सारे ही अधूरे हैं, इसलिए सारे धर्म अधूरे हैं. तो फिर गांधी पूछते हैं कि एक अधूरे से निकल कर दूसरे अधूरे में जाने का मतलब क्या ? क्या प्रयोजन सिद्ध होगा - इस बंजर धरती में बीज डालो कि उस बंजर धरती में, बीज का अंत ही होना है. तो फिर क्या करें ?
गांधी कहते हैं : धर्म परिवर्तन मत करो, धर्म में परिवर्तन करो ! और इतना कह कर वे अपने हिंदू धर्म की कालातीत हो चुकी, प्रतिगामी प्रथाओं और मान्यताओं के खिलाफ एक ऐसी लड़ाई छेड़ते हैं जो कभी रुकी नहीं - रोकी जा सकी तो उन तीन गोलियों के बल पर ही जो हिंदुत्व की अंधी व विवेकशून्य ताकतों ने 30 जनवरी 1948 को उनके सीने में उतारी थी.
एक गुरु, एक अवतार, एक किताब और एक आराध्य वाली सोच में से पैदा होने वाली एकांगी कट्टरता को वे पहचानते थे और इसलिए संगठित धर्मों के साथ उनका संवाद-संघर्ष लगातार चलता रहा.
वह क्षण जब गांधीजी ने जिन्नाह से आखिरी बात की The moment when Gandhiji spoke last to Jinnah
हिंदुओं-मुसलमानों के बीच बढ़ती राजनीतिक खाई को भरने की कोशिश वाली जिन्ना-गांधी की ऐतिहासिक मुंबई वार्ता (Jinnah-Gandhi's historic Mumbai talks) टूटी ही इस बिंदु पर कि जिन्ना ने कहा कि जैसे मैं मुसलमानों का प्रतिनिधि बन कर आपसे बात करता हूं, वैसे ही आप हिंदुओं के प्रतिनिधि बन कर मुझसे बात करेंगे, तो हम सारा मसला हल कर लेंगे. लेकिन दिक्कत यह है मिस्टर गांधी कि आप हिंदू-मुसलमान दोनों के प्रतिनिधि बन कर मुझसे बात करते हैं. आपकी यह भूमिका मुझे कबूल नहीं है. मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि मैं ही हूं.
गांधी ने कहा: यह तो मेरी आत्मा के विरुद्ध होगा कि मैं किसी धर्म विशेष या संप्रदाय विशेष का प्रतिनिधि बन कर सौदा करूं ! इस भूमिका में मैं न जीता हूं, न सोचता हूं. इस भूमिका में मैं किसी बातचीत के लिए तैयार नहीं हूं. और जो वहां से लौटे गांधी तो फिर उन्होंने कभी जिन्ना से बात नहीं की- मृत्यु तक !
गांधीजी की ‘हरिजन यात्रा’ क्या थी What was Gandhiji's 'Harijan Yatra'
पुणे करार के बाद अपनी-अपनी राजनीतिक गोटियां लाल करने का हिसाब लगा कर जब करार करने वाले सभी करार तोड़ कर अलग हट गये तब अकेले गांधी ही थे जो उपवास से खोखली और उम्र से कमजोर होती अपनी काया समेटे देश व्यापी ‘हरिजन यात्रा’ पर निकल पड़े –
“मैं तो उस करार से अपने को बंधा मानता हूं, और इसलिए मैं शांत कैसे बैठ सकता हूं !”
उनकी ‘हरिजन यात्रा’ क्या थी, सारे देश में जाति-प्रथा, छुआछूत आदि के खिलाफ एक तूफान ही था ! लॉर्ड माउंटबेटन ने तो बहुत बाद में पहचाना कि यह ‘वन मैन आर्मी’ है लेकिन ‘एक आदमी की इस फौज’ ने सारी जिंदगी ऐसी कितनी ही अकेली लड़ाइयां लड़ी थीं. उनकी इस ‘हरिजन यात्रा’ की तूफानी गति और उसके दिनानुदिन बढ़ते प्रभाव के सामने हिंदुत्व की सारी कठमुल्ली जमातें निरुत्तर व असहाय हुई जा रही थीं. तो सबने मिल कर दक्षिण भारत की यात्रा में गांधी को घेरा और सीधा ही हरिजनों के मंदिर प्रवेश का सवाल उठा कर कहा कि आपकी ऐसी हरकतों से हिंदू धर्म का तो नाश ही हो जाएगा !
गांधी ने वहीं, लाखों की सभा में इसका जवाब दिया कि मैं जो कर रहा हूं, उससे आपके हिंदू धर्म का नाश होता हो तो हो, मुझे उसकी फिक्र नहीं है. मैं हिंदू धर्म को बचाने नहीं आया हूं. मैं तो इस धर्म का चेहरा बदल देना चाहता हूं ! …
सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों पर भगवान बुद्ध के बाद यदि किसी ने सबसे गहरा, घातक लेकिन रचनात्मक प्रहार किया तो वह गांधी ही हैं; और ध्यान देने की बात है कि यह सब करते हुए उन्होंने न तो कोई धार्मिक जमात खड़ी की, न कोई मतवाद खड़ा किया और न भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष को कमजोर पड़ने दिया !
सत्य की अपनी साधना के इसी क्रम में गांधी फिर एक ऐसी स्थापना दुनिया के सामने रखते हैं कि जैसी इससे पहले किसी राजनीतिक चिंतक, आध्यात्मिक गुरु या धार्मिक नेता ने कही नहीं रखी थी. उनकी इस एक स्थापना ने सारी दुनिया के संगठित धर्मों की दीवारें गिरा दीं, सारी धार्मिक-आध्यात्मिक मान्यताओं को जड़ें हिला दीं.
पहले उन्होंने ही कहा था : ईश्वर ही सत्य है ! फिर वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अपने-अपने ईश्वर को सर्वोच्च प्रतिष्ठित करने के द्वंद्व ने ही तो सारा कोहराम मचा रखा है ! इंसान को मार कर, अपमानित कर, उसे हीनता के अंतिम छोर तक पहुंचा कर जो प्रतिष्ठित होता है, वह सारा कुछ ईश्वर के नाम से ही तो होता है. इसलिए गांधी ने अब एक अलग ही सत्य-सार हमारे सामने उपस्थित किया : ‘ईश्वर ही सत्य है’ नहीं बल्कि ‘सत्य ही ईश्वर है’ ! धर्म नहीं, ग्रंथ नहीं, मान्यताएं-परंपराएं नहीं, स्वामी-गुरु-महंत-महात्मा नहीं, सत्य और केवल सत्य !
सत्य को खोजना, सत्य को पहचानना, सत्य को लोक-संभव बनाने की साधना करना और फिर सत्य को लोक मानस में प्रतिष्ठित करना - यह हुआ गांधी का धर्म ! यह हुआ दुनिया का धर्म, इंसानियत का धर्म ! ऐसे गांधी की आज दुनिया को जितनी जरूरत है, उतनी कभी नहीं थी शायद !
कुमार प्रशांत
( 23.08.2019)
(सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक कुमार प्रशांत के ब्लॉग से संपादित रूप साभार )