वाइसरॉय और उनका पूरा सूचना तंत्र, इस बात पर निश्चिंत था कि, नमक कर के खिलाफ महात्मा गांधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन (Gandhi's civil disobedience movement against salt tax), असहयोग आंदोलन की तरह न तो व्यापक होगा और न ही, उससे ब्रिटिश सरकार को कोई बहुत प्रभाव पड़ेगा। नमक पर सत्याग्रह को लेकर, कांग्रेस के बड़े नेताओं में भी संशय कम नहीं था। ऐसे ही वातावरण में, 15 फरवरी 1930 को, अहमदाबाद में कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) की बैठक हुई। सीडब्ल्यूसी की उस बैठक में नमक कानून के विरोध में सविनय अवज्ञा आंदोलन की बात भी चली।
सीडब्ल्यूसी की बैठक में, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, मोतीलाल नेहरू ने नमक के इर्द-गिर्द आयोजित किए जा रहे इस अभियान को 'क्विक्जोटिक' यानी बेहद आदर्शवादी और अव्यवहारिक कह कर खारिज कर दिया।
एक अन्य कांग्रेसी नेता और प्रसिद्ध उद्योगपति, जमनालाल बजाज ने सुझाव दिया कि, "नमक कर का विरोध करने के बजाय, गांधी जी को नई दिल्ली में वायसराय के घर की ओर शांतिपूर्वक मार्च करना चाहिए।"
15 तारीख को सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक सीडब्ल्यूसी की बैठक हुई। पूर्ण स्वराज को प्राप्त करने के उद्देश्य से एक अहिंसक सविनय अवज्ञा' के अभियान की घोषणा करते हुए कांग्रेस की तरफ से प्रेस को एक बयान जारी किया गया।
सरोजिनी नायडू ने बैठक समाप्त होने के बाद अपनी बेटी पद्मजा को पत्र लिखा कि, सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए कांग्रेस ने अंतिम निर्णय ले लिया है। सरोजनी नायडू, अपनी
सरोजनी नायडू, न केवल कांग्रेस की एक बड़ी नेता थीं बल्कि वे मुहम्मद अली जिन्ना की पारिवारिक मित्र थीं। जिन्ना की पत्नी रत्ती के बारे में सरोजनी नायडू द्वारा, पद्मजा को लिखे पत्रों से बहुत सी ऐसी जानकारियां मिलती हैं, जो कहीं अन्यत्र नहीं मिल पाती।
सीडब्ल्यूसी की बैठक में सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रस्ताव पारित कर दिए जाने पर कांग्रेस के नेतागण तो सक्रिय हुए ही, उधर सरकार भी कानून व्यवस्था बनाए रखने को लेकर सजग हो गई। पर करना क्या है यह सब न तो कांग्रेस के नेताओं पता था और क्या होगा, इसकी भनक सरकार को भी नहीं थी।
सबसे पहले सक्रिय हुए सरदार बल्लभ भाई पटेल
सरदार पटेल ने गुजरात के सागर तटीय इलाकों के भ्रमण का कार्यक्रम बनाया और वे गुजरात के सघन दौरों पर निकल पड़े। पर न तो कहीं चर्चा दांडी की हो रही थी और न ही किसी यात्रा की, लेकिन एक व्यापक देशव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन की चर्चा वे जरूर कर रहे थे।
सीडब्ल्यूसी की बैठक के बाद गांव गांव का दौरा करते हुए पटेल कह रहे थे, "एक धर्मयुद्ध, बुराई के खिलाफ अच्छाई की एक जंग, जो, 'दुनिया के इतिहास में अभूतपूर्व होगी, कुछ ही दिनों के भीतर शुरू होने वाली है। इसका प्रारंभ, गुजरात से होगा। जो लोग मृत्यु से डरते हैं उन्हें तीर्थ यात्रा पर चला जाना चाहिए और जिनके पास धन है उन्हें विदेश निकल जाना चाहिए। जो सच्चे गुजराती हैं उन्हें बंद दरवाजों के पीछे नहीं बैठना चाहिए।"
महात्मा गांधी अपने आश्रम में ही थे और उनका कोई बयान भी नहीं आ रहा था। सीडब्ल्यूसी के अन्य नेता अपने-अपने काम पर चले गए थे। पटेल ने अपने भाषणों में वकीलों को अदालत में उपस्थित नहीं होने और छात्रों को सरकारी स्कूलों से दूर रहने के लिए कहा। नमक पर बढ़े टैक्स और भूमि कानूनों पर हमला करते हुए, सरदार पटेल ने व्यंग्यात्मक टिप्पणी की कि, "सरकार द्वारा 'केवल हवा पर कर लगाया जाना है'।"
सरदार पटेल का यह भाषण, बॉम्बे क्रॉनिकल के दिनांक, 2 मार्च 1930 के रविवारीय अंक में छपा था।
लेकिन इस आंदोलन को लेकर कांग्रेस में संशय खत्म नहीं हुआ था, जैसा कि, सरोजनी नायडू के, अपनी पुत्री पद्मजा नायडू को, 15 फरवरी 1930 को लिखे एक पत्र के इस अंश से पता चलता है।
सरोजनी नायडू ने नमक सत्याग्रह के बारे में लिखा था, "लगभग यह अब तय हो चला था कि, अगले सविनय अवज्ञा आंदोलन का मुद्दा नमक ही बनेगा, लेकिन कोई भी विशेष रूप से, इस मुद्दे को लेकर उत्साह से भरा नहीं लगता था और हर किसी को इस बार थोड़ा सा संदेह भी था कि, क्या होगा और चीजें कैसे होंगी।“ अपनी पुत्री को लिखे पत्र में सरोजनी नायडू ने यह सब संशय प्रगट किए थे।
बॉम्बे क्रॉनिकल अखबार के दिनांक, 9 मार्च 1930 के अनुसार, "गुजरात में धारा 144 सीआरपीसी के अंतर्गत निषेधाज्ञा लगी हुई थी और सरकार भी इस प्रस्तावित आंदोलन से निपटने के लिए कमर कर रही थी। आखिरकार, जैसी उम्मीद थी, 7 मार्च को सरदार वल्लभभाई पटेल को गिरफ्तार कर लिया गया और निषेधाज्ञा की अवहेलना करने के अपराध में उन्हें बोरसाद तालुका में एक भाषण देने के आरोप पर, तीन माह के कठोर कारावास की सजा सुना दी गई।
सरदार वल्लभभाई पटेल की यह गिरफ्तारी अप्रत्याशित नहीं थी, फिर भी गिरफ्तारी की खबरों ने अहमदाबाद में 'बड़ी सनसनी और उत्तेजना पैदा कर दी। अहमदाबाद मजदूर संघ की अध्यक्षा अनुसूया साराभाई के निर्देश पर अहमदाबाद शहर की सभी कपड़ा मिलों में हड़ताल हो गई और उनमें कामकाज बंद हो गया।
शनिवार, 8 मार्च की शाम गांधी जी ने अहमदाबाद शहर में एक विशाल सभा को संबोधित किया, जिसमें कई महत्त्वपूर्ण लोगों सहित लगभग साठ हजार लोगों ने भाग लिया। इस सभा में महिलाओ की संख्या भी कम नहीं थी।
सरदार पटेल की प्रशंसा करते हुए गांधी जी ने कहा, पटेल की 'गुजरात और विशेष रूप से इस शहर के लिए किया गया कार्य और योगदान, मुझसे हजार गुना अधिक, की गई सेवा' है। अगर सरकार ने 'एक वल्लभभाई को गिरफ्तार कर, सविनय अवज्ञा आन्दोलन के रास्ते से हटा दिया है तो, आप अहमदाबाद के पुरुषों और महिलाओं को उनकी जगह, आगे बढ़ कर लेनी चाहिए और उनके प्रतिनिधि के रूप में काम करना चाहिए'। उनका उद्देश्य, 'नमक कर को समाप्त करवाना' था। यह उद्देश्य, मेरे लिए एक कदम है, और यह पहला कदम, पूर्ण स्वतंत्रता की ओर जाता है।"
गांधी ने जनसभा में अपने उद्देश्य और नमक कानून को तोड़ने का संकेत देते हुए कहा।
(कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी वॉल्यूम XLIII, पृ.27-28) '
अब गांधी जी ने नमक कानूनों को तोड़ने का फैसला किया। अब उन्हें यह तय करना था कि किस जगह नमक बनाकर ब्रिटिश कानून तोड़ना था और साम्राज्य को चुनौती देनी थी।
गांधीजी को यह बताया गया कि बादलपुर शहर के पास भी नमक बहुतायत से जमा है और वहां से यह आंदोलन शुरू किया जा सकता है।
निश्चित रूप से यह एक प्रतीकात्मक आंदोलन था और राजनीति में प्रतीकों का अपना अलग महत्व होता है। एक दिन के अवैध नमक बना लेने और उसे प्रचारित कर देने से साम्राज्य का कुछ नहीं बिगड़ जाता, यह बात गांधी भी जानते थे, पर वे एक ऐसा आंदोलन चलना चाहते थे, जिससे देश के अंदर आ चुकी जड़ता समाप्त हो और लोग फिर से, पूर्ण स्वतंत्रता के संकल्प की पूर्ति के लिए आगे आएं।
गांधी जी ने बादलपुर में नमक कानून क्यों नहीं तोड़ा?
बादलपुर में नमक बना कर कानून तोड़ा जा सकता था, पर बादलपुर अहमदाबाद से कुछ ही दिनों की पैदल दूरी पर था, जबकि गांधी चाहते थे कि यह एक लंबा मार्च या तीर्थयात्रा हो, जहां उनकी इत्मीनान से, रास्ते में पड़ने वाले गांवों और लोगों से संवाद हो। यात्रा की दिन प्रतिदिन की गतिविधियां, लोगों को उत्साहित करें और यह व्यापक उत्साह देश को भी आकर्षित करे।
नमक कानून तोड़ने के लिए गांधीजी ने दांडी गांव का चयन क्यों किया?
गांधी ने अंत में काफी सोच विचार के बाद, दांडी गांव, जो समुद्र के किनारे था, में नमक बना कर नमक कानून तोड़ने का फैसला किया।
दांडी, नवसारी शहर के पास समुद्र के किनारे बसा हुआ एक छोटा सा गांव है जहां ज्वार के बाद जब समुद्र पीछे लौट जाता है तो खारे पानी के अनेक छोटे-छोटे छिछले तालाब बन जाते हैं, जहां से नमक बनाया जाता है। गांधी ने अपने इस ऐतिहासिक अभियान के लिए दांडी को इसीलिये चुना।
दांडी यात्रा और नमक कानून तोड़ने का फैसला गांधी जी का कोई पहला जन आंदोलन नहीं था। इसके पहले अपने दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के समय वे वहां रह रहे भारतीयों के अधिकारों के लिए एक लंबी यात्रा निकाल चुके थे। यात्रा में व्यावहारिक रूप से क्या-क्या कठिनाइयां आ सकती हैं और उनका समाधान कैसे किया जाए, इसका उन्हें अच्छा अनुभव था। गांधीजी जनता की नब्ज पहचानने और वॉलंटियर्स से कहां कैसे काम लेना है, की उन्हें बहुत गहरी समझ थी। गांधी, ट्रांसवाल यात्रा की ही तर्ज पर इस यात्रा की योजना बना रहे थे।
दक्षिण अफ्रीका था तो ब्रिटिश उपनिवेश, पर वहां एक ही उपनिवेश के अलग-अलग राज्यों में जाने के लिए भारतीय आप्रवासियों को परमिट लेना पड़ता था। एक ही राज्य में अलग-अलग नागरिकों, अंग्रेजों के लिए अलग और भारतीयों के लिए अलग, दो और भेदभाव भरा कानून के खिलाफ गांधी ने यह यात्रा निकाली थी।
नवंबर 1913 में गांधी जी ने इस विशेष कानून और इंडियाना के खिलाफ भेदभाव के अन्य रूपों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए नेटाल और ट्रांसवाल के बीच की सीमा के पार कई हजार भारतीय आप्रवासियों के मार्च का नेतृत्व किया था। उस घटना के लगभग साढ़े सोलह साल बाद अब वह एक अन्य दमनकारी ब्रिटिश कानून का उल्लंघन करने के लिए एक अनोखी यात्रा की शुरुआत करने जा रहे थे।
नमक एक प्रतीक था, और इस कानून की अवहेलना कर महात्मा गांधी ब्रिटिश राज्य के खिलाफ जनता को संगठित और सजग करना चाहते थे। इतिहास बताता है कि अपने लक्ष्य में गांधी सफल रहे।
अब शुरू होता है गांधी द्वारा किए गए होम वर्क पर यात्रा के संबंध में दिए गए निर्देश।
अपने गुजराती अखबार के माध्यम से गांधी जी ने साबरमती आश्रम से दांडी के रास्ते में पड़ने वाले गावों को, जिनके यहां यात्रा ठहरनी थी, यह निर्देश दिया कि, "उन्हें 'बिना तेल, मसाले और मिर्च' वाला 'सबसे सादा' भोजन उपलब्ध कराना है और चूंकि मार्च करने वाले अपना बिस्तर साथ लेकर चल रहे हैं, तो केवल उनके 'आराम करने के लिए एक साफ जगह' की व्यवस्था की जाय।
उन्होंने उन गांवों की धार्मिक संरचना, वहां रहने वाले 'अछूतों' की संख्या, चरखाओं की संख्या, गायों और भैंसों की संख्या और गांव में उपलब्ध शैक्षिक सुविधाओं के बारे में जानकारी संकलित करने के लिए भी कहा।" (गांधी, द ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड)।
इस तरह से यात्रा को गांव और इलाके के हर व्यक्ति तक जोड़ने और उसे इस अभियान में सहभागी बनाने की यह शानदार कवायद थी।
दांडी यात्रा शुरू होने के एक रात पहले 11 मार्च को, अहमदाबाद शहर में लोग उत्साह से भरे थे। एक उत्सव का माहौल था। लोगों की भीड़ आश्रम में उमड़ आई थी। कई लोग तो रात भर साबरमती नदी के किनारे ही डेरा जमाए रहे। आश्रम में भी उत्साह था और सभी इस अभियान में जुट गए थे। गांधी जी ने, इस माहौल की चर्चा करते हुए, जवाहरलाल नेहरू को लिखा: "अभी रात 10 बजे के करीब है। शहर में यह अफवाह फैली हुई है कि, मुझे रात में ही किसी समय, गिरफ्तार कर लिया जाएगा।"
इसी प्रकार का एक पत्र उन्होंने बंगाल के खादी कार्यक्रमों से जुड़े कार्यकर्ता सतीश चंद्र दासगुप्ता को लिखा: "यह मेरा आखिरी पत्र हो सकता है-किसी भी तरह से मेरी गिरफ्तारी से पहले, कल मुझे लगता है कि वे मुझे गिरफ्तार करने के लिए बाध्य हैं।" लेकिन रात सकुशल बीत गई। न तो गांधी जी की गिरफ्तारी का कोई प्रयास हुआ और न ही सरकार की तरफ से ऐसी किसी योजना का संकेत मिला। पुलिस उस रात साबरमती आश्रम नहीं आई।
12 मार्च की सुबह गांधी जी सामान्य रूप से एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में जागे। उन्होंने अपनी नियमित प्रार्थना की और आश्रम में बीमार और बुजुर्गों से मुलाकात की और अपने साथ चलने वाले साथियों को इकट्ठा किया। "कुल अठहत्तर यात्री थे, जिनमें से सत्तर देश के विभिन्न भागों से आए थे और आठ सहयात्रियों के समूह को दक्षिण अफ्रीका से मणिलाल गांधी लेकर आए थे। इस यात्रा में, भारत के लगभग सभी हिस्सों के प्रतिनिधि शामिल थे। गुजरात से इकत्तीस, महाराष्ट्र से तेरह, संयुक्त प्रांत, केरल, पंजाब और सिंध से कम संख्या लोग थे, तो तमिलनाडु, आंध्र, कर्नाटक, बंगाल, बिहार और उड़ीसा से एक-एक व्यक्ति शामिल थे। यह विविधता सामाजिक और भौगोलिक थी, क्योंकि चुने गए यात्रियों में कई छात्र और खादी कार्यकर्ता, कई 'अछूत', कुछ मुस्लिम और एक ईसाई थे।"
गांधी जी को नमक मार्च में अपनी पार्टी में शामिल होने के लिए इच्छुक लोगों से सैकड़ों अनुरोध प्राप्त हुए थे, लेकिन उन्होंने इस यात्रा को, मुख्यतः, केवल वास्तविक आश्रमवासियों तक ही सीमित रखने का फैसला किया। आश्रम की महिलाएं भी, इस यात्रा मे आने की इच्छुक थीं, लेकिन गांधी ने यात्रियों में, केवल पुरुषों को ही सम्मिलित किया।" यह शायद इसलिए किया गया था क्योंकि, 1930 के दशक के भारत में पुरुषों और महिलाओं के मिश्रित समूह का सार्वजनिक जगहों पर घूमना फिरना, कम दिखता था और दूसरे यह कोई सभा की भीड़ नहीं थी, बल्कि पैदल चलना था, उसमें महिलाओ को दिक्कत हो सकती थी।
अब हम गांधी जी के भाषणों के दो उद्धरण देखते हैं।
पहला, उनके द्वारा 26 जनवरी 1930 को तैयार किया गया एक प्रस्ताव का यह अंश देखते हैं जो लाहौर में स्वतंत्रता दिवस के आयोजन पर पढ़ा गया था। प्रस्ताव में कहा गया,
"हम मानते हैं कि किसी भी अन्य लोगों की तरह, भारतीय लोगों का भी यह अधिकार है कि, वे स्वतंत्रता प्राप्त करें और अपने परिश्रम से अर्जित फल का आनंद लें और जीवन की आवश्यकताएं पूरी करें ... हालांकि, हम मानते हैं कि, अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करके का सबसे प्रभावी तरीका हिंसा का माध्यम नहीं है। इसलिए, हम ब्रिटिश सरकार से सभी स्वैच्छिक, सहयोग को वापस लेने के लिए, अपने आप को तैयार करेंगे और करों का भुगतान न करने सहित, सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तैयारी करेंगे। हमें विश्वास है कि, यदि हम हम सरकार को सहयोग करने की, अपनी स्वैच्छिक सहायता को वापस ले सकते हैं और बिना उकसावे के भी, हिंसा किए बिना, करों का भुगतान रोक सकते हैं, तो इस अमानवीय शासन का अंत सुनिश्चित है।"
अब 10 मार्च को गांधीजी ने अपनी प्रार्थना सभा में आने वाले मार्च और संघर्ष की अहिंसक प्रकृति के बारे में जो बात कही, उसे पढ़िए। उन्होंने लोगों से कहा :
"हालांकि लड़ाई कुछ दिनों में शुरू होनी है, यह आप पर निर्भर है कि, कैसे आप निडर होकर, उस संघर्ष में शामिल हो सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि आप में से कोई यहां डर रहा होगा, यदि आपको राइफल शॉट या बम का सामना करना पड़े। आपको राइफल का कोई डर नहीं है, और न ही बम का। क्यों?"
आगे वे कहते हैं,
"मान लीजिए, यदि मैंने घोषणा की होती कि, मैं एक हिंसक अभियान शुरू करने जा रहा हूं, तो, आप को क्या लगता है कि, सरकार मुझे अब तक मुक्त रहने देती ? क्या, इतिहास में, आप मुझे एक भी उदाहरण दिखा सकते हैं, जहां राज्य ने एक दिन के लिए भी अस्तित्व और प्रभुता की खुली अवहेलना और हिंसक चुनौती बर्दाश्त की है? लेकिन यहां आप देख रहे हैं कि, सरकार हैरान है और वह तय नहीं कर पा रही है कि इस अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन से कैसे निपटे। और आप भी यहां इसलिए आए हैं क्योंकि अब तक आप निडर हो चुके हैं और स्वेच्छा से जेल जाने को खुद ही तैयार हैं।"
लोग गांधी जी की बात को ध्यान से सुन रहे थे, और गांधी कह रहे थे,
"मैं, अब आपसे एक कदम आगे आने के लिए कहूंगा। मान लीजिए कि भारत के सात लाख गांवों में से प्रत्येक गांव के, दस दस आदमी नमक बनाने, और नमक अधिनियम की अवहेलना करने के लिए, हिम्मत बांध कर आगे आते हैं, तो आप क्या सोचते हैं यह सरकार उस आंदोलन को तोड़ने में सक्षम है? यहां तक कि सबसे खराब निरंकुश सत्ता भी, एक तोप के मुंह से, शांतिपूर्ण प्रतिरोध कर रहे लोगों को उड़ाने की हिम्मत नहीं करेगा। यदि आप केवल अपने आप को थोड़ा सा बेहतर बना लेते हैं, साहस के साथ, अहिंसक प्रतिरोध करते हैं, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि, हम बहुत कम समय में इस सरकार को थका देने में सक्षम होंगे। मुझे आपसे कोई पैसा नहीं चाहिए... मैं चाहता हूं कि आप अपने साहस को अपने दोनों हाथों में लें और संघर्ष में योगदान दें। भगवान आपको इस अवसर के लिए दृढ़ बने की शक्ति दें।"
यह तैयारी थी दांडी यात्रा की, यात्रा के पहले, गांधी की यह मनःस्थिति थी। यह अहिंसा के प्रति उनकी दृढ़ता थी, जो बार बार अनेक मौकों पर नजर आती है। यह उनकी औपनिवेशिक दासता से, आजाद होने की संकल्पशक्ति थी, और साम्राज्य के नीतियों और किन परिस्थितियों में साम्राज्यवादी ताकतें, क्या कर सकती हैं, यह उनकी समझ थी। रात बीत गई थी। सूरज निकल आया था। सुबह की प्रार्थना हो चुकी थी। यात्री तैयार थे और अब बस गांधी के इशारे की देर थी।
....क्रमशः
विजय शंकर सिंह
A Night Before Gandhi's Dandi Yatra / Vijay Shankar Singh