आरएसएस और मोदी के इतिहास से परिचित कोई साधारण आदमी भी दिल्ली के दंगों और आगे इनकी और पुनरावृत्तियों का बहुत सहजता से पूर्वानुमान कर सकता है। फिर भी कथित रूप से दूरगामी लक्ष्यों को सामने रखने वाले राजनीतिक दलों की कार्यनीति में इस बोध की कमी क्यों दिखाई पड़ती है ?
यह एक विस्मय और गहराई से विचार का भी विषय है।
क्रांतिकारियों के पास प्रतिक्रांति के प्रतिकार की एक समग्र सम्यक रणनीति का अभाव साफ़ दिखाई देता है, जो सारी दुनिया में दक्षिणपंथ के उभार का भी बड़ा कारण है। पर सच यह है कि क्रांति का रास्ता इस रणनीति के बिना नहीं बन सकता है।
तीस के दशक में फासीवाद के ख़िलाफ़ पॉपुलर फ़्रंट की एक रणनीति सामयिक रूप से कुछ देशों में सफल हुई थी। लेकिन इतने सालों में भी उसकी आंतरिक कमज़ोरियों की समीक्षा और उसे एक मज़बूत विकल्प के रूप में विकसित करने का कोई सही विमर्श तैयार नहीं हो पाया है। वह क्यों क्रमिक रूप में राष्ट्रों की राजनीति के किसी नए पथ का आधार नहीं बन पाया, कैसे राजनीतिक दलों की सांस्थानिक सीमाओं ने उस समुच्चय के खुलेपन को बुरी तरह से व्याहत किया जो समग्र राजनीति-सामाजिक जीवन को अपने दायरे में ले सकता था ? इन प्रश्नों का गहरा विवेचन ज़रूरी है।
भारत में सभी वामपंथी क्रांतिकारी और जनतांत्रिक दलों के बीच इस प्रकार के खुले विमर्श का प्रारंभ होना चाहिए। उनमें आपस में एक ऐसी उदार समझ बननी चाहिए जो राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सभी मुद्दों को समेटते हुए एक सुचिंतित क्रमिक विकास का विकल्प तैयार कर सके। इसमें किसी भी प्रकार के थोथे आग्रह-पूर्वाग्रह की कोई जगह नहीं हो सकती है। मसलन्, परमाणविक संधि
क्रांति का अर्थ सत्ता पर एकाधिकार नहीं, जनता के जीवन में सुधार, बराबरी और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने वाली एक विकासमान सामाजिक रणनीति है।
-अरुण माहेश्वरी