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Hl Dusadh: A Dalit journalist equipped with merits!

मूकनायक के प्रकाशन के सौ वर्ष पूरे होने पर विशेष लेख

-डॉ. कौलेश्वर प्रियदर्शी

मूकनायक की शतवार्षिकी पर आयोजित हो रहे हैं बड़े-बड़े समारोह  

31  जनवरी दलित पत्रकारिता के इतिहास (History of Dalit Journalism,) का सबसे स्मरणीय दिवस है. इसी दिन “बहिष्कृत लोगों पर हो रहे और भविष्य में होनेवाले अन्याय के उपाय सोचकर उनकी भावी उन्नति व उनके मार्ग के सच्चे स्वरूप की चर्चा करने के लिये’ भारत-रत्न  डॉ. भीम राव आंबेडकर ने मराठी पाक्षिक मूकनायक का प्रकाशन प्रारंभ किया था। ‘मूकनायक’ यानी मूक लोगों का नायक। इसी मूकनायक पाक्षिक से दलित पत्रकारिता की शुरुआत हुई जो पहले महाराष्ट्र में फैली फिर वहां से भारत के विभिन्न प्रान्तों में विस्तार होते गया .

31 जनवरी, 2020  को मूकनायक के सौ साल हो रहे हैं. इस खास अवसर को स्मरणीय बनाने के लिए देश के विभिन्न इलाकों में दलित पत्रकारिता पर बड़े-बड़े आयोजन हो रहे हैं. इन आयोजनों में दलित पत्रकारिता के अतीत, वर्तमान और भविष्य की चर्चा के साथ, इसमें योगदान के लिए ढ़ेरो लोगो को याद तो कईयों को सम्मानित किया जायेगा. इस अवसर पर मैं अपना यह लेख एक ऐसे दलित पत्रकार पर केन्द्रित कर रहा हूँ, जिसकी पत्रकारिता की शुरुआत हो दो दशक पहले राष्ट्रीय अखबारों में छपने हुई एवं जिसने महज तीन-चार सालों में ही दलित ही नहीं, संपूर्ण हिंदी पत्रकारिता में एक नया अध्याय रच दिया, पर आज वह राष्ट्रीय अख़बारों से गायब है. यही नहीं टीवी डिबेट में उससे शानदार और स्टाइलिश अंदाज में अपनी बात रखने वाला भारत में शायद कोई और पत्रकार नहीं हुआ, पर, महज दो दशकों में सामाजिक परिवर्तन के मुद्दे पर एक से बढ़कर एक 80 विचारोत्तेजक किताबें तैयार कर भारतीय लेखन में सबको मीलों पीछे छोड़ चुका यह पत्रकार राष्ट्रीय स्तर के चैनलों से वह पूरी तरह बहिष्कृत है. जी

हाँ, मैं बात कर रहा हूँ डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ इंडिया के रूप में विख्यात भारत श्रेष्ठ पत्रकार एच.एल. दुसाध की.

दुसाध की पत्रकारिता पर सबसे पहले नजर किसी दलित की पड़ी तो वह थे सम्यक प्रकाशन  के स्वामी शान्ति स्वरूप बौद्ध (Swami Shanti Swaroop Buddhist). उन्होंने दुसाध के पत्रकारीय लेखों पर 2003 आई पहली पुस्तक ‘वर्ण व्यवस्था: एक वितरण व्यवस्था’ पर टिपण्णी करते हुए कहा था,

’एच.एल. दुसाध जी एक ऐसे अकेले पत्रकार हैं, जो विचारों का निर्माण करने वाली पक्षपाती मीडिया को आड़े हाथों लेकर दलित-पिछड़ों के चहेते चिन्तक व पत्रकार बन गए हैं. भारतीय मीडिया की अमानवीयता एवं संवेदनहीनता को दुसाध जी जैसे जीवट के लेखक ही उजागर  कर सकते हैं..जितने अधिक विषयों को तथ्यपरक प्रस्तुत करने का काम दुसाध जी की  लेखनी ने किया है, वैसी विलक्षण क्षमता अन्य दलित गैर-दलित लेखकों में देख पाना दुर्लभ है. उन्होंने खोजपूर्ण शैली में लिखकर दलित चिंतन को जो गौरव वृद्धि का कार्य किया है, वह कार्य इतना प्रभावशाली है, जो स्वतः ही हिन्दू पत्रकारिता के लिए एक बड़ा चुनौती बन गया है.’

लेकिन बौद्ध जी ने दुसाध की पत्रकारिता पर जो टिप्पणी की थी, वह दुसाध की पत्रकारिता की झलक मात्र थी. पत्रकार दुसाध का सही रूप सामने लाया भारत विख्यात आलोचक प्रोफ़ेसर वीरभारत तलवार ने. उन्होंने 2004 में ‘हंस’ के दलित विशेषांक में ‘दलित पत्रकारिता : नई कसौटी , नए सवाल’ शीर्षक से दुसाध की पत्रकारिता पर एक बड़ा लेख लिखकर दुनिया को बताया कि कौन है दुसाध और कैसी है उसकी पत्रकारिता. उनके उस लेख ने दलित पत्रकारिता की बहुत पूर्व धारणाओं को भी ध्वस्त कर दिया . उन्होंने लेख के शुरुआत में ही दुसाध पर भूमिका बांधते हुए लिखा था-:

‘1850 से 1950 के बीच भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ हुई लड़ाई, जितनी क्रांतिकारी घटना थी, खुद ब्रिटिश शासन की मौजूदगी भी उससे कम क्रांतिकारी घटना न थी, जिसने भारत में पूंजीवादी रूपांतरण को संभव कर सदियों से चली आ रही वर्ण और जाति व्यवस्था को तोड़ने का भौतिक आधार जुटा दिया था. यों तो भारत में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन पहले भी होते रहे हैं , पर, उनके नतीजे इतने दूरगामी कभी नहीं निकले, जितने ब्रिटिश शासन के तहत हुए परिवर्तनों से निकले. एक बार भौतिक आधार जुट जाने के बाद जरुरत थी ऐसी चेतना और ऐसे प्रयत्नों की जो बदली हुई परिस्थितियों में लोगों जागृत और संगठित कर वर्ण- व्यस्था और जाति-प्रथा की विचारधारा पर हल्ला बोल सकें और इस विचारधारा पर खड़ी व्यवस्था को बदलने का संघर्ष छेड़ सके. इस कमी को पूरा किया फुले, आंबेडकर और पेरियार ने. इन नेताओं ने जिन क्रान्तिकारी परिवर्तनों के बीज बोये , आज वे अंकुरित होकर फल-फुल रहे हैं. आज उत्तर भारत में उभरी दलित राजनीति और दलित साहित्य का आन्दोलन उन्हीं क्रान्तिकारी बीजों से उगी फसल है. लेकिन पिछले पचास सालों में धीरे-धीरे फैली और विकसित हुई लड़ाकू दलित चेतना की जैसी अभिव्यक्ति राजनीति और साहित्य के क्षेत्र में हुई, वैसी अभी तक दूसरे क्षेत्रों में नहीं हो पाई है. लेकिन 21 वीं सदी की शुरुआत के साथ ऐसे संकेत मिलने लगे हैं जिनसे लगता है कि इन क्षेत्रों में भी दलितों का प्रवेश जल्द होगा. इनमें से एक क्षेत्र पत्रकारिता का है, जिसमें  दलितों का प्रवेश वास्तव में हो चुका है.

पत्रकारिता के प्रति पूरी तरह समर्पित अकेला दलित पत्रकार : एच.एल.दुसाध

हिंदी पत्रकारिता में दलितों ने अभी तक अपना कोई बड़ा इलाका कायम नहीं किया है. हिंदी प्रेस और पत्रकारिता के 99 प्रतिशत हिस्से पर अब भी द्विजों का बोलबाला है. फिर भी थोड़े से जो पत्रकार उभरकर सामने आ रहे हैं और प्रेस पत्रकारिता से जुड़े कई सवर्णों ने भी उनके प्रति जैसा स्वागत भाव दिखाया है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है. यों तो मोहनदास नैमिशराय पुराने पुराने दलित पत्रकार हैं. उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत ही पत्रकारिता से की थी, लेकिन हिंदी समाज उन्हें उनकी पत्रकारिता से कम, उनकी मशहूर आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ के लिए ज्यादा जानता है. डॉ. श्योराज सिंह बेचैन ने दलित पत्रकारिता पर शोध किया, लेकिन खुद पत्रकारिता नहीं की. फिलहाल दिल्ली और उसके आस-पास से निकलने वाले हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में तीन महत्वपूर्ण नाम उभर कर आये हैं. कँवल भारती, चंद्रभान प्रसाद और एच.एल. दुसाध. आज दलित पत्रकारिता इन्ही के नामों से जानी जा रही  है. इनमे चंद्रभान प्रसाद मुख्य रूप से दलित चिन्तक और सिद्धांतकार हैं. कँवल भारती कवि साहित्यकार भी हैं. अकेले एच.एल दुसाध ही हैं जो पूरी तरह पत्रकारिता को समर्पित हैं.

दुसाध की पत्रकारिता का दायरा !

एच.एल. दुसाध की पत्रकारिता में जिस बात पर ध्यान सबसे पहले जाता है, वह है, उनकी पत्रकारिता का लम्बा-चौड़ा दायरा. सचमुच यह सुखद आश्चर्य है कि बिलकुल शुरूआती दौर में भी एक दलित पत्रकार इतने ज्यादा विषयों पर अधिकारपूर्वक  कलम चलाता है. एच.एल.दुसाध सिर्फ दलितों के उत्थान से सम्बंधित कार्यक्रमों तक सीमित न रहकर जीवन और समाज के लगभग सभी क्षेत्रों को अपनी पत्रकारिता के दायरे में लाते हैं. यह दायरा इतना बड़ा है कि इसमें विभिन्न दलों की राजनीति, साहित्य के प्रश्न, फिल्म, क्रिकेट, ओलम्पिक, टी.वी., शिक्षानीति, धर्म से जुड़ी घटनाएँ, भू-मंडलीकरण और अर्थनीति, सभी कुछ आ जाता है. पत्रकारिता का यह दायरा यूँ ही, सिर्फ रोजी-रोटी के लिए नहीं है बल्कि उसके पीछे दुसाध के जीवन का एक मिशन है, जिसका पता चलता है उनकी पत्रकारिता पर छपी पहली किताब के लेखकीय वक्तव्य से-‘मैंने भारत की सभ्यता, संस्कृति, धर्म, राजनीति, समाज व अर्थ व्यवस्था, साहित्य और फिल्म, टी.वी. आदि के इतिहास के पुनर्लेखन का संकल्प लिया था.’(हिन्दू आरक्षण और बहुजन संघर्ष, पृ- 14 , सम्यक प्रकाशन, 2003) .यह बहुत बड़ा लक्ष्य है, जहाँ पहुचने के लिए मंजिले पार करनी होगी,लेकिन इसमें शक नहीं कि एच.एल.दुसाध कोई कस्बाई या स्थानीय पत्रकार नहीं है. वे न  सिर्फ एक बड़े शहर के पत्रकार हैं, बल्कि ऐसे सजग और योग्य पत्रकार हैं , जो गोल-मोल नहीं लिखते , शब्दाडंबर खड़ा नहीं करते, बल्कि जो अपने विषय के कमोवेश जानकार हैं और शोधकार्य के अलावा पत्रकारिता के दूसरे आधुनिक औंजारों से भी एक हद तक लैस हैं.’

दुसाध ने जोड़ दिया : हिंदी पत्रकारिता में एक नया अध्याय

दुसाध के पत्रकारीय दायरे की बुनियादी जानकारी देने के बाद उस बड़े लेख में उन की पत्रकारिकता के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से रौशनी डालने के बाद अंत में लिखते हैं.-: ‘ कुछ कमियों और सवालों के बावजूद दुसाध की पत्रकारिता में जो व्यापक दायरा है, अनगिनत विषय हैं, उन पर लिखने लायक ज्ञान और योग्यता है, पैनी दृष्टि और ताजगी – वह स्वागत योग्य है. इसने हिंदी पत्रकारिता में एक नया अध्याय जोड़ा है. दुसाध की पत्रकारिता के स्तर को देखते हुए यह यकीन  पुख्ता होता है कि वह दिन दूर नहीं जब प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, फिल्म, एकेडेमिक्स, उद्योग, वाणिज्य और व्यवसाय; इन सभी क्षेत्रों में दलितों की उपस्थिति दर्ज कराने के लिए दुसाध्य का जो आग्रह है, वह डाइवर्सिटी सिद्धांत के बिना भी, जल्द  पूरा होगा.’

अत्यंत उच्चकोटि के थेयोरेटीशियन : दुसाध

2004  में प्रोफ़ेसर तलवार ने दुसाध के पत्रकारिता की जो खूबियां गिनाया था, उनपर मोहर लगाते हुए जेएनयू के प्राख्यात समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर विवेक कुमार ने 2005 में आई उनकी पत्रकारिता की एक और किताब पर राय देते हुए लिखा था.’ दुसाध का भारतीय समाज व्यवस्था का आंकलन सामान्य दलित आंकलनों से  मात्रात्मक रूप में भिन्न है, जो अत्यंत उच्चकोटि के थेयोरेटीशियन के कलम का कमाल है. वर्ना साधारणतया दलित समुदाय समाज में अपनी सामाजिक व्यवस्था को सामाजिक वंचना के एकांगी दृष्टिकोण से देखता है. परन्तु दुसाध इसे वितरण व्यवस्था के अंतर्गत आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक,  शैक्षणिक संस्थाओं की समग्रता में परिभाषित करते हैं. वितरण(Distribution ) तथा  आरक्षण(Reservation) के अंतर्द्वंदवाद (Dilecticism) को अभी तक भारतीय व्यवस्था में किसी ने चिन्हित नहीं किया था. इसलिए दुसाध अपनी बुद्धि तथा पैनी दृष्टि दोनों के लिए बधाई के पात्र हैं...वैसे दुसाध की नवींन परिकल्पनाओं, संरचनाओं तथा वस्तुनिष्ठ आंकलन को किताब की भूमिका में समेटना संभव नहीं है. क्योंकि एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में उनके लेखों के मुद्दों का क्षितिज इतना व्यापक है कि औसत दर्जे के बुद्धिजीवी द्वारा उसका विश्लेषण संभव ही नहीं है.

दुसाध : पत्रकार या किसी विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर- प्रोफ़ेसर विवेक कुमार

दुसाध के ज्ञान एवं सामान्य विज्ञान का कैनवास यू.पी. से लेकर यू.एस.ए. तक है. छोटी से छोटी गाँव की जानकारी से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अश्वेतों का फिल्मों में योगदान या आर्थिक जगत में ‘ डाइवर्सिटी प्रिंसिपल’ : सभी पर उनका समान अधिकार है. उनके सूक्ष्मतम और उच्चतम  स्तरों के ज्ञान को पढ़कर पाठक यह सोचने पर मजबूर होगा कि वह पत्रकार हैं या किसी विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर ! यहां मैं पत्रकार एवं प्रोफ़ेसर की तुलना नहीं, जर्नलिस्ट एवं विशेषज्ञ की तुलना कर रहा हूँ. मेरे कहने का तात्पर्य यह हैं कि यदपि दुसाध जर्नलिस्ट हैं, फिर भी वे अपने लेखों में किसी भी विषय के विशेषज्ञ के भाँति ही विषय की बारीकियों को विश्लेषित करते हैं. क्या दुसाध के लिए कोई समाचार पत्र जगह बनाएगा? जबकि दुसाध उत्तर जानते हैं, फिर भी समय एवं समाज की धारा के विरुद्ध उनका लेखन जरी है. जो उनके असामान्य संबल, कुशाग्रता तथा निष्काम क्रिया का प्रतीक है.’

शांति स्वरुप बौद्ध, प्रोफ़ेसर वीरभारत तलवार , प्रोफ़ेसर विवेक कुमार ने दुसाध की पत्रकारिता के विषय में उपरोक्त राय डेढ़ दशक पहले व्यक्त की थी. तब उनकी पत्रकारिता शुरुआती दौर में थी. किन्तु बाद के डेढ़ दशकों में कंप्यूटर से जुड़ने के बाद समय के साथ दुसाध के पत्रकारीय लेखों की मात्रा और गुणवत्ता में और इजाफा होता गया. इन विगत वर्षों में उन्होंने जिस जूनून और मिशन भाव से पत्रकारिता की है, उसकी मिसाल भारत तो दूर, शायद पूरी दुनिया में ही नहीं मिलेगी. इन विगत वर्षों में दुसाध इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि मानव जाति की सारी समस्याये: चाहे ग्लोबल वार्मिंग हो सभ्यताओं के टकराव का खतरा, क्षेत्रीय टकराव का मामला हो या आतंकवाद : सबकी जड़ विवधता की अनदेखी है . इसलिए वह अपनी पत्रकारिता के जरिये जैविक-विविधता(Bio-Diversit ) धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता(Religeous-cultural Diversity), क्षेत्रीय- विविधता(Regional-Diversity) के प्रति लोगों को जागरूक करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते. लेकिन दुसाध का मानना है कि मानव – जाति की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी है और यह समस्या सबसे भीषण रूप में भारत में व्याप्त है . चूंकि दुसाध के अध्ययन का निष्कर्ष है कि सदियों से ही भारत सहित सारी दुनिया में ही इस समस्या(आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी) की उत्पत्ति शासकों द्वारा शक्ति के स्रोतों(आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक- धार्मिक ) में सामाजिक(Social) और लैंगिक(Gender) विविधता(Diversity) के असमान प्रतिबिम्बन(Reflection) कराये जाने से होती रही है, इसलिए वह इस समस्या से भारत को निजात दिलाने के लिए अपने लेखों में शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के सम्यक प्रतिबिम्बन की लगातार हिमायत किये जा रहे हैं.

दुसाध की पत्रकारिता का असर !

विविधता के इस सिद्धांत के तहत दुसाध सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों के साथ सप्लाई, डीलरशिप, ठेक्दारी, पार्किंग-परिवहन, फिल्म-मीडिया  इत्यादि अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों; ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों, मंत्रीमंडलों ; प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा में छात्रों के एडमिशन, टीचर स्टाफ की नियुक्ति, मंदिरों में पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि समस्त का बंटवारा भारत के प्रमुख समाजों- सवर्ण, ओबीसी, एससी-एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों- के स्त्री –पुरुषों के संख्यानुपात कराये जाने के लिए अपनी कलम को तलवार की तरह इस्तेमाल किये जा रहे है. प्रोफ़ेसर तलवार ने दुसाध के जिस मिशन जिक्र किया है, वह शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का वाजिब प्रतिबिम्बन ही है. उनका संपूर्ण पत्रकारीय कर्म इसी विविधता के प्रति समर्पित है. इस काम को जूनून के साथ किये  जाने के कारण आज वंचित वर्गों में नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार प्रत्येक क्षेत्र में संख्यानुपात में भागीदारी की चाह पनप रही हैं. उनकी चाह का अंदाजा लगाते हुए कई सरकारें ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब, पुरोहिती इत्यादि में आरक्षण दे रही हैं. उनके लेखन के असर को देखते हुए ‘दलित कैसे बने लखपति-करोडपति’ के लेखक बृजपाल भारती ने लिखा है-‘ वर्तमान बहुजन मूवमेंट को गति देने में 50 प्रतिशत योगदान अकेले दुसाध का है. मंचों से घंटों बोलने वालों के मुंह से भागीदारी की हिमायत करने वाले शब्द मुख्यतः दुसाध के ही होते हैं, चाहे वे इसे स्वीकार करें या न करें !’. दुसाध ने अपने लेखों के जरिये डाइवर्सिटी के विचार को जिस स्तर तक फैलाया है, उसे  तीन दर्जन से अधिक किताबों के लेखक डॉ. विजय कुमार फ़्रांस की क्रांति की तर्ज पर फैलाये जाने की जरुरत अपनी कई किताबों में बताई है.

उठ रही है दुसाध को नोबेल पुरस्कार दिए जाने की मांग

अपने लेखों द्वारा शक्ति के स्रोतों में विविधता की निरंतर हिमायत किये जाने के कारण आज दुसाध बहुजनों के संभवतः सबसे बड़े बौद्धिक नायक बन गए हैं. सोशल मीडिया पर उनके कद्रदान इस काम के लिए रह-रहकर उन्हें पद्म भूषण से लेकर भारत रत्न दिए जाने की मांग उठाते रहे हैं. अखिलेश यादव के शासन काल में जिन थोड़े लोगों को यश भारती दिए जाने की मांग जोर-शोर से उठी, उनमें एक नाम एच.एल. दुसाध का भी रहा. इस मामले में 2019 में एक नया रुझाव देखने को मिल रहा है. 2019 में कई बार सोशल मीडिया में उन्हें नोबेल दिए जाने की मांग उठी. सबसे पहले यह तब उठी जब पत्रकार रवीश कुमार को मैग्सेसे अवार्ड दिए जाने की घोषणा हुई. इस अवसर पर सुप्रसिद्ध पत्रकार महेंद्र यादव ने लिखा- ‘यदि जोखिम भरी पत्रकारिता के लिए रवीश कुमार को मैग्सेसे अवार्ड मिल सकता है तब तो डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ इंडिया श्री एच.एल.दुसाध को बहुत पहले नोबेल मिल जाना चाहिए था . सरकार और व्यवस्था पर सवाल उठाने का जोखिमपूर्ण साहस वे बरसों से करते रहे हैं.’दुसाध के एक उत्साही कद्रदान ने लिखा.’रवीश जैसे चार लोग दुसाध का असिस्टेंट होना चाहए.’

बाद में जब अभिजीत बनर्जी को नोबेल प्राइज मिला , सोशल मीडिया पर दुसाध को नोबेल दिए जाने की मांग फिर उठी. इस अवसर पर पत्रकार महेंद्र यादव ने फिर एक बार फिर लिखा-‘अभिजित बनर्जी गरीबी दूर करने के कोई टिकाऊ बताते हैं क्या? गरीबी तो सापेक्ष होती है. एक लाख रुपये कमाने वाला भी एक करोड़ रूपये कमाने वाले के सामने दरिद्र है.असमानता दूर किये बिना गरीबी हट नहीं सकती और असमानता हट सकती है तो केवल H.L.Dusadh  के डाइवर्सिटी सिद्धांत से.

गरीबी दूर करने का सबसे अच्छा उपाय, साधनों-संसाधनों का हर स्तर पर सभी वर्गों के मध्य उचित बंटवारा है. और इस Diversity के सिद्धांत के प्रतिपादक –डाइवर्सिटी मैन H.L .Dusadh का हक़ : नोबेल पुरस्कार के लिए अभिजीत बनर्जी और तमाम अर्थशास्त्रियों से ज्यादा बनता है. डाइवर्सिटी का सिद्धांत सामाजिक शान्ति भी अद्भुत रूप से पैदा कर सकता है . दुसाध साहब को अर्थशास्त्र और शान्ति, दोनों वर्गों के नोबेल पुरस्कार मिलने चाहिए!’ उनके इस पोस्ट को इस बार भी खूब शेयर और लाइक मिली.

हाल के दिनों में दुसाध को नोबेल प्राइज दिए जाने की जो शख्स सबसे पुरजोर मांग उठा रहा है, उनका नाम है डॉ. रमेश प्रेमी. भोपाल के एमडी स्कॉलर(होम्योपैथी मेडिसिन) डॉ. रमेश प्रेमी दिसंबर 2019  में दुसाध को नोबेल पुरस्कार  दिए जाने के लिए सोशल मीडिया पर कई पोस्ट डाले. इस मसले पर उनका एक लेख ‘आंबेडकर इन इंडिया’ पत्रिका के दिसंबर अंक में भी प्रकाशित हुआ.डॉ.प्रेमी लिखे जा रहे है-‘ इस आधुनिक सदी के चार महानायक , जो Dare to be wise को दुनिया के सामने रखा, जिससे पूरी दुनिया और भारत के सभी जिव-जन्तु और मनुष्य संतुलित जीवन जी रहे हैं. डॉ. भीम राव जी आंबेडकर ने लॉ ऑफ़ डाइवर्सिटी और भारतीय संविधान तो महात्मा गांधी लॉ ऑफ़ नॉन-वोइलेंट मूवमेंट दिए. होम्योपैथी के जनक डॉ. हैनिमन ‘लॉ  ऑफ़ नेचर’ तो दुसाध जी लॉ ऑफ़ डाइवर्सिटी दिए. इनके विचार ऐसे हैं, जिनके बिना जीव मंडल ही नष्ट हो जायेगा. दुनिया की रीत तो देखों इनमे से किसी को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया..ये सभी भारतीयों के लिए गर्व का विषय है कि हम सभी इस सदी के महानायक आदरणीय श्री H.L.DUSADH जी जैसे समाज सेवी और प्रकृति के ज्ञाता के लाइव एरा में हैं. उनको जितना चाहे जान सको तो जान लो भाइयों और बहनों. क्योंकि हम सभी डॉ. आंबेडकर और गांधी के एरा में नहीं थे. पर, दुसाध के एरा में हैं, जिनका  सभी जीव-जंतुओं और प्रकृति; धर्मों के आधार पर वंचित किये गए लोगों से लगाव है और इनके हित में वह जूनून के साथ कलम चला रहे हैं.’

बहरहाल आज जबकि हम मूकनायक के प्रकाशन के सौ वर्ष पूरे होने पर दलित पत्रकारिता के अतीत, वर्तमान और भविष्य पर चर्चा करने जा रहे हैं, क्या बेहतर नहीं होगा कि हम पत्रकारिता जगत की विरल व बेमिसाल हस्ती दुसाध को , जिन्हें ढेरों लोग मिनी आंबेडकर कहते हैं, को नोबेल पुरस्कार दिलाने की मुहीम चलायें!

जय-भीम- जय भारत

(डॉ. कौलेश्वर प्रियदर्शी रवीन्द्र किशोर शाही महाविद्यालय के एसोसियेट प्रोफ़ेसर और ‘ एच.एल. दुसाध: डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ इंडिया’ सहित कई पुस्तकों के लेखक हैं.)

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