आज 20 जनवरी, 2021 भी बहुजनों के शोक- दिवस में शामिल हो गया. आज देर रात मशहूर बहुजन लेखक और अरुणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल माता प्रसाद का परिनिर्वाण हो गया. उनके निधन से बहुजन समाज के जागरूक लोग, खास कर दलित लेखकों में शोक की लहर दौड़ गयी है.
11 , अक्टूबर , 1925 को उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के शेखपुरा ग्राम को अपने जन्म से धन्य करने वाले श्री जगरूप राम जी की संतान माता प्रसाद 1957- 1977 तक पांच बार उत्तर प्रदेश विधान सभा का, जबकि 1980 - 1992 तक दो टर्म विधान परिषद के सदस्य रहे. परवर्तीकाल में 1993 - 1999 तक राज्यपाल एवं पूर्वोत्तर परिषद के चेयरमैन रहे.
इस दौरान जब्बार पटेल के निर्देशन में डॉ. अंबेडकर पर बनने वाली फिल्म की स्क्रिप्ट निर्माण समिति के चेयरमैन भी रहे. परवर्तीकाल में राजनीति से मोह विसर्जित कर लेखन की ओर मुड़े और जीवन के शेष काल तक धुंआधार लेखन करते रहे.
इन पंक्तियों को लिखने के दौरान प्राख्यात दलित लेखक जय प्रकाश कर्दम ने बताया कि सप्ताह भर पूर्व ही उन्होंने अपनी नई किताब की पांडुलिपि उन्हें देखने के लिए भेजी थी. बहुजन
उन्हें इस अवस्था में देखने का अवसर मुझे गत 10 जनवरी को मिला. उस दिन मैंने उन्हें जिस अवस्था में देखा, उससे आशंका हुई कि फिर शायद उन्हें चलते - फिरते नहीं देख पाऊंगा और वही हो गया. वह हम सब को अनाथ कर दुनिया छोड़ गए.
झोपड़ी से राज भवन तक सफर करने वाले राजनेता माता प्रसाद ने जिस तरह राजभवन छोड़ने के बाद राजनीति का मोह विसर्जित पूर्ण कालिक तौर पर खुद को लेखन के प्रति समर्पित किया, वह बहुजन इतिहास की विरल घटना है. यश और धन का सबसे आसान जरिया राजनीति के ऊपर लेखन को तरजीह देना वंचित समाज के किसी नेता के लिए बहुत कठिन काम था, जो उन्होंने किया.
और पूरी तरह से लेखन में उतरने के कुछ ही अंतराल में उनकी छवि दलित लेखकों के अभिभावक की हो गयी. उन्होंने विविध विषयों पर 50 से अधिक किताबें लिखकर जिस तरह दलित साहित्य को समृद्ध किया, उसकी मिसाल मिलनी कठिन है. उनके नहीं रहने पर साहित्य में उनके अवदानों की चर्चा लम्बे समय तक होती रहेगी.
मेरा मानना है उनके जैसे साहित्यकार तो भविष्य और भी लोग हो सकते हैं, पर साहित्यकार के साथ उनके जैसे आला दर्जे का इंसान कम से कम मैंने तो नहीं देखा.
अरुणाचल प्रदेश का राज्यपाल रहने के दौरान मुझे ईंटा नगर के राजभवन में मिलने का अवसर मिला था. तब मेरा लेखन से कोई संपर्क नहीं था: हाँ लेखक बनने का दुःसाहसपूर्ण सपना देखना जरूर शुरू किया था और 2000 से लेखकों की जमात में शामिल भी हो गया. उसी वर्ष जून में मेरे बड़े बेटे की शादी थी. शादी चूंकि विजातीय थी इसलिए कई लेखकों के साथ माता प्रसाद भी सोत्साह उसमें शामिल हुए और लगभग 8 घंटे रहे. उस दरम्यान ही उन्होंने व्यक्ति के रूप में जो श्रद्धा जय की, उसमें उत्तरोंतर वृद्धि होती गयी.
2000 के बाद तो अनेकों मुलाकातें हुईं; बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के कई आयोजनों में अध्यक्षता से लेकर मुख्य अतिथि का भार वहन किये. इन मुलाकातों में उनकी बहुजन समाज के मुक्ति के लिए बेचैनी देखकर अभिभूत हुआ, किंतु सर्वाधिक प्रभावित उनकी दलित लेखकों के प्रति सकारात्मक नजरिये से हुआ.
सबको साराहने वाले माता प्रसाद सर मुझे तमाम लेखकों से बहुत उपर रखते रहे और उसका खास कारण था डाइवर्सिटी!
माता प्रसाद का मानना था सिर्फ सिर्फ डाइवर्सिटी से ही दलित बहुजनों की मुकम्मल मुक्ति एवं भारतीय लोकतंत्र को नई शक्ति मिल सकती है. उनका दुनिया से जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति है, क्योंकि हम डाइवर्सिटी आंदोलन के लिए उत्साहित करने वाले एक असाधारण शख्सियत से महरूम हो गए!