जब नेपोलियन रूस से हार कर वापस आया तो उससे हार का कारण पूछा गया। उसका उत्तर था, "मुझे लेफ्टिनेंट जनरल फ्रास्ट ने हराया है" (फ्रास्ट बाईट अत्यधिक बर्फीली सर्दी में होने वाली खतरनाक बीमारी है)। इसी तरह यदि कोई मुझसे पूछे कि कोरोना की भयावह दूसरी लहर का मुख्य कारण क्या है? तो मेरा उत्तर होगा "अनुशासन हीनता"।
मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि अनुशासनहीनता हमारे खून में प्रवेश कर गयी है। किसी देश में अनुशासन है या नहीं इसका अंदाजा उस देश की सड़कों को देखकर लगाया जा सकता है।
हमारे देश में अक्सर यह देखने को मिलता है कि बत्ती लाल होने के बावजूद वाहन चालक उसकी परवाह किये निकल रहे हैं।
समाचारपत्रों में छपी एक खबर के अनुसार मोटर साइकिल पर सवार चार लोगों की एक दुर्घटना में मौत हो गयी। इस खबर से यह स्पष्ट होता है कि हमारे देश में चार लोग मोटर साइकिल पर बैठते हैं। सड़कों पर कभी अनुशासन का पालन नहीं होता है।
हमारे देश के संविधान के अनुसार संसद हमारे देश की सबसे शक्तिशाली संस्था है। परन्तु अनुशासनहीनता के जो भद्दे दृश्य संसद और विधानसभाओं में देखने को मिलते हैं उनसे हमारा सिर शर्म से झुक जाता है।
हमने हमारी संसदीय व्यवस्था के निर्माण में ब्रिटेन का अनुकरण किया है। ब्रिटेन में आज भी स्पीकर की
जब देश की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्था में अनुशासनहीनता की यह स्थिति है तो पूरे देश की किस अन्य संस्था से अनुशासन ही अपेक्षा की जा सकती है?
संसदीय प्रजातंत्र के संचालन में राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिक नेताओं की प्रमुख भूमिका होती है। परन्तु राजनीतिक पार्टियों और अनुशासन का दूर का संबंध नहीं रह गया है। आये दिन समाचार पत्रों में पढ़ने और टेलीविजन में देखने को मिलता है कि किसी पार्टी के सम्मेलन में सदस्यों के बीच मारपीट हुई, कुर्सिया फेंकी गई। पार्टियों के सम्मेलनों में गुटबाजी के दृश्य देखने को मिलते हैं। कई बार यह सुनने को मिलता है कि अमुक पार्टी के सम्मेलन में इतना हंगामा हुआ कि अंततः सम्मेलन बिना एजेन्डा पूरा किये समाप्त करना पड़ा।
पार्टियों में कम ही ऐसे नेता रह गये है जो कहे "शांत रहिये" और सभा में बैठे लोग शांत हो जाये। नेहरू के समय में ऐसा होता था। यदि उनके भाषण के दौरान शोर होता था तो वे कभी-कभी शांति करवाने के लिये मंच से नीचे कूदकर शांति करवाते थे। उसके बाद सभा मे पिन ड्राप साईलेन्स हो जाता था, इस समय ऐसा अनुशासन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और कम्युनिस्ट पार्टियों में पाया जाता है।
संघ का दावा है कि उसके स्वयंसेवकों की संख्या लाखों में है परन्तु संघ ने कोरोना महामारी के दौरान अनुशासन पालन करवाने में अपनी संगठन शक्ति का उपयोग नहीं किया।
न सिर्फ राजनीतिक पार्टियों में अनुशासनहीनता का रोग फैल गया है बल्कि शिक्षण संस्थाएं भी अनुशासन हीनता के रोग से ग्रस्त है। आये दिन समाचार पढ़ने को मिलता है कि एन.एस.यू.आई, विद्यार्थी परिषद या किसी अन्य छात्र संगठन के सदस्यों ने प्राचार्य का मुँह काला कर दिया, प्रोफेसर की पिटाई कर दी।
यदि शिक्षण संस्थाओं में अनुशासन स्थापित नहीं किया जाएगा तो समाज में वह कैसे स्थापित होगा? क्योंकि शिक्षण संस्थानों से निकले लोग ही समाज में विभिन्न जिम्मेदारियां सम्हालते हैं।
ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें अनुशासनहीनता न हो। ट्रेन में चढ़ते वक्त, यहां तक कि एसी डिब्बे में चढ़ते वक्त धक्का-मुक्की होती है, यही हाल बसों में होता है। शादियों तक में भोजन लेते समय धक्का मुक्की हो जाती है। जब किसी आयोजन में स्वल्पाहार या भोजन का प्रबंध होता है तो पहले कौन ग्रहण करेगा इसकी होड़ लग जाती है।
कोरोना के प्रकोप के दौरान प्रतिदिन अनुशासनहीनता के दृश्य देखने को मिले। यदि इस दरम्यान सभी लोग मास्क पहने रहते, दूरी बनाये रखते तो शायद दूसरी लहर नहीं आती।
मुख्यमंत्री ने कोरोना गाईडलाइन का पालन करने का अनुरोध करते हुए दो बार पूरे भोपाल शहर की परिक्रमा की परंतु इसका भी कोई असर नहीं हुआ। कोरोना की दोनों लहरों के दौरान मुख्यमंत्री, मंत्रियों और राजनीतिक नेताओं ने अनेक आम सभाएं कीं। भाषण देते समय उन्हें स्पष्ट देखने को मिला होगा कि अनेक लोग न तो मास्क पहने हुए हैं न ही निर्धारित दूरी बनाये हुये हैं। ऐसी स्थिति में वक्ता लोगों को डांट सकता था कि यदि आप नियमों का पालन नही करेंगे तो मैं सभा का बहिष्कार कर दूंगा और बिना भाषण दिये सभा छोड़कर चला जाऊंगा। पर शायद किसी नेता में ऐसी हिम्मत नहीं दिखती।
Journalists also often demonstrate indiscipline.
पत्रकार भी प्रायः अनुशासन हीनता का प्रदर्शन करते हैं। पत्रकार वार्ताओं के दौरान एक साथ कई पत्रकार प्रश्न पूछते हैं। इस संदर्भ में मुझे एक घटना याद आ रही है।
एक दिन भोपाल में एक दिग्गज नेता की पत्रकार वार्ता आयोजित हुई। नेता से एक साथ अनेक पत्रकार एक साथ प्रश्न पूछ रहे थे। जब यह सिलसिला नहीं रूका तो नेता ने कहा कि यदि आप अनुशासन नहीं बनाएंगे तो मैं पत्रकार वार्ता अधूरी छोड़कर चला जाऊंगा। परन्तु कुछ ही नेताओं में ऐसा साहस होता है।
अंतः में मैं पुनः यह दोहराना चाहता हूँ कि अनुशासनबद्धता एक राष्ट्र का चरित्र होना चाहिये। परन्तु हम अनुशासन का अपने राष्ट्रीय चरित्र का अभिन्न अंग नहीं बना पाये।
अपने इस लेख को मैं ब्रिटेन की एक घटना का उल्लेख करके समाप्त करना चाहूँगा। हमारे देश के एक वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री का लंदन के प्रवास के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री से मुलाकात का समय तय हुआ था। जब वे प्रधानमंत्री निवास की तरफ अपने वाहन से जा रहे थे तभी एक लाल बत्ती के कारण उन्हें रूकना पड़ा। इस पर उनके एक सुरक्षाकर्मी ने लाल बत्ती के इनचार्ज से बत्ती निर्धारित अंतराल के पूर्व बत्ती हरी करने का अनुरोध करते हुए कहा कि हमारे मंत्री को प्रधानमंत्री से मिलने में देरी हो जायेगी। इस पर लाल बत्ती इनचार्ज ने कहा कि आप पीछे खड़े वाहनों को देखिये। उनमें से एक में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री स्वयं बैठे हुये है। यह सुनकर हमारे मंत्री के सुरक्षाकर्मी को काफी शर्मिंदगी हुई। स्पष्ट है अनुशासन के मामले में ब्रिटेन में भेदभाव नहीं होता है।
एल एस हरदेनिया