पंद्रह साल पहले की बात है। अमेरिका के प्रसिद्ध अखबार वाशिंग्टन पोस्ट ने एक अनूठा प्रयोग किया। 12 जनवरी 2007 का दिन हर दिन की तरह एक आम दिन था। दिन शुरू हुआ तो रोज़ की तरह की तरह लोग अपने-अपने कामों के लिए निकल पड़े। इसी बीच भीड़-भाड़ वाले एक मेट्रो स्टेशन पर एक आदमी ने स्टेशन के प्लेटफार्म पर आकर वायलिन बजानी शुरू कर दी। मीठी धुनों की स्वर लहरियां फिज़ां में फैलने लगीं। पश्चिमी देशों की परंपरा (western tradition) के अनुसार वायलिन बजाने वाले उस व्यक्ति ने अपना हैट उल्टा करके सामने रख दिया, जिसका मतलब है कि आने-जाने वाले लोग उस कलाकार के फन की प्रशंसा में उसमें कुछ पैसे रखते चलें। ऐसे कलाकार किसी से खुद कुछ नहीं मागते। दर्शक लोग अपनी मर्ज़ी से कुछ देना चाहें तो देते हैं, कलाकार की कला का आनंद लेते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
चूंकि सवेरे का समय था और लोगों को अपने-अपने कामों पर पहुंचने की जल्दी थी, इसलिए प्लेटफार्म पर आने-जाने वाले लोगों ने उस कलाकार की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया।
एक छोटा बच्चा जो अपनी मां के साथ उधर से गुज़र रहा था, धुन की मिठास के कारण ठिठका, लेकिन उसकी मां ने उसे "जल्दी चलो, देर हो रही है" कहते हुए आगे खींच लिया।
कलाकार ने जब अपने संगीत को विराम दिया तो उसके हैट में कुल 20-22 डालर ही थे।
यह कलाकार कोई और नहीं विश्व प्रसिद्ध वायलनिस्ट जोशुआ बेल थे जिन्हें वाशिंग्टन
कैसी थी जोशुआ बेल की प्रसिद्धि? How was Joshua Bell's fame? | The music man: Joshua Bell
जोशुआ बेल की प्रसिद्धि का आलम यह था कि उनके कांसर्ट हमेशा ओवर-सब्सक्राइव होते थे, यानी, कांसर्ट देखने के लिए हर बार स्टेडियम में उपलब्ध सीटों से ज्यादा टिकटों की मांग होती थी। मेट्रो स्टेशन पर पहुंच कर भी जोशुआ बेल ने अपनी सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली धुनें ही बजाईं थी, पूरे मनोयोग से बजाई थीं, फिर भी लोगों ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। सिर्फ एक छोटा बच्चा ठिठका तो उसकी मां ने उसे आगे घसीट लिया। कहानी खत्म।
अपने जीवन में भी हम हमेशा ऐसा ही करते हैं, प्रकृति द्वारा दिये गये मुफ्त के वरदानों की उपेक्षा करते हैं और पैसे खर्च करके सुख-सुविधाएं ढूंढते हैं। जाने क्यों हम भूल जाते हैं कि दवा सिर्फ दवा की बोतलों और गोलियों में नहीं होती। व्यायाम दवा है, सुबह की सैर दवा है, उपवास दवा है, गहरी नींद दवा है, परिवार के साथ भोजन करना दवा है, हंसी दवा है, एक दोस्त का साथ मिल जाना दवा है, किसी अपने के साथ मिल बैठना दवा है, सकारात्मकता ही दवा है, कुछ मामलों में मौन और एकांत दवा है, अपनों का प्यार दवा है और हमारा परिवार या एक अच्छा दोस्त दवा की पूरी दुकान है।
मुफ्त में उपलब्ध इन वरदानों की उपेक्षा करके हमने डाक्टरों को फीस देना शुरू कर दिया, महंगी दवाइयां खरीदनी शुरू कर दीं क्योंकि वो हमें सुविधाजनक लगता है। इस तरह हमने अपने मासिक बजट में एक अनावश्यक खर्च जोड़ लिया।
दिखावे में बिगाड़ रहे हम अपना बजट
डॉक्टरों और दवाइयों पर होने वाले खर्च (Expenses on doctors and medicines) के अलावा भी हमने बहुत से ऐसे खर्च पाल लिये जिनके बिना हमारा काम बराबर चलता है, चल सकता है, लेकिन दिखावे और शान के चक्कर में हम खुद ही अपना बजट बिगाड़ते चले आ रहे हैं। विभिन्न कंपनियों की मार्केटिंग गतिविधियों और विज्ञापनों का शिकार होकर हम हर दो-तीन साल बाद एक और महंगा स्मार्ट फोन खरीद लेते हैं। घर का बना हुआ स्वादिष्ट खाना छोड़कर हम बाहर खाना खाने या होटल-रेस्टोरेंट से खाना मंगवाने के आदी हो गये हैं। कभी-कभार बदलाव के लिए या स्वाद के लिए बाहर का खाना खाने में कोई बुराई नहीं है पर इसे नियमित रुटीन बना लेना इसलिए सही नहीं है कि बाहर से आया खाना स्वादिष्ट हो तो भी यह आवश्यक नहीं है कि वह स्वास्थ्यकर होगा ही।
क्यों घातक है प्रोसेस्ट फूड पर बढ़ती हमारी निर्भरता?
इसी तरह प्रोसेस्ट फूड पर बढ़ती निर्भरता हमारे पर्स का वज़न तो घटाती ही है, हमारी सेहत का भी कबाड़ा होता है। दिखावे की जीवन शैली के परिणामस्वरूप जन्म दिन और शादी की सालगिरह आदि के मौके उत्सव का कारण होने के बजाए दिखावे का शुगल ज्यादा बन गए हैं। घरेलू सौंदर्य पैक के बजाए ब्यूटी पार्लर का खर्च, सैर, व्यायाम और खानपान में संयम के बजाए स्लिमिंग सेंटर का खर्च हमें ज्यादा भाता है। यहां तक कि हमने तो पेरेंटिंग भी आउटसोर्स कर दी है और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की प्रगति के बारे में हमें असल जानकारी बिलकुल नहीं है और हम ट्यूशनों और कोचिंग सेंटरों के मोहताज हो गये हैं।
धीरे-धीरे हमने अपने जीवन में ऐसे कई फालतू के खर्च जोड़ लिये हैं जो सिर्फ कंपनियों की मार्केटिंग गतिविधियों या विज्ञापनों का नतीजा हैं। घर बन रहा हो तो अंदर का सीमेंट अलग, बाहर का अलग, अंदर का पेंट अलग और बाहर का अलग। हाथ से कपड़े धोने का पाउडर अलग, मशीन का अलग, हाथ धोने का साबुन अलग, लिक्विड सोप अलग, नहाने का अलग, बालों का और भी अलग। बॉडी लोशन, फेस वॉश आदि न जाने कितने झंझट। दूध पीना हो तो हार्लिक्स डालिये, मुन्ने का अलग, मुन्ने की मम्मी का अलग। इस "अलग-अलग" के चक्कर में उलझ कर हम दिन भर न जाने कितना धन गंवा देते हैं।
कुछ खर्च ऐसे हैं जिनसे हम बच नहीं सकते। ज़मीनें और मकान महंगे होते जा रहे हैं, राशन महंगा होता जा रहा है, शिक्षा महंगी होती जा रही है, पेट्रोल-डीज़ल महंगा होने के कारण यातायात और परिवहन महंगे होते जा रहे हैं। कोई बीमारी आ ही जाए तो इलाज महंगा होता जा रहा है। ये ऐसे खर्च हैं जो हमें करने ही होंगे, इनमें कंजूसी संभव नहीं है अत: हमें अपने बजट में इनका इंतज़ाम तो रखना ही होगा लेकिन बाकी के बहुत से खर्च ऐसे हैं जो या तो हमारे अज्ञान के कारण होते हैं या अहंकार के कारण।
आठ वर्ष पूर्व जब मैंने अपनी कंपनी "वाओ हैपीनेस" की स्थापना की थी तो उद्देश्य यह था कि हम लोगों को जीवन में सफल होने और सफलता के साथ-साथ सच्ची खुशियां हासिल करने के टिप्स और टूल्स की जानकारी दें ताकि हमारे देशवासियों का जीवन खुशहाल हो सके, नये रोज़गार पैदा हों और देश की अर्थव्यवस्था और भी मज़बूत हो सके।
इन आठ सालों में हमने बहुत से लोगों की ज़िंदगियां बदलीं, लेकिन जैसे-जैसे काम आगे बढ़ा मुझे यह महसूस होने लगा कि सेहत पर फोकस किये बिना खुशियां अधूरी रह सकती हैं।
हाल ही में हमने विभिन्न बीमारियों के सात्विक इलाज पर फोकस करना शुरू किया तो हमें कब्ज़, हाई ब्लड प्रेशर, माइग्रेन जैसी कई बीमारियों के इलाज में सफलता मिली। हमारी टीम अभी आंखों का चश्मा हटाने की दिशा में काम कर रही है। चूंकि यह किसी के जीवन का प्रश्न है, अत: हम इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि हमारा हर काम पूरी तरह से जांचा-परखा हुआ हो।
बड़ी बात यह है कि बहुत से इलाज घर बैठे करना संभव है, बिना दवाइयों के करना संभव है, और बीमारियों को जड़ से दूर करना संभव है। अनाप-शनाप जीवन शैली के कारण खर्च बढ़ते चले जाने से हमारा आने वाला कल कठिन न होता चला जाए और हम खुशी और खुशहाली से वंचित न हों इसके लिए करना सिर्फ यह है कि हम प्रकृति के उपहारों का लाभ उठायें, जीवन को सात्विक बनाएं और खुशहाल जीवन की गारंटी कर लें।
पी. के. खुराना
लेखक एक हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।
Notes : Who is Joshua Bell
Joshua David Bell is an American violinist and conductor. He plays the Gibson Stradivarius.