Hastakshep.com-आपकी नज़र-गणतंत्र दिवस-gnntntr-divs-गणतंत्र-gnntntr

आज किस दशा में है भारतीय गणतंत्र?

भारतीय गणतंत्र अपने तिहत्तर साल पूरे करने के बाद आज वास्तव में किस दशा में है, इसकी तस्वीर पूरी करने के लिए, बस आपातकाल की याद दिलाया जाना ही बाकी रहता था। और उसकी भी याद चौहत्तरवें गणतंत्र दिवस की ऐन पूर्व-संध्या में बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री को भारत के लोगों तक पहुंचने से रोकने के लिए, मोदी सरकार द्वारा उठाए गए अन्यायी कदमों ने पूरी कर दी है।

2002 के आरंभ में, गोधरा ट्रेन आगजनी के बाद, जिसमें 59 लोगों की एक बॉगी में जलकर मौत हो गयी थी, नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व में गुजरात के बड़े हिस्से में, मुस्लिम अल्पसंख्यकों का जिस तरह का सुनियोजित तथा शासन-समर्थित नरसंहार हुआ था, उस पर बीबीसी  द्वारा बनायी गयी, दो-खंड की डॉक्यूमेंट्री, ‘‘इंडिया: दि मोदी क्वेश्चन’’ (BBC documentary, "India: The Modi Question") के अब तक प्रसारित पहले ही खंड को, भारतवासियों तक पहुंचने से रोकने के लिए मोदी सरकार ने, एक लोकसभा सदस्य का चर्चित जुम्ला उधार लें तो, ‘‘युद्ध स्तर पर कार्रवाई’’ की है।

मोदी सरकार ने, सूचना-प्रौद्योगिकी कानूनों का सरासर दुरुपयोग करते हुए, यू-ट्यूब के उक्त डॉक्यूमेंट्री अपने प्लेटफार्म पर दिखाने पर प्रतिबंध लगा दिया। उसे यह पाबंदी भी पर्याप्त नहीं लगी तो, भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने उक्त डॉक्यूमेंट्री की विश्वसनीयता पर हमला बोलते हुए, भारत में प्रदर्शन के लिए पहले ही प्रतिबंधित इस डॉक्यूमेंट्री को झूठा, विद्वेषपूर्ण आदि-आदि करार देने से लेकर, भारत-विरोधी तथा बीबीसी के औपनिवेशिक सोच का नतीजा तक करार दे दिया। लेकिन, जब मोदी राज को इससे भी तसल्ली नहीं हुई तो, उसने दूसरे-दूसरे स्रोतों से, ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि प्लेटफार्मों पर उक्त डॉक्यूमेंट्री के लिंक साझा करने वाली पोस्टों को, सोशल मीडिया से हटवाने के लिए बाकायदा पूर्णकालिक युद्ध छेड़ दिया। इसने इमर्जेंसी का पर्याय

माने जाने वाले एक और शब्द, प्रैस-मीडिया की ‘‘सेंसरशिप’’ को, एक बार फिर चलन में ला दिया है। लेकिन, कल्पना के भरोसे कुछ भी बाकी नहीं रहने की दीदा-दिलेरी में विश्वास करने वाली मोदी सरकार, सीधे ‘‘इमर्जेंसी’’ शब्द का प्रयोग करने से भी नहीं चूकी। उसने सूचना-प्रौद्योगिकी कानून के अंतर्गत 2021 के नियमों से प्राप्त ‘‘इमर्जेंसी’’ शक्तियों का ही इस डॉक्यूमेंट्री के खिलाफ अपने युद्ध में इस्तेमाल किया है।

बेशक, किसी भी सरकार को ऐसी किसी डॉक्यूमेंट्री में दिखाए गए तथ्यों से लेकर, उन तथ्यों के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों तक, सभी पर असहमति व विरोध जताने का, उन पर सवाल उठाने का, उनका खंडन करने का और अपने हिसाब से सही तथ्य प्रस्तुत करने का अधिकार है। लेकिन, वहीं तक जहां तक यह तथ्य का तथ्य से, तर्क का तर्क से, जवाब दिए जाने का मामला हो। किसी प्रस्तुति या दावे, के जवाब में वैकल्पिक प्रस्तुति या दावा पेश करना तो प्राकृतिक अधिकार की श्रेणी में आता है। लेकिन, किसी डॉक्यूमेंट्री या किसी भी अन्य प्रस्तुति को, गलत या झूठा मानने के आधार पर, उसे कुचलने की, उसे कानूनी या गैर-कानूनी तरीकों से लोगों तक पहुंचने से ही रोकने की कोशिश करना, उस पर पाबंदी लगाना; जनतंत्रविरोधी है, तानाशाही का ही लक्षण है।

गणतंत्र दिवस की 54वीं सालगिरह : तानाशाही के और बढ़ाए जाने का मोदीराज का एलान

आखिरकार, इस तरह जनता के जानने के अधिकार और उसके जानकारीपूर्ण विवेक से निर्णय लेने के अधिकार को ही तो छीना जाता है। गणतंत्र की 54वीं सालगिरह पर, मोदी राज ने इस तरह एक प्रकार से भारत में जनतंत्र की जगह, तानाशाही के और बढ़ाए जाने का ही एलान किया है। और यह तानाशाही, भारतीय संविधान के जरिए स्थापित जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए, इंदिरा गांधी की 1975-77 के दौर की तानाशाही से इस अर्थ में कहीं ज्यादा खतरनाक है कि उसे फिर भी एक ‘‘इमर्जेंसी’’ के कदम के तौर पर देखा तथा दिखाया जा रहा था, जबकि आज मोदी राज में जनतंत्र के इस तरह सिकोड़े जाने को, सामान्य या न्यू नॉर्मल की तरह दिखाया जा रहा है; यानी मोदी राज में तो यही चलेगा!

इस प्रसंग में चलते-चलाते एक बात और। बेशक, यह डॉक्यूमेंट्री भी 2002 के गुजरात के नरसंहार में गुजरात के तत्कालीन मोदी राज की संलिप्तता को निर्णायक तरीके से साबित नहीं कर सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय का पिछले साल का फैसला भी, कुल-मिलाकर इसी का एलान करता है। इसके बावजूद, यह डॉक्यूमेंट्री दो महत्वपूर्ण काम करती है। पहला, यह कि वह सत्ता के सामने आवाज उठाने की हिम्मत के साथ, जिसे कम से कम मोदी राज के पिछले साढ़े आठ साल में तो भारतीय मुख्यधारा के मीडिया में से विलुप्त ही कर दिया गया है (जिसका सूचक प्रैस की स्वतंत्रता के विश्व सूचकांक पर भारत का तेजी से रसातल में जा लगना है) एक बार फिर इस नरसंहार के सिलसिले में उन सवालों को उठाती है, जिन्हें बेशक पिछले बीस सालों में इससे पहले भी अलग-अलग तरीकों से उठाया गया है--यह हिंसा इतनी इकतरफा, इतनी संगठित कैसे थी? हिंसा करने वालों को इतनी खुली छूट कैसे थी? लगातार कई दिनों तक चली इस हिंसा में, शाासन-प्रशासन कहां थे? इन सवालों के जवाब की तलाश एक ही ओर इशारा करती है--इस मुस्लिमविरोधी हिंसा को तत्कालीन शासन का सक्रिय समर्थन हासिल था।

दूसरे, यह रिपोर्ट इस सचाई को सामने लाती है कि इस हिंसा में गुजराती मूल के तीन ब्रिटिश नागरिकों के मारे जाने के बाद, ब्रिटिश सरकार ने और योरपीय यूनियन ने भी, अपने राजनयिकों के जरिए इस नरसंहार की जांचें करायी थीं। और इन जांचों का दो-टूक नतीजा था कि यह कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं, गुजरात के बड़े हिस्से में, मुस्लिम अल्पसंख्यकों की इथनिक सफाई की कोशिश थी और इसके पीछे सीधे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तत्कालीन गुजरात शासन का हाथ था।

बेशक, ब्रिटिश व योरपीय यूनियन के प्रशासन द्वारा अपनी ही इन जांच रिपोर्टों को अब तक दबाकर रखा जाना, जब तक कि बीबीसी ने उनको सारी दुनिया के सामने लाकर नहीं रख दिया, मानवाधिकारों की चिंता के पश्चिमी जगत के खोखलेपन को भी उजागर करता है। फिर भी, यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता है कि जिस तरह वर्तमान शासन, पश्चिमी ताकतों के मानवाधिकार के मामले में जरा सी चिंता दिखाने पर भी ‘‘औपनिवेशिक मानसिकता’’ की गाली से हमले कर रहे है, वह यही दिखाता है कि भारत, 1950 में स्वीकृत संविधान की मूल भावनाओं से कितनी दूर आ गया है; जहां मानवाधिकार के बर्बर हनन के आरोपों का जवाब यह धमकी है कि, ‘हमारे अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी करने वाले तुम कौन होते हो?’ यह तब है जबकि मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा पर भारत ने न सिर्र्फ हस्ताक्षर किए हैं बल्कि उसे स्वतंत्र भारत के संविधान में एक प्रकार से आधारभूमि ही बनाया गया है। संविधान के जानकारों के अनुसार, हमारे संविधान के तीसरे और चौथे खंडों में, मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा का सीधे अक्स ही दिखाई देता है।

बेशक, बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री के बहाने से यह प्रसंग मूलभूत मानवाधिकार के रूप में सभी नागरिकों की कानून व शासन की नजरों में बराबरी को और इसलिए, संविधान के धर्मनिरपेक्षता के आधार स्तंभ को और एक लंबी आजादी की लड़ाई से निकले संविधान में गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा उससे संबद्ध अन्य स्वतंत्रताओं को, मोदी निजाम द्वारा बड़ी हिकारत से नष्ट किए जाने को दिखाता है। लेकिन, यह मौजूदा शासन द्वारा भारतीय गणतंत्र के लिए पैदा कर दिए गए खतरे का, एक हिस्सा भर है। इस खतरे के पीछे काम कर रही सांप्रदायिक तानाशाही के विस्तार की भूख का एक और मोर्चा, मौजूदा शासन के प्रतिनिधियों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय पर पिछले कुछ समय से लगातार किए जा रहे हमलों का है। इन्हीं हमलों की ताजातरीन कड़ी में, कानून मंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय पर उच्च ‘न्यायिक नियुक्तियों के अपहरण’ का आरोप जड़ दिया है।

याद रहे कि मसला सिर्फ यह नहीं है कि सारी सत्ता एक ही जगह केंद्रित करने की मुहिम में जुटी मौजूदा सरकार को, हाई कोर्ट तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान कॉलीजियम व्यवस्था हजम नहीं हो रही है, जिसमें नियुक्तियों पर सामान्यत: उसका नियंत्रण नहीं है। हालांकि एक अर्थ में यह व्यवस्था, उच्च न्यायिक नियुक्तियां, न्यायिक सत्ता के परामर्श से ही किए जाने के संवैधानिक निर्देश का ही विस्तार हैं, फिर भी इसके न्यायिक नियुक्तियों के लिए एक पर्याप्त या सबसे उपयुक्त व्यवस्था होने में बेशक बहस हो सकती है। लेकिन, इस व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतंत्रता की अधिकतम गारंटी है, जिसके साथ समझौता नहीं किया जा सकता है, जबकि ठीक इसीलिए तो सारी संवैधानिक संस्थाओं को स्वतंत्र से शासन का कृपाकांक्षी बनाने में लगी मोदी सरकार की आंखों में, कॉलीजियम व्यवस्था बुरी तरह खटक रही है। जाहिर है कि मौजूदा शासन अपने ही प्रति ‘‘कमिटेड’’ न्यायपालिका सुनिश्चित करना चाहता है।

फिर भी, यह सिर्फ तात्कालिक रूप से न्यायपालिका को अपने वफादारों से भरने तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करने तक ही सीमित रहने वाला मामला नहीं है। नव-निर्वाचित उपराष्ट्रपति के सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ छेड़े गए अभियान में, जिस तरह संविधान में संशोधन के संसद के अधिकार की सर्वोच्चता तथा संपूर्णता का दावा किया गया है और ऐसे संविधान संशोधनों की संवैधानिक वैधता की परीक्षा करने के, सर्वोच्च संवैधानिक अदालत के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार को ही खारिज किया जा रहा है, उसके संकेत और भी खतरनाक हैं।

अगर, बुनियादी ढांचे के रूप में संविधान का कोई न्यूनतम सुरक्षित ढांचा ही नहीं है, जिसे संसदीय बहुमत भी नहीं बदल सकता है, तो संसदीय बहुमत के बल पर भारत को, एक धर्माधारित तानाशाही में बदलने से क्या रोकेगा?

यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के पितृ संगठन, आरएसएस के आधारभूत या कोर मुद्दों में से, एक प्रमुख मुद्दा धर्मनिरपेक्ष राज्य के प्रावधान समेत, पूरे संविधान की ही ‘‘समीक्षा’’ तथा बदलाव का रहा है। वाजपेयी की सरकार में इस दिशा में हिचकिचाहट भरी कोशिशें भी की गयी थीं, लेकिन गठबंधन की मजबूरियों के चलते, उस कसरत में से कुछ खास निकला नहीं था। पर अब, जबकि भाजपा दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत भी जुगाडऩे में समर्थ है, संविधान की बुनियादों को ही खोदने के आरएसएस के मंसूबों में बाधक, संविधान के बुनियादी ढांचे की रक्षा करने के कर्तव्य की नजर से, संसदीय बहुमत के निर्णयों की समीक्षा करने के अधिकार से संपन्न, संवैधानिक अदालत ही तो है।    

भारतीय जनगण की रचना है भारतीय गणतंत्र

the indian republic is the creation of the indian people
the indian republic is the creation of the indian people

बेशक, गणतंत्र, अंतत: गण का शासन है। यह गणतंत्र भारतीय जनगण की ही रचना है और अपने शासन की हिफाजत भी उसे ही करनी होगी। हां! मोदी राज के साढ़े आठ साल ने, हमारे संविधान निर्माता डॉ अम्बेडकर की एक भविष्यवाणी जरूर सच साबित कर दी है कि अच्छे से अच्छा संविधान भी अगर खराब लोगों के हाथों में पड़ जाएगा, तो वे उसे खराब कर देंगे। भारतीय गणतंत्र अपने चौहत्तरवें साल में अपने अब तक के सबसे गंभीर खतरे का सामना कर रहा है।

राजेंद्र शर्मा

Loading...