गलवान घाटी -2
हिंद-प्रशांत में चीन अमेरिकी प्रतिद्वंद्विता व भारत
भारत-चीन के बीच जारी तनाव स्थलीय सीमा तक ही नहीं, हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में भी फैला हुआ है। मुख्य प्रतिद्वंद्वता अमेरिका व चीन के बीच है। अमेरिका हिंद-प्रशांत में अपने उखड़ते पांव जमाने के लिए भारत का इस्तेमाल कर रहा है। अमेरिका के जूनियर पार्टनर के रूप में क्षेत्रीय प्रभुत्ववादी नीति भारत के शासक वर्ग के हित में है। भारत की अर्थ व्यवस्था वैश्वीकरण की अंधगली में फंस चुकी है, पनप रहे जन आक्रोश को कुचलने के लिए हिंदुत्ववादी फासीवाद की नीति पर बढ़ा जा रहा है, अंध राष्ट्रवाद इसमें सहायक है। अमेरिका तथा चीन का मुकाबला भारत की मेहनतकश और जनवाद पसंदजनता की एकजुटता से ही संभव है। क्रांति ही एकमात्र विकल्प है।
भारत-चीन के बीच जारी तनाव (Tensions between India and China continue) स्थलीय सीमा तक सीमित नहीं है। इसका व्यापक फलक है। हिंद महासागर और हिंद-प्रशांत में जारी वैश्विक शक्तियों की प्रति़द्वंद्विता भी बड़ी वज़ह है। गलवान घाटी (लद्दाख सीमा) में 15 जून, 2020 की घटना के बाद, अंडमान में अमेरिकी युद्धपोत निमित्ज1 का भारतीय नौसेना के साथ युद्धाभ्यास इसका एक उदाहरण है। गलवान घाटी (लद्दाख सीमा) में 15 जून, 2020 की घटना के बाद, अंडमान में अमेरिकी युद्धपोत निमित्ज1 के साथ भारतीय सेना का संयुक्त युद्धाभ्यास है। इसके एक माह पूर्व जून में भारत और जापान की नौसेनाओं ने संयुक्त युद्धाभ्यास किया था।
अमेरिका और भारत की नौसेना के प्रतिवर्ष होने वाला "मालाबार संयुक्त युद्धाभ्यास" ("Malabar Combined Maneuvers" held annually by US and Indian Navy)2 एक तरह से अमेरिका के नेतृत्व में सदस्य देशों के नौसेनाओं के प्रशिक्षण और संयुक्त सैन्य संगठन बनाने
विगत दशक में वैश्विक राजनीतिक समीकरण तेजी के साथ बदल रहे हैं। चीन- रूस- पाकिस्तान और ईरान नज़दीक आ रहे हैं। इसका असर हिंद महासागर पर भी नज़र आ रहा है। दिसंबर, 2019 के अंत में रूस-चीन और भारत-चीन के बीच जारी तनाव स्थलीय सीमा तक ही नहीं, हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में भी फैला हुआ है। मुख्य प्रतिद्वंद्विता अमेरिका और चीन के बीच है। अमेरिका हिंद-प्रशांत में अपने उखड़ते पांव जमाने के लिए भारत का इस्तेमाल कर रहा है।
अमेरिका के जूनियर पार्टनर के रूप में क्षेत्रीय प्रभुत्ववादी नीति भारत के शासक वर्ग के हित में है।
भारत की अर्थ व्यवस्था वैश्वीकरण की अंधगली में फंस चुकी है, पनप रहे जन आक्रोश को कुचलने के लिए हिंदुत्ववादी फासीवाद की नीति (Hindutva fascist policy) पर बढ़ा जा रहा है, अंध राष्ट्रवाद (Blind nationalism) इसमें सहायक है। अमेरिका और चीन का मुकाबला भारत की मेहनतकश और जनवाद पसंद जनता की एकजुटता से ही संभव है। क्रांति ही एकमात्र विकल्प है। और ईरान की नौसेनाओं ने ईरान के चाबहार बंदरगाह से हिंद महासागर के उत्तर ओमान की खाड़ी तक 17 हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में चार दिवसीय युद्धाभ्यास किया। इस क्षेत्र से हर रोज़ 18 मिलयन बैरल तेल से लदे जहाज गुज़रते हैं। इससे पहले दक्षिण अफ्रीका में, चीन-रूस-दक्षिण अफ्रीका संयुक्त समुद्री युद्धाभ्यास (Moris) कर चुके हैं।
पूर्वी रूस और साइबेरिया में चीनी सेना साजो-सामान सहित युद्धाभ्यास में शामिल हुई थी। इसे 1981 के बाद का रूस का सबसे बड़ा सैन्य अभ्यास बताया जा रहा है। रूस और चीन दोनों ने अमेरिका द्वारा दक्षिण कोरिया में तैनात ‘टर्मिनल हाई एल्टीट्यूड एरिया डिफेंस’ थाड (Terminal High Altitude Area Defence) का विरोध किया है। रूस की सेना के जनरल स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल विक्टर पोजनीखिर ने चीन में आयोजित सुरक्षा सम्मेलन में कहा कि अमेरिका थाड के जरिए चीन, रूस सहित दुनिया के किसी भी हिस्से में जब चाहे परमाणु हथियारों से लैस मिसाइलों से हमला की क्षमता विकसित करना चाहता है। अमेरिका और यूरोपीय ताकतों के विरोध और प्रतिबंधों की परवाह न करके यूक्रेन के रूस में पुनर्मिलन, क्रिमिया विवाद में अमेरिका को चुनौती और सीरिया में अमेरिका के लाख प्रयत्नों के बावजूद रूस द्वारा समर्थित राष्ट्रपति बसर-अल असद को अपदस्थ करने में अमेरिका की नाकामयाबी और इन सब में चीन का रूस को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन, वैश्विक पटल पर उभर रहे नए समीकरण को जाहिर करता हैं।
नरेन्द्र मोदी सरकार जिस तेजी से सुरक्षा क्षेत्र में अमेरिका के नजदीक आ रही है, रूस और पाकिस्तान के बीच नज़दीकियां बढ़ रही हैं। अमेरिकी 'स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट' के अनुसार 2008-2012 तक भारत के कुल हथियार आयात का 79 फ़ीसदी रूस से होता था। यह पिछले पांच सालों में घटकर 62 फ़ीसदी रह गया है। वहीं अमरीका और पाकिस्तान के बीच हथियारों का सौदा एक अरब डॉलर से फिसलकर पिछले साल 2.1 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया है। पाकिस्तान अमरीका की जगह रूस और चीन से हथियार खरीद रहा है।
वैश्वीकरण के साथ भारतीय विदेश नीति (Indian foreign policy) कथित तटस्थता से हटकर अमेरिका की तरफ झुकती चली गई, इसकी प्रतिच्छाया विदेश नीति और प्रतिरक्षा नीति पर भी देखी जा सकती है। भारत की सामुद्रिक नीति में बदलाव की प्रक्रिया को मनमोहन सिंह के काल में भारतीय नेवी द्वारा 2007 में घोषित "समुद्र के उपयोग की स्वतंत्रता ; भारत की सामुद्रिक रणनीति” (Freedom to Use the Seas: India’s Maritime Military Strategy 2007) इसी क्रम में है। यह हिंद महासागर को सैन्य प्रति़द्वंद्विता से मुक्त "शांत क्षेत्र" बनाने की परंपरागत नीति से अलग नीति थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने समुद्र के "उपयोग की स्वतंत्रता" को उसके अगले मुकाम "समुद्र सुरक्षा" से जोड़ कर इसे अग्र सक्रिय (प्रोएक्टिव) रणनीति में बदल दिया।
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत के 66वें गणतंत्र दिवस (26 जनवरी, 2015) पर मुख्य अतिथि के रूप में आए थे। उस समय भारत और अमेरिका ने "एशिया प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र के लिए संयुक्त रणनीतिक नज़रिया" (Joint Strategic Vision for the Asia Pacific and Indian Ocean Region) जारी किया गया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 15 मार्च, 2015 को घोषित "सागर" (Security and Growth for All in the Region-SAGAR) और भारत सरकार की नयी सामुद्रिक नीति ( Ensuring Secure Seas: Indian Maritime Security Strategy ) अमेरिका के साथ मिलकर तैयार उक्त हिंद प्रशांत की संयुक्त रणनीतिक नजरिए का अंग है। अब "सामुद्रिक सुरक्षा" का यह ठेका हिंद महासागर तक ही सीमित नहीं है।
भारत की भूमिका को हिंद-प्रशांत, दक्षिण अफ्रीका सागर, अदन की खाड़ी समेत पूरे क्षेत्र को समेटते हुए दक्षिण प्रशांत में चीन सागर तक विस्तृत कर दिया गया है। पूरे क्षेत्र में भारतीय नौसेना की भूमिका सुरक्षा प्रदाता (पुलिसिंग), अमेरिका समेत विभिन्न शक्तियों के साथ रणनीतिक समन्वय इस नयी सामुद्रिक रणनीति के अंग हैं। जनवरी, 2020 में भारत सरकार द्वारा आयोजित "रायसीना संवाद" (Raisina Dialogue) के दौरान अमेरिका के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मैट पोटिंगर ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका से लेकर अफ्रीकी महाद्वीप के पूर्वी तट को इसमें सम्मिलित बताते हुए कहा "अमरीका के लिए हिंद -प्रशांत क्षेत्र का विस्तार हॉलीवुड से बॉलीवुड की जगह अब कैलिफोर्निया से किलिमंजारोतक है।" 3
भारतीय विदेश मंत्रालय में हिंद-प्रशांत प्रभाग के नाम से एक अलग विभाग बना लिया है। अमेरिका ने अपनी प्रशांत कमान का नाम बदलकर हिंद-प्रशांत कमान कर दिया है। भारत और अमेरिका के बीच सैन्य समझौतों में जंगी जहाजों के लिए ईंधन भरने, रसद आदि सुविधाओं से संबंधित संधि लेमोअ ( Logistics Exchange Memorandum of Agreement-LEMOA), भारत द्वारा अमेरिका को बेचे जा रहे सैन्य प्लेटफार्मों और वहां उच्चस्तरीय सुरक्षा, संचार उपकरणों के उपयोग की सुविधाएं उपलब्ध कराए जाने से संबंधित संधि कॉमकासा (Defense Framework Agreement, and the Communications, Compatibility and Security Agreement (COMCASA) सम्मिलित हैं। आस्ट्रेलिया के साथ भी भारत ने इसी प्रकार का समझौता ‘म्यूचुअल लॉजिस्टिक्स सपोर्ट एग्रीमेंट' (Mutual Logistics Support Agreement- MLSA) कर लिया है। इसके अनुसार दोनाें देश एक दूसरे के यहां सैन्य ठिकानों के उपयोग के लिए राह खुल गई है। पिछले 6 वर्षों में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच द्विपक्षीय सैन्य सहयोग में चार गुना वृद्धि हुई है।
भारत की मुख्य भूमि की समुद्र तटीय सीमा 61,00 किलोमीटर है। हिंद महासागर में शंकु आकार में तीन ओर समुद्र से घिरे भारतीय प्रायद्वीप की मुख्य भूमि के अलावा इसके अंतर्गत अरब सागर में मालदीव के निकट तक विस्तृत लक्षद्वीप समूह और बंगाल की खाड़ी के मुहाने से मलक्का जलडमरूमध्य4 के निकट तक विस्तृत अंडमान सागर में अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की सामुद्रिक सीमाओं को जोड़ने पर भारत की सामुद्रिक सीमा 7516.6 किलोमीटर होती है। भारत की उत्तर सीमा में हिमालय पर ऊंचाई पर होने के कारण चीन बेहतर स्थिति में है, लेकिन हिंद महासागर में भू-राजनीतिक स्थितियां भारत के अनुकूल हैं।
अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भारतीय नौसेना ने अपना तीसरा सैन्य हवाई अड्डा आईएनएस कोहासा पोर्ट ब्लेयर से 300 किलोमीटर दूर बनाया है।5 अंडमान सागर6 दक्षिण पश्चिमी कोने पर संकरा होते हुए मलक्का खाड़ी तक जाता है। मलक्का घाटी मलेशिया के मलय प्रायद्वीप और इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप को अलग करती है। अंडमान निकोबार द्वीप समूह से आचेह (सुमात्रा) 150 किमी दूर है। यहां रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मलक्का जलसंधि7 है। हर साल करीब 1 लाख 20 हजार जहाज हिंद महासागर से गुजरते हैं, जिनमें से 70 हजार मलक्का जलसंधि से जाते हैं। मलक्का संधि की राह से चीन, जापान और कोरिया के लिए हाइड्रोकार्बन मतलब कच्चा तेल जाता है।
मध्यपूर्व और अंगोला से चीन के आयातित तेल में से 80 फीसदी से ज्यादा तेल मलक्का जलसंधि के संकरे रास्ते से गुजरता है। सुमात्रा और मलय प्रायद्वीप के बीच स्थित इस खाड़ी के पूर्वी सिरे पर अमेरिका का खास सहयोगी सिंगापुर है। संघर्ष की स्थिति में मलक्का खाड़ी बेहद अहम चोकपॉइंट है। इसे रोक कर चीन के ऊर्जा स्रोत को तगड़ी चोट पहुंचाई जा सकती है।
ऐसे में चीन को जो दूसरा रास्ता अपनाना होगा उसका खर्च लगभग 220 बिलियन डॉलर बढ़ जाएगा। यह दूसरा रास्ता सुमात्रा और जावा के बीच के सुंडा जलडमरू-मध्य या उससे भी पूरब लोंबार्क जलडमरू-मध्य से जाता है।
चीन की समुद्री रेशम मार्ग की योजना और थाइलैंड में पनामा व स्वेज की तर्ज पर नहर की योजना जवाबी रणनीति समझी जा रही है। चीन म्यांमार के जरिए और थाइलैंड में नहर का निर्माण करके मलक्का संधि की राह के विकल्प के प्रयास में है।
थाईलैंड : मलक्का जलसंधि का विकल्प
स्वेज नहर के जरिए जिस तरह मूमध्य सागर और हिंद महासागर के बीच मार्ग निकाला गया, पनामा नहर के जरिए अटलांटिक महासागर और प्रशांत महासागर को जोड़ा गया, उसी तरह हिंद महासागर और प्रशांत महासागर को जोड़ने के लिए थाईलैंड के बीच से एक नहर बनाने की चाहत लंबे समय से रही है। इस दिशा में थाइलैंड सरकार योजना 'क्रा नहर योजना' (Kra Canal या Kra Isthmus Canal) पर काम कर रही है। यह नहर लगभग 102 किलोमीटर लंबी, 400 मीटर चौड़ी और 25 मीटर गहरी होगी। थाईलैंड के एक ओर दक्षिण चीन सागर है, दूसरी ओर हिंद महासागर। थाईलैंड के बीचों-बीच यह नहर दक्षिणी चीन सागर को सीधा हिंद महासागर से जोड़ेगी। इससे सिंगापुर के रास्ते हिंद महासागर को जाने वाले जहाज सीधा इस नहर से होकर गुजरेंगे। इससे बड़ी मात्रा में राजस्व तो हासिल होगा ही, चीन से पश्चिम एशिया के लिए 1,200 किलोमीटर की दूरी भी कम हो जाएगी। जहाजों के आने-जाने में भी लगभग 72 घंटे की बचत होगी। यह जिस तरह से व्यावसायिक मकसद के लिए लाभकारी है, युद्ध की स्थिति में भी इसका महत्व है। यही वजह है कि भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया इस नहर के बनाए जाने से सशंकित हैं, जबकि चीन इसमें अत्यधिक रुचि ले रहा है।
चीन उत्तरी हिंद महासागर में बंगाल की खाड़ी में बांग्लादेश के माध्यम से प्रवेश की दिशा में ब़ढ़ रहा है। अंडमान सागर बंगाल की खाड़ी के दक्षिण पूर्व, म्यांमार के दक्षिण, थाईलैंड के पश्चिम और अंडमान द्वीप समूह के उत्तरी हिन्द महासागर में है। बंगाल की खाड़ी में सबसे व्यस्त बंदरगाह बांग्लादेश का चटगांव बंदरगाह है। इस बंदरगाह के उपयोग के लिए बाग्लादेश ने भारत और चीन दोनों के साथ समान आधार पर समझौता (Standard Operating Procedure – SOP) किया है। चीन ने चटगांव बंदरगाह पर अपने लिए एक कंटनेर-पोर्ट तैयार किया है। इसका असर यह होगा कि अरुणाचल से लेकर आसाम समेत भारत के सात हिमालयी राज्यों तथा असम, नेपाल, भूटान के लिए एक मात्र सामुद्रिक बंदरगाह में चीन की उपस्थित के कारण इन राज्यों के बाज़ार और संसाधनों तक चीन की पहुंच में आसानी होगी।
बांग्लादेश में चीन का प्रभाव बढ़ रहा है। इस समय वह बांग्लादेश के सबसे बड़े व्यावसायिक साझीदारों में से एक है, दोनों के बीच 12 अरब डॉलर वार्षिक व्यापार हो रहा है। गलवान घाटी में भारत-चीन सीमा पर हालिया टकराव के अगले दिन 16जून, 2020 को चीन ने बांग्लादेश के मत्स्य संसाधन और चमड़ा समेत 5161 उत्पादों पर 97 प्रतिशत तक टैरिफ में छूट का ऐलान किया। बांग्लादेश के साथ व्यापरिक संबंधों के साथ चीन के सामरिक संबंध भी विकसित हो रहे हैं। बांग्लादेश की सेना चीनी टैंकों से लैस है। इसकी नौसेना में चीन के युद्ध पोत और वायुसेना में चीन के लड़ाकू जेट विमान हैं। चीन ने बांग्लादेश को दो पनडुब्बियां दी हैं वह उसकी नौसेनाओं के लिए बंगाल की खाड़ी में दक्षिणपूर्व समुद्र तट में बेस तैयार कर रहा है। चीन चटगांव के सोनादिया में एक गहरे बंदरगाह के निर्माण के लिए प्रयासरत है। बांग्लादेश के पायरा गहरे समुद्र (payra deep-sea) बंदरगाह के निर्माण के लिए चीन ने 60 करोड़ डॉलर (4300 करोड़ रुपए) का अनुबंध किया है। इसके जरिए वह भारतीय समुद्र तट के काफी करीब पहुंच जाएगा और हिंद महासागर के एक बड़े हिस्से पर नजर रख सकेगा। चीन ने बांग्लादेश के सिलहट हवाई अड्डे को आधुनिकीकरण का ठेका लिया है और वह इसका प्रबंधन करेगा, इसी तरह वह लालमोनिरहाट हवाई अड्डे को पट्टे पर लेने की कोशिश कर रहा है। इन दो हवाई अड्डों से हवाई मार्ग द्वारा असम सहित भारत के सात राज्य जद में आ जाते हैं।
नेपाल-तिब्बत रेल लाइन व आर्थिक गलियारा | Nepal-Tibet Rail Line and Economic Corridor
नेपाल को तिब्बत से जोड़ने के लिए चीन एक रेलवे लाइन भी बिछा रहा है। शी जिनपिंग ने नेपाल यात्रा के दौरान चीन-नेपाल आर्थिक गलियारे की शुरुआत की थी। इसके तहत चीन का इरादा तिब्बत को नेपाल से जोड़ना है। चीन नेपाल गलियारा, चीन-पाकिस्तान और चीन-म्यांमार गलियारों के बीच में पड़ता है। भारत और नेपाल के बीच लिपुलेख और कालापानी क्षेत्रों को लेकर उत्पन्न सीमा विवाद के मध्य चीन ने अपनी सेना की एक बटालियन उत्तराखंड में लिपुलेख नजदीक तैनात कर नेपाल को आश्वस्त किया है कि वह भारत से डरे नहीं।
म्यांमार : क्युक्फ्यू बंदरगाह | Myanmar's Kyaukyu fishing port
म्यांमार में चीन 7.3 बिलियन डालर के साथ क्युक्फ्यू (Kyaukphyu) में एक बंदरगाह बना रहा है। यह बंदरगाह बंगाल की खाड़ी में होगा। यहां चीन का मकसद म्यांमार के जरिए हिंद महासागर तक पहुंचना है। इसके साथ 2.7 बिलियन डालर लागत से क्युक्फ्यू वेशेष आर्थिक क्षेत्र, आर्थिक गलियारा, चीन के युन्नान प्रांत में कुनमिंग तक चलने वाली 1.5 बिलियन डॉलर की तेल पाइपलाइन और इसके समानांतर प्राकृतिक गैस पाइपलाइन का टर्मिनस विकसित किया जा रहा है।
म्यांमार दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के मध्य, चारों ओर से ज़मीन से घिरे चीन के युन्नान प्रांत और हिंद महासागर के बीच में है। चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारा लगभग 1700 किलोमीटर लंबा है।
यह चीन के युन्नान प्रांत की राजधानी कुनमिंग से म्यांमार के दो मुख्य आर्थिक केंद्रों को जोड़ता है। युन्नात प्रांत में म्यामांर की सीमा के साथ 2010 से लेकर अब तक कई आर्थिक क्षेत्र बना कर म्यांमार को चीन को जोड़ने की कोशिश जारी है। यहां से कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के लिए पाइपलाइन भी बनाई गई है। 21 वीं सदी की सिल्क रोड "बेल्ट रोड इनिशिएटिव" के तहत चीन का इरादा कम से कम 70 देशों के माध्यम से सड़कों, रेल की पटरियों और समुद्री जहाज़ों के रास्तों का जाल सा बिछाकर चीन को मध्य एशिया, मध्य पूर्व और रूस होते हुए यूरोप से जोड़ने का है। पहले मध्य म्यांमार के मंडालय से इस गलियारे को हाई स्पीड ट्रेन से और पूर्व में यंगॉन (रंगून), पश्चिम में म्यांमार के क्युक्फ्यू स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन से जोड़ा जाएगा।
चीन विकास बैंक और म्यांमार विदेशी निवेश बैंक में समझौते के अनुसार क्युक्फ्यू-कुनामिंग तक 1,060 किमी पाइप लाइन बनाने के लिए 2.4 अरब डॉलर कर्ज की व्यवस्था की गई है। यह पाइपलाइन प्रति दिन 400,000 बैरल तेल का परिवहन करने में सक्षम है। अब क्युक्फ्यू बंदरगाह टर्मिनल के जरिए मलक्का जलडमरूमध्य के रास्ते से को छोड़ मध्य पूर्व से तेल और गैस से लदे जहाज सीधे जा सकेंगे। चीन-म्यांमार तेल पाइप लाइन परियोजना का संचालन अप्रैल 2017में शुरू हुआ हो चुकी है। इसकी कुल लंबाई 1420 किलोमीटर है। क्युक्फ्यू-कुनामिंग रेलवे लाइन भी बिछायी जा रही है। यह रेलवे लाइन 1,215 किलोमीटर लंबी होगी।
कम्बोडिया में चीन का फौजी अड्डा | China's military base in Cambodia
अंडमान निकोबार द्वीप समूह से 1000 किलोमीटर की दूरी पर कंबोडिया के कोह कांग में दारा सकोर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास अरबों डॉलर खर्च करके चीन एक विशाल नौसैनिक अड्डा बना रहा है। कंबोडिया ने 99 साल की पट्टे पर यह जमीन चीनी कंपनी को दे दी है। चीन यहां जंगी नौसैनिक जहाज, लड़ाकू जेट वायुयान और पनडुब्बियां तैनात कर सकेगा। दारा सकोर हवाई अड्डे से चीन की नौसेना और एयरफोर्स दोनों ही आसानी से वियतनाम, मलेशिया और इंडोनेशिया के समुद्री इलाके में घुस सकेंगे।
नतीजतन, मलक्का जलडमरू मध्य से जाने वाले समुद्री मार्ग पर भी चीन की पकड़ मजबूत हो जाएगी। इस सैन्य अड्डे से चीन इस पूरे इलाके में अपनी हवाई क्षमता का प्रदर्शन और दक्षिण पूर्व एशिया की राजनीति को प्रभावित कर सकता है।
हिंद महासागर से हिंद-प्रशांत तक | From the Indian Ocean to the Indo-Pacific
हिंद महासागर और हिंद-प्रशांत बड़ी शक्तियों के बीच प्रभुत्व की प्रतियोगिता के अखाड़े बने हुए हैं। हिंद महासागर पर दूसरे विश्वयुद्ध तक ब्रिटेन का वर्चस्व था। उसे ब्रिटेन की झील कहा जाता था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक राजनीति में समाजवादी शिविर और अमेरिका नीत पूंजीवादी शिविर में टकराव था। उपनिवेशों एवं अर्द्ध औपनिवेशिक देशों का मुक्ति संघर्ष तेज होता गया और बरतानिया साम्राज्य सिकुड़ता गया। साम्राज्यवाद की कमान ब्रिटेन की जगह अमेरिका ने थामी। औपनिवेशिक गुलामी से आज़ादी के संघर्ष के साथ इन देशों और आम जनता की ख्वाहिश रही है कि हिंद महासागर शांत क्षेत्र घोषित हो। यहां जहाजों का मुक्त आवागमन रहे। हिंद महासागर में प्रभुत्ववादी शक्तियों के सैन्य उपस्थिति, नौसेनिक अड्डे और दबाव और व्यूहबंदी नहीं हो। लेकिन, कच्चे माल की लूट और व्यापार पर नियंत्रण के लिए हिंद महासागर पर नियंत्रण साम्राज्यवादियों के लिए यही सब नितांत जरूरी है। मलेशिया के द्वीप डियेगोगार्सिया में ब्रिटिश-अमेरिकी नौसेनिक अड्डा इसका ज्वलंत उदाहरण है।
अमेरिकी साम्राज्यवाद की रणनीतिकार अल्फ्रेड थेयर मेहैन8का एक कथन साम्राज्यवादी नीतिकारों के लिए दिशानिर्देशक है, जिसमें बताया गया है, “हिंद महासागर पर जिसका नियंत्रण है, उसी का एशिया पर प्रभुत्व होगा। यह महासागर 20वीं सदी में सातों समुद्रों में प्रमुख भूमिका अदा करेगा। विश्व के भवितव्य का निर्णय इसके जल तल पर होगा।”
आज हम 21वीं सदी में हैं, अमेरिकी प्रभुत्व को गहरी चुनौती मिल रही है। बहुध्रुवीय विश्व के विकास के साथ प्रभुत्व की प्रतियोगिता के अखाड़े में नए खिलाड़ी उतर चुके है। चीन का उदय, दक्षिण चीन सागर में अंतर्विरोधों का विकास, हिंद महासागर में चीन का बढ़ते कदम, इन सब के बीच हिंद महासागर का विस्तार हिंद-प्रशांत के रूप में किया जा रहा है।
एशिया, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया तीन महाद्वीपों के बीच विस्तृत हिंद महासागर, तीसरा सबसे बड़ा महासागर (प्रशांत महासागर और अटलांटिक महासागर के बाद) है। व्यापारिक दृष्टि से भी इसका बहुत अधिक महत्व है। यहां दुनिया का सबसे व्यस्त समुद्री मार्ग (अंतर्राष्ट्रीय सागर लेन - ISL)) है। स्वेज नहर यूरोप और भूमध्य सागर को हिंद महासागर से जोड़ती है। स्वेज नहर से लाल सागर, फारस की खाड़ी, अरब सागर से होते हुए यह समुद्री मार्ग मलक्का जलसंधि, दक्षिण चीन सागर से होते हुए यूरोप को सुदुर पूर्व से जोड़ता है। चीन सागर प्रशांत महासागर का ही हिस्सा है। यहां से यह उत्तरी व दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप के लिए सबसे कम दूरी का मार्ग है।9 दुनिया की लगभग एक तिहाई आबादी (2.50 अरब जनता) के बीच यह संचार व परिवहन का माध्यम है। इस रास्ते से विश्व का लगभग आधा समुद्री व्यापार होता है, इसमें लगभग 20 फीसदी ऊर्जा संसाधन हैं।
वे देश जो समुद्र तटीय नहीं हैं, वहां होने वाले उत्पादन (कच्चा तेल) को ऑफ शोर उत्पादन कहते हैं। इसका लगभग 40 फीसद हिंद महासागर से प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त समुद्र तटीय देशों में पाए जाने वाले कच्चे तेल का 65 फीसदी और प्राकृतिक गैस का 35फीसदी भंडार हिंद महासागर में है। ऊर्जा शक्ति आज विकास की मुख्य कुंजी है। इसके अभाव में सभी उद्योग, कल-कारखाने और दैनिक गतिविधियां ठप हो जाएंगी।
दक्षिण चीन सागर | South China Sea
प्रशांत महासागर के पश्विम किनारे पर चीन सागर दो भाग में बंटा हुआ है। पूर्वी चीन सागर के एक ओर चीन है तो दूसरी ओर कोरिया और जापान। यहां कोरिया और चीन के बीच पीला सागर है। चीन की सबसे लंबी नदी ह्वांगहो (पीली नदी) इसमें गिरती है। पूर्वी सागर के शेष हिस्से के सामने जापान और फिलपीन्स सागर हैं। विवाद पूर्वी सागर में द्वीपों को लेकर भी है परंतु यहा जापान हावी है। दक्षिण चीन सागर में क्षेत्राधिकार को लेकर मुख्य विवाद हैं। यहां एक तरफ समुद्र के तट पर वियनाम चीन और ताइवान हैं तो दूसरी ओर सामने की तरफ वाले तट पर फिलीपींस, मलेशिया और ब्रुनेई। चीन के अनुसार उसकी समुद्री सीमा अंग्रेजी वर्णमाला के यू आकार में नौ बिंदुओं वाली आभासी रेखा (नाइन-डैश लाइन) है। इसे आधार मानने से दक्षिण चीन सागर के 80 प्रतिशत हिस्सा चीन के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आता है। इसे चीन का विस्तारवाद कहा जा रहा है। तथ्य यह भी है कि नाइन डैश लाइन और चीन सागर पर चीन का दावा नया नहीं है। चीन की यह समुद्री सीमा छिंग वंश और उसके बाद क्वोमितांग की सत्ता के दौर में भी थी। असल में वर्तमान विवाद का केंद्र दक्षिण चीन सागर में स्प्रैटली और पार्सल द्वीप समूह हैं।10
इन दोनों द्वीपों में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार हैं। सिर्फ़ तेल और गैस ही नहीं, दक्षिणी चीन सागर में मछलियों की हज़ारों नस्लें पाई जाती है। दुनिया भर के मछलियों के कारोबार का करीब 55 प्रतिशत हिस्सा या तो दक्षिणी चीन सागर से गुज़रता है, या वहां पाया जाता है। स्कारबोरो शोल द्वीप पर फिलीपींस दावा करता है। वह चीन की आभासी रेखा (नाइन-डैश लाइन) की वैधता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। इसके अतिरिक्त नातुना सागर क्षेत्र इंडोनेशिया के समद्री अधिकार के अंतर्गत है। आरोप है कि चीन यहां भी अनुचित दखलंदाजी कर रहा है।
प्रशांत क्षेत्र या दक्षिण चीन सागर पर भारत का किसी तरह का कोई दावा नहीं बनता है। भारत का क्षेत्राधिकार हिंद महासागर की हद में ही सीमित है। इसके बावजूद, भारत अपनी हिंद-प्रशांत नीति के तहत चीन सागर के विवाद में दिलचस्पी ले रहा है। चीन और अमेरिका के बीच प्रभुत्व की प्रतियोगिता तेज होने के साथ अमेरिका ने भी इस विवाद में दखल दिया है।
वियतनाम मुक्ति युद्ध में पराजय के चार दशक से अधिक समय बीतने के बाद, वियतनाम और अमेरिका के बीच अब न केवल आर्थिक-राजनीतिक बल्कि प्रतिरक्षा संबंध भी विकसित हो रहे हैं। समाजवादी चीन और समाजवादी वियतनाम के बीच संबंध मित्रता से शत्रुता में बदलने की निर्णायक शुरुआत 1979 में उस समय हो गई थी, जब चीन और वियतनाम के बीच सीमा विवाद दोनों के बीच युद्ध में बदला था।11
इस युद्ध ने दुनिया भर के कम्युनिस्टों और उन प्रगतिशील लोगों के मनोबल पर गहरा आघात किया, जो समझते थे कि पूंजीवादी राष्ट्रवाद की जगह समाजवाद, सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद पर आधारित होता है। उनके बीच राष्ट्रीय हितों का टकराव कभी युद्ध में नहीं बदल सकता। आज भी वे लोग जो चीन और वियतनाम दोनों को समाजवादी मानते हैं, दक्षिण चीन में वियतनाम व चीन के बीच शत्रुतापूर्ण संबंधों तथा वियतनाम के कम्बोडिया और लाओस के साथ टकराव पूर्ण संबंधों के सम्मुख अवाक् हैं।
दक्षिण चीन सागर में चीन व उसके पड़ोसी देशों के बीच विवादों में भारत और अमेरिका की खास दिलचस्पी है। इसकी दो वजह हैं- एक, यह दोनों द्वीप कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस से परिपूर्ण हैं। दक्षिण चीन सागर में लगभग 250 द्वीपों में खनिज संपदा का अकूत भंडार होने का अनुमान है। इसमें 11 बिलियन बैरल प्राकृतिक तेल के भंडार, 190 ट्रिलियन क्यूबिक फीट प्राकृतिक गैस के भंडार, जिसके 280 ट्रिलियन क्यूबिक फीट होने की का अंदाजा लगाया जा रहा है। सिर्फ़ तेल और गैस ही नहीं, दक्षिणी चीन सागर में मूंगे का भी विस्तृत भंडार है। मछलियों की हज़ारों नस्लें यहां पाई जाती है। दुनिया भर के मछलियों के कारोबार का करीब 55 प्रतिशत हिस्सा या तो दक्षिणी चीन सागर से गुज़रता है या यहां पाया जाता है। यहां से हर वर्ष 3 ट्रिलियन डॉलर मूल्य का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता है। इसके अतिरिक्त, सामरिक दृष्टि से इस क्षेत्र की खास अहमियत है।
दक्षिण चीन सागर के नजदीक इंडोनेशिया का करिमाता, मलक्का, फारमोसा जलडमरूमध्य, मलय और सुमात्रा प्रायद्वीप आते हैं। दक्षिण चीन सागर में चीन ने समंदर में चट्टानों व टापुओं पर छोटी समुद्री पट्टियां बनाई, उनके इर्द-गिर्द रेत, बजरी, ईंटों और कंक्रीट का इस्तेमाल करके बंदरगाह, हवाई पट्टी और कृत्रिम द्वीप और नौसेना का अड्डा विकसित किया है। उसने यहां कई छोटे द्वीपों पर सैनिक अड्डे बनाए हैं। अमेरिका के सैन्य विशेषज्ञ इसे "समुद्र में चीन की दीवार" कह रहे हैं।
चीन सागर विवाद में अमेरिका और भारत की रणनीति चीन के विरोध और वियतनाम व अन्य देशों के पक्ष में है। भारत की तेल और प्राकृतिक गैस कंपनी ओएनजीसी दक्षिण चीन सागर में तेल और गैस तलाश रही है। उसे वहां अभी तक कोई खास सफलता नहीं मिली है। वियतनाम ने ओएनजीसी को चीन सागर में विवादित स्प्रैटली द्वीप में तेल की खोज व खनन के के लिए आमंत्रित किया है।
चीन नाइन डैश लाइन को आधार मानकर चीन सागर के जिस क्षेत्र पर अपना विशेषाधिकार क्षेत्र मानता है, भारत उसे नौवाहन और वहां के आकाश को मुक्त क्षेत्र मानता है। भारत ने वियतनाम को समुद्री सुरक्षा के लिए चार नौसैनिक गश्ती नौकाएं देने की घोषणा की है। भारत ने वियनाम को ब्रह्मोस मिसाइल देने की भी पेशकश की थी परंतु यह मिसाइल रूस के सहयोग से विकसित की गई है, रूस की आपत्ति के कारण भारत यह मिसाइल वियतनाम को नहीं दे सका, परंतु वियतनाम की सुरक्षा और नेवी के आधुनिकीकरण और सशक्तिकरण के प्रति भारत ने अपनी प्रतिबद्धता जतलाई है।
ग्वादर, चाबहार और चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा | Gwadar, Chabahar and China Pakistan Economic Corridor
पाकिस्तान के दक्षिण-पश्चिमी बलूचिस्तान सूबे में ग्वादर बंदरगाह है। अरब सागर में यह तीन ओर समुद्र है। ईरान तथा फारस खाड़ी के देशों के नजदीक होने के कारण सैन्य और राजनैतिक नजरिए से यह बेहद महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान चीन अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों के लिए सामुद्रिक व्यापार के लिए इस बंदरगाह को विकसित किया जा रहा है।
ग्वादर बंदरगाह का तट काफी गहरा है। यहां ढाई लाख टन तक वजन वाले माल-भरे बड़े-बड़े जहाज आसानी से लंगर गिरा सकेते हैं। यह बंदरगाह पाकिस्तान अफगानिस्तान, चीन और मध्य एशिया सहित अनेक देशों के लिए व्यापारिक केंद्र के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। यह गलियारा पाकिस्तान के नियंत्रण वाले कश्मीर से होकर लद्दाख-अक्साई चिन चाले विवादित क्षेत्र से, जहां भारत दरबूक-श्याके दौलतबेग ओल्डी (DSDBO) रोड बना रहा है, गुजरता है। पाकिस्तान ने ग्वादर बंदरगाह का ठेका सिंगापुर की कंपनी से लेकर 2013 में एक चीनी कंपनी को 40 साल के लिए दे दिया है। चीन का 60 फीसदी कच्चा तेल खाड़ी देशों से आता है। ग्वादर पोर्ट पर चीनी नियंत्रण से यहां से तेल का आवागमन बेहद आसान हो जाएगा। बंदरगाह की रक्षा और पोतों की सुरक्षा चीनी नौसेना करेगी।
चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) योजना ने इस बंदरगाह को और अधिक अहम बना दिया है। भारत ने भी ग्वादर से 170 किलोमीटर दूर ईरान में चाबहार बंदरगाह को विकसित करने का प्रयास किया है। चाबहार से बनने वाले गलियारा से भारत से अफगानिस्तान के लिए सीधा रास्ता मिल जाएगा। अभी भारत से अफगानिस्तान जाने के लिए पाकिस्तान होकर जाना होता है। चाबहार भारत के लिये अफगानिस्तान और मध्य एशिया के द्वार खोल सकता है। यह बंदरगाह एशिया, अफ्रीका और यूरोप को जोड़ने के लिहाज से बेहतर जगह है। यहां जापान भी निवेश के लिए तैयार हो गया है परंतु अमेरिका के दबाव में ईरान से तेल खरीद बंद करने के कारण यह योजना खटाई में पड़ गई है। दूसरी तरफ, ईरान चीन व पाकिस्तान के बीच नजदीकी बढ़ रही है।
पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPIC) ग्वादर बंदरगाह से उत्तरी-पश्चिमी झिनजियांग प्रांत के काश्गर तक बनाया जा रहा है। इसकी लागत 46 बिलियन डॉलर होगी। यह कश्मीर के उस हिस्से से जाएगा जो पाकिस्तान के नियत्रण में है। इस गलियारे के बनने के साथ दक्षिण एशिया का भू-राजनीतिक परिदृश्य को काफी कुछ बदल जाएगा। इसके तहत सड़कों के 3000 किमी विस्तृत नेटवर्क और दूसरी ढांचागत परियोजनाओं की लंबी श्रंखला है। इस योजना को 2030 तक पूरा किए जाने का लक्ष्य है। चीन ऊर्जा आयात करने के लिए वर्तमान में हिंद महासागर के में जिस रास्ते का प्रयोग कर रहा है, इस 12,000 किमी लंबे रास्ते के मुकाबले इस गलियारे के बनने के बाद, छाेटे रास्ते का इस्तेमाल करेगा। इससे उसे प्रति वर्ष लाखों डॉलर की बचत होगी। हिंद महासागर में उसकी पहुंच आसान हो जाएगी। पाकिस्तान में इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित होगा और जल, सौर, उष्मा और पवन संचालित ऊर्जा संयंत्रों के लिए 34 बिलियन डॉलर का फायदा होने की संभावना है। इस प्रकार पाकिस्तान जिस गंभीर ऊर्जा संकट से गुजर रहा है वह कम होगा। इस गलियारे में ईरान, रूस, और सऊदी अरब भी रुचि ले रहे हैं।
व्यावसायिक पक्ष के अलावा इस सौदे का सामरिक पक्ष भी है। चीन पाकिस्तान को दी जा रही आठ पनडुब्बियां, पाकिस्तान की नौसैनिक शक्ति के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हैं। भविष्य में ग्वादर बंदरगाह नौसैनिक अड्डे के तौर पर विकसित हो सकता है।
श्री लंका
श्री लंका के दक्षिणी हिस्से में मौजूद हम्बनटोटा बंदरगाह चीन को पट्टे पर दे दिया गया है। 150 करोड़ डॉलर से बना यह बंदरगाह दुनिया के सबसे व्यस्त बंदरगाहों में से एक है। इस बंदरगाह को चीन की सरकारी संस्था 'चाइना मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स' ने बनाया है। इसमें 85 फीसदी हिस्सेदारी चीन के एक्सिम बैंक की है। इस बंदरगाह पर चीन से आने वाले माल को उतारकर देश के अन्य भागों तक पहुंचाने की योजना है। जापान और अमरीका समेत श्रीलंका के पड़ोसी देशों ने चिंता जताई थी, इस बंदरगाह का सैन्य उद्देश्यों के लिए चीन द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है। 2017 से पहले श्रीलंका और अमेरिका के बीच घनिष्ठ संबंध थे। इस दौरान श्री लंका ने अमेरिका के साथ अधिग्रहण और सैन्य आवश्यकताओं के लिए एक समझौता (Acquisition and Cross-Servicing Agreement – ACSA) किया था।
यह समझौता भोजन, ईंधन, परिवहन, गोला-बारूद और उपकरणों सहित रसद में सहयोग और परस्पर आदान-प्रदान करने की अनुमति देता है। अमेरिकी समर्थक सिरिसेना-विक्रीमेसिंघे प्रशासन ने इसकी अवधि 10 साल के लिए बढ़ा दी थी। इससे अमेरिका को हिंद महासागर क्षेत्र में अपने ऑपरेशन के लिए रसद आपूर्ति, ईंधन भरने और ठहराव की सुविधा मिली थी। लेकिन गोतबाया राजपक्षे (Gotabaya-Rajapaksa) प्रशासन में श्री लंका-अमेरिका संबंधों में ठंडक आ गई। चीन का कर्ज न चुका पाने के कारण श्री लंका ने दिसंबर, 2017 में अपना हंबनटोटा बंदरगाह, 15,000 एकड़ जमीन सहित चीन की 'मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स लिमिटेड' कंपनी को 1.12 अरब डॉलर के बदले 99 साल के लिए पट्टे पर दे दिया है। चीन के लिए यह सैन्य और व्यापारिक दोनों नजरिए से अनुकूल स्थिति है।
भारत ने भी श्री लंका को 96 करोड़ डॉलर का कर्ज दिया है। एवज में श्री लंका ने भारत को हवाई अड्डा विकसित करने के लिए हंबनटोटा बंदरगाह से कुछ सौ मील के फासले जमीन प्रदान की है। स्थिति यह है कि श्री लंका कर्ज के चंगुल में भयंकर रूप से फंस चुका है। उसके ऊपर विभिन्न देशों का कुल 55 अरब डॉलर का कर्ज है। यह श्रीलंका की कुल जीडीपी की 80 फीसदी है। इसमें 14 प्रतिशत कर्ज चीन और एशियन डिवेलपमेंट बैंक का है, जापान का 12 प्रतिशत, विश्व बैंक का 11 प्रतिशत और भारत का दो प्रतिशत। कोराना संक्रामक रोग के साथ विकसित आर्थिक संकट के बीच श्री लंका ने भारत से कर्ज अदायगी में छूट की मांग की है। चीन ने श्री लंका को किश्तों में 50 करोड़ डॉलर और कर्ज देना मंजूर कर लिया है।
मालदीव में नौसैनिक अड्डे का निर्माण | Naval base construction in Maldives | Maldives is badly entangled in China's debt trap
अरब सागर में भारत के लक्षद्वीप के निकट12 मालदीव चीन के कर्ज के जाल में बुरी तरह से उलझ चुका है। वह 2018 तक चीन से डेढ़ अरब डॉलर कर्ज ले चुका था। इसका लाभ उठाकर चीन ने मालदीव के17 द्वीपों को पट्टे पर ले लिया है। चीन ने मालदीव को 40 लाख डॉलर देकर यहां का फ़ेयदहू-फ़िनोलहू द्वीप 2066 तक के लिए पट्टे (लीज़) पर लिया है और समुद्र में उसके किनारे पाटते हुए, आकार38 हज़ार वर्गमीटर से बढ़ा कर एक लाख वर्गमीटर कर दिया है। यदि वह इनका सैनिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करता है, तो न तो छोटा-सा मालदीव उसका कुछ बिगाड़ पायेगा और न भारत ही चीन को ऐसा करने से रोक पाएगा।
सेशेल्स और मॉरीशस में भारत के सैन्य अड्डे | Indian military bases in Seychelles and Mauritius
भारत और सेशेल्स में यह सहमति बन गई है कि सेशेल्स के एजम्शन द्वीप पर भारत नौसेना का एक अड्डा विकसित करेगा। सेशेल्स हिंद महासागर में अफ्रीकी मुख्यभूमि से लगभग 1500 किलोमीटर दूर पूर्व दिशा मे और मेडागास्कर के उत्तर पूर्व में है। यहां कुल 11 वर्ग किमी जमीन है। भारत सेशेल्स को सैन्य उपकरण खरीदने के लिए 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर के दे रहा है। "सामुद्रिक सुरक्षा" के नाम पर हुए इस समझौते के तहत एजम्शन द्वीप पर नेवी का बेस तैयार किया जा रहा है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी की पहली विदेश यात्रा सेशेल्स से शुरू हुई थी। तब से यह योजना अधर में लटकी थी। वहां के संविधान के अनुसार विपक्ष की सहमति न होने पर सरकार इस प्रकार के समझौते नहीं कर सकती। स्थानीय लोग का विरोध था कि सैन्य अड्डा बनने से सेशल्स के पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा। विरोध के पीछे चीन का हाथ भी बताया जा रहा था।
सेशेल्स 115 द्वीपों का समूह है। भारत की योजना इस समझौते के बाद यहां 550 मिलियन डॉलर निवेश करने की है। इस डील के तहत सेशेल्स की राजधानी विक्टोरिया के दक्षिण पश्चिम में स्थित 1,135 किलोमीटर की दूरी तक भारतीय सैनिक तैनात होंगे। ये सैनिक सेशेल्स के सैनिकों को ट्रेनिंग भी देंगे। फिलहाल यह द्वीप पूरी तरह से खाली पड़ा है। यहां पर एक हवाई पट्टी है। लोग बहुत कम रहते हैं।
हिंद महासागर में मारीशस के अगालेगा द्वीप पर भारत ने नेवी के लिए ठिकाना बनाया है। अगालेगा में भारतीय वायुसेना के विमानों के लिए एयरपोर्ट बनाया गया है। अगालेगा मॉरीशस के मुख्य द्वीप से 1100 किलोमीटर दूर उत्तर यानी भारत की तरफ, सिर्फ 70 वर्ग किलोमीटर दायरे में है। ये दोनों द्वीप अरब से कच्चे तेल के परिवहन मार्ग के करीब हैं। यहां चीन की गतिविधाियों पर नज़र रखने के लिए अमेरिका भारत को 22 गार्जियन ड्रोन दे रहा है।
जिबूती में चीन का नेवी बेस
अफ्रीका के देश जिबूती को अगर चीन का नौसैनिक अड्डा न माना जाए तो भी इसके रणनीतिक महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। चीन के अनुसार उसने यहां अपने नाविकों और जहाजों के लिए भोजना, रसद, ईंधन आदि लाजिस्टिक सुविधा के लिए ठिकाना बनाया है। चीन का यह बेस अमेरिका के सबसे बड़े और बेहद महत्वपूर्ण नेवी बेस 'कैम्प लेमनीर' से कुछ मील के फासले पर है। कैम्प लेमनीर की स्थापना अमेरिका ने 9/11 हमलों के बाद की थी। यहां हर समय4,000 अमेरिकी सैनिक मौजूद रहते हैं। यहीं से अमेरिका पश्चिम एशिया और अफ्रीकी श्रंग में लक्षित ड्रोन हमलों सहित बेहद गोपनीय मिशनों का संचालन करता रहा है। अमेरिका के अलावा, जापान, इटली और फ्रांस, सभी अमेरिकी सहयोगियों के जिबूती में अपने नौसैनिक ठिकाने हैं।
चीन अफ्रीका में निवेश लगातार बढ़ा रहा है। वह कुछ वर्षों में अपनी सेना के आधुनिकीकरण पर भी खास ध्यान दे रहा है। अफ्रीकी राष्ट्रों के शिखर सम्मेलन- 2015 में चीन ने अफ्रीका के विकास के लिए 60 बिलियन डॉलर निवेश करने का ऐलान किया था। चीन अफ्रीका महाद्वीप का सबसे बड़ा व्यावसायिक साझीदार बन चुका है।
जिबूती उत्तरी अफ्रीका का एक छोटा सा देश है। यह अदन की खाड़ी और हिंद महासागर के बीच सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बाब अल-मन्देब जलडमरूमध्य पर व्यापार और ऊर्जा परिवहन महत्वपूर्ण मार्ग है। यहां से प्रतिदिन 3.8 मिलियन बैरल कच्चा तेल गुजरता है। इसकी स्थिति यहां के तीन अस्थिर क्षेत्रों — अरब प्रायद्वीप (यमन), अफ्रीकी श्रंग (सोमालिया, इरिट्रिया) और उत्तरी अफ्रीका (मिस्र, सुडान) के संगम पर है।
‘एशिया में ऊर्जा का भविष्य’ नाम से अमेेरिकी रक्षा विभाग (पेंटागन) की एक रिपोर्ट में चीन द्वारा विभिन्न देशों में कायम किए जा रहे बंदरगाहों को"स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स" (मोतियों की माला) कहा गया है। इस खुफिया रिपोर्ट में बताया गया है, "चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर से लेकर मलक्का संधि, बंगाल की खाड़ी और अरब की खाड़ी तक तैयार किए जा रहे सामरिक ठिकाने (बंदरगाह, हवाई पट्टी, निगरानी-तंत्र इत्यादि) ऊर्जा-स्रोत और तेल से भरे जहाजों के समुद्र में आवागमन की सुरक्षा के लिए है। समय आने पर चीन इन्हें सैन्य उद्देश्य के लिए भी इस्तेमाल कर सकता है।" कहा यह भी जा रहा है कि 'मोतियों की माला’(स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स) का मकसद भारत को समुद्र में घेरना है। जवाबी नीति के तहत भारत ने भी 'फूलों की माला' नाम से बंदरगाह, हवाई पट्टियां, निगरानी तंत्र कायम करने की नीति अपनायी है।
मुख्य प्रतिद्वंद्वता अमेरिका और चीन में है। हिंद-प्रशांत में 'चीन के विरूद्ध भारत' अमेरिका के हित में है। इससे अमेरिकी फ़ौज पर दबाव कम हाे रहा है। क्षेत्रीय शक्ति के रूप में भारत का ताकतवर होना अमेरिका के लिए अच्छा है। यह हिंद प्रशांत में चीन को रोकने, अमेरिका के शोषण और लूट की हिफाजत करने में उसके लिए मददगार है। भारत के पूंजीपति वर्ग के भी अपने हित हैं। "नीली अर्थव्यवस्था" के नाम पर सामुद्रिक संसाधन, "लुक ईस्ट", "एक्ट ईस्ट", हिंद-प्रशांत और अफ्रीका में चीन का विकल्प बनने का अवसर, भारत के पूंजीपति वर्ग के लालच को जाहिर करते हैं। दिक्कत यह है कि वैश्वीकरण के साथ भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों, विदेशी पूंजी पर आधारित विकास और निर्याताेन्मुख उत्पादन की जिस आर्थिक नीति को अपनाया गया है वह आज संकट की भंवर में है। भूख, गरीबी, बेरोजगारी के खिलाफ जनता विरोध और आक्राेश से भरी हुई है। जनता का विरोध क्रांतिकारी दिशा में आगे न बढ़े इसके लिए "हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद" के नाम पर साम्प्रदायिकता और अंधराष्ट्रोन्माद उत्पन्न कर फासीवादी दमन के रास्ते पर आगे बढ़ना भारत के शासक वर्ग के हित में है। चीन और अमेरिका दोनों का मुकाबला भारत का साम्राज्यवाद परस्त शासक वर्ग नहीं कर सकता। भारत की मेहनतकश और जनवाद पसंद जनता की एकजुटता से ही यह संभव है। क्रांतिकारी आंदोलन के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है।
कमल सिंह
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कमल सिंह