कैश माओवादी (Cash Maoism) की माया से रचित संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र नेपाल ढहने की क़गार पर है. यह जिस माया से निर्मित हुआ था, उस माया का सच जनता के सामने उजागर हो चुका है. अब यह अपने अंतर्बिरोधों के वशीभूत होकर बुरी तरह से लड़खड़ा रहा है. गास-बास-कपास अर्थात रोटी-कपड़ा-मकान के सवालों पर बीते सालों में सरकार शताब्दियों की तरह मौन रही है.
एक ऐसा देश जहाँ की तीन चौथाई मेहनतकश आबादी यदि रेमिटेंस नेपाल न भेजे तो देश ठप्प हो जाता है. रेमिटेंस भेजने वाले यही लोग जब नेपाल वापस आ चुके हैं या निरंतर वापस आ रहे हैं, तो रोटी-कपड़ा-मकान के सवालों से उनका सामना लाजिमी है.
वैश्विक कोरोना महामारी (Global corona epidemic) के इस दौर में जबकि सामाजिक दूरी ही इस रोग से बचाव की सबसे जरूरी हिकमत मानी जाए, उस समय राजधानी काठमांडू की सड़कों पर हजारों हजार युवाओं के पिछले तीन दिनों से सड़क पर आने के क्या मायने लगाये जाएँ?
अस्सी दिनों के बाद लॉकडाउन के थोड़ा खुलने के समय लोगों पर पुलिस द्वारा दागे गए आँसू गैस के गोलों, पानी की बौछारों और निर्ममतापूर्वक लाठी बरसाने के आख्यान को कैसे समझा जाय?
केवल काठमांडू ही नहीं बल्कि तराई-मधेस के जिलों से लेकर पश्चिम नेपाल के पर्यटकीय शहर पोखरा, जहाँ कहीं भी नौजवान सड़कों पर उतर रहे हैं. इसका एक तात्कालिक कारण यह कहा जा रहा है कि कोरोना महामारी के कारण पिछले तीनेक महीनों से घरों की चहारदीवारी में बंद रहने को मजबूर लोगों में इस बीच जन्मे अकेलेपन और भविष्य की चिंता (Future concern) का यह सम्पूर्ण परिणाम है. लेकिन पूरा मसला सिर्फ यह नहीं है. इसके तार नेपाली समाज की पिछले दशकों की राजनीति पृष्ठभूमि से गहरे जुड़े हुये हैं.
कोरोना महामारी तो एक प्रस्थान बिंदु लेकर आई है और
ज्ञातव्य हो कि जब तीन महीने पहले नेपाल में लॉकडाउन का पहला दौर आरम्भ हुआ था, बिलकुल उसी समय जबकि लॉकडाउन के बस तीन चार दिन ही बीते थे कि कोरोना रोग का टेस्ट करने के लिए चीन से मंगायी गयी टेस्ट जाँच किट में करोड़ों रुपयों का बड़ा घपला सामने आया. आरोप हैं कि नेपाल के प्रधानमंत्री को इसकी कानों कान खबर नहीं थी कि उनके स्वास्थ्य मन्त्री भानुभक्त ढकाल क्या गुल खिला रहे हैं ! और उन्होंने कैसे एक टेस्ट किट (जिसका वास्तविक मूल्य ४००० रुपया था) का १५००० रूपया का बिल बनाकर बीस करोड़ रूपये कमाए.
हफ़्तों इसी बात पर चर्चा होती रही कि पिछले ससंदीय चुनाव में बुरी तरह से पराजित पूर्व एमाले के वरिष्ठ नेता वामदेव गौतम को संसद सदस्य कैसे बनाया जाय? और जारी थे प्रधानमन्त्री केपी ओली और पुष्प कमल दाहाल उर्फ़ प्रचंड प्रचंड (जो कि इस सरकारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के संयुक्त मुखिया है) के बीच बैठकों के दौर पे दौर, जबकि जनता का अपार सैलाब पडोसी मुल्क भारत से उस समय तक बंद कर दी गयी नेपाली सीमाओं में प्रवेश के लिए जद्दोजहद कर रहा था. नेपाली पुलिस अपनी ही जनता पर देश में प्रवेश करने की एवज में डंडे बरसा रही थी और लोग भूखे प्यासे ही जंगलों, पहाड़ों और नदियों को पार कर अपने “घर” पहुँचने को आमादा थे.
उस समय का ही एक हृदय विदारक दृश्य जो भूलता नहीं है, जिसमें एक बदहवास अर्धनग्न व्यक्ति महाकाली नदी के किनारे नेपाली सीमा पर तैनात नेपाली पुलिस की हिरासत में है. यह आदमी भारत-नेपाल सीमा बंद होने के कारण आधी रात में ही उत्तराखंड के धारचूला जिले में बह रही महाकाली नदी को तैर कर नेपाली जिले धारचूला में घुसा था. जब उससे पूछा गया कि उसने ऐसा क्यूँ किया तो उसका जवाब था कि “परदेश में भूख से तड़प तड़पकर मर जाने से अच्छा है कि मैं अपने घर पे ही मरुँ”.
लगभग उसी समय अप्रैल महीने में तीन घटनाएं सतह में आती हैं. पहली, जब भारतीय राज्यसत्ता ने नेपाली भूभाग लिपुलेक, लिम्पियाधुरा व कालापानी को आधिकारिक तौर पर अपने मानचित्र में दिखाया जबकि नेपाल का दावा है कि १८१६ में हुई नेपाल के राजा और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुई सुगौली संधि के दस्तावेजों से यह बात जगजाहिर थी कि ये इलाके नेपाल के हिस्से में पड़ते हैं. जैसे ही यह सामने आया कि सोशल मीडिया व सड़कों में इक्का दुक्का प्रदर्शनों के बीच “गो बैक इंडिया” नारे लगने लगे और फूंके जाने लगे, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के देश भर में पुतले.
लगभग उसी समय कैश माओवादी माया के राष्ट्रवादी ओली संस्करण संघीय समाजवादी जनता पार्टी के एक सांसद का अपहरण करा कर अपनी सत्ता मजबूत कर रहे थे. साथ ही वे अपने पॉकेट में पड़ी राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी से पार्टी विघटन सम्बन्धी एक विधेयक पास करवाने की जुगत में थे, कहा जा रहा है कि रातों रात दिल्ली ने दांव खेलकर उन महाशय सांसद को नेपाली टीवी में पेश करवाया और भूतपूर्व माओवादी उर्फ़ पूर्व यांत्रिक मार्क्सवादी डॉ. बाबूराम भट्टराई को मोहरा बनाकर दो गुटों में बंटी हुई उपेन्द्र यादव की पार्टी को समाजवादी जनता पार्टी में सुसंगठित किया.
और तीसरा घटनाक्रम सबसे महत्वपूर्ण है, जिसका जिक्र अधिकाँश नेपाली समाचारपत्र करने से कतरा रहे हैं. जबकि प्रचंड के कैश माओवादी सिंह दरबार में अपनी सत्ता पांच साल की बजाय आधी शताब्दी तक टिकाये रखने के लिए अपने छुटभैये संस्करण एमाले के साथ सितम्बर-अक्टूबर २०१७ में एकता करके कुर्सी की बंदरबांट कर ही रहे थे कि विश्व साम्राज्यवाद के नायक अमेरिका ने ५०० मिलियन डॉलर का एमसीसी (मिलेनियम चैलेन्ज कॉम्पैक्ट) प्रोजेक्ट का शिगूफा छोड़ा.
अमेरिकी एमसीसी प्रस्ताव नेपाल अनुमोदित कर चुका है, पर इसका नेपाली संसद में पारित होना अभी बाकी है. एमसीसी प्रोजेक्ट पर विश्लेषकों का आकलन है कि इसे पास करने के साथ ही नेपाल, भारत की देखरेख में अमेरिकी सेना का अधिकृत अड्डा बन जाएगा, जिससे कि भविष्य में चीन को नियंत्रित किया जा सके. कहने को तो एमसीसी के बहुप्रचारित हिस्सों के मुताबिक नेपाल को अपना विकास करने के लिए अरबों डालर का अनुदान मिलेगा. जिससे वह अपने पानी का ‘सदप्रयोग’ कर भारत और बांग्लादेश को बिजुली बेंचकर मोटा पैसा बना सके. लेकिन एक चीज जिस पर कम चर्चा की जाती है, वह है इसका नेपाल के मुस्तांग जिले में अवस्थित यूरेनियम खदानों से यूरेनियम का प्रशोधन करने को लेकर कृतसंकल्प होना.
मुस्तांग नेपाल का वही इलाका है, जहाँ पर तिब्बत में घुसपैठ करने के लिए अमेरिकी सेना ने १९५९ में खम्पा विद्रोह प्रायोजित कराया था. और तो और आमतौर से नेपाली सेना और अमेरिकी सेना का संयुक्त सैन्य अभ्यास परंपरागत तौर से मुस्तांग में ही होता आया है.
ज्ञातव्य हो कि ओली सरकार पिछले साल ही संसद में एक न्यूक्लियर बिल पास करवा चुकी है और देश को साम्राज्यवादी देशों के रेडियोएक्टिव पदार्थों का कबाड़ इकट्ठा करने का अड्डा बना चुकी है. इसका सबसे मजेदार पहलू यह है कि नेपाल में एमसीसी अपना काम भारत की सहमति और सर्वेक्षण से आगे बढ़ाएगा.
लिपुलेक, लिम्पियाधुरा व कालापानी के सवाल पर फर्जी राष्ट्रवादी रुख उर्फ़ भारत विरोध का रुख अलापने वाले सत्ताधारी सरकारी कम्युनिस्टों के ओली गुट के सर्वेसर्वा प्रधानमंत्री महोदय इसे पारित कराने में कमर कस चुके हैं. लेकिन वहीँ पार्टी के भीतर एमसीसी को लेकर झलनाथ खनाल + माधव नेपाल + वामदेव गौतम + देव गुरुंग आदि गुटों के जबरदस्त विरोध के चलते प्रचंड माया अभी तक अपना रुख स्पष्ट नहीं कर सकी है. नेपाली कांग्रेस एक ओर लिपुलेक आदि पर देशभक्ति का राग अलाप रही है, वहीँ एमसीसी प्रकरण पर वह अमेरिका के साथ खड़ी होकर इसे पास करवाने में जुटी है. इस मसले पर डॉ. बाबुराम भट्टाराई ने अपने पत्ते अभी तक नहीं खोले हैं, पर लिपुलेक मसले पर वे राष्ट्रवादी हैं. क्या अजब मसखरापन है !
साथ ही यह भी सुना गया है कि वर्तमान नेपाली संसद के स्पीकर उर्फ़ प्रचंड के मौजूदा दाहिने हाथ अग्नि सापकोटा के पहले इस पद पर काबिज प्रचंड माया के पुराने हनुमान कृष्ण बहादुर महरा के संसद के पिछले सत्र में एमसीसी विधेयक को पेश किये सम्बन्धी आनाकानी के चलते उन्हें बलात्कार अभियोग में ‘फँसाया’ गया और नेपाली राजनीति से सदा के लिए बाहर कर दिया गया.
कृष्ण बहादुर महरा प्रकरण के होने का मतलब यह है कि कैश माओवादी खेमे की पुरानी पोलिटिकल ट्रेनिंग के चलते सरकारी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसदों का बहुमत एमसीसी के खिलाफ खड़ा है. साम्राज्यवाद तो ऐसे नेताओं का ऐसा काला ‘सच’ तभी उजागर करता है, जब उसके अनुकूल चीजें नहीं होती.
इधर नेपाली अखबारों के हवाले से काठमांडू के अमेरिकन दूतावास से एक खबर लीक हुई है कि यदि एमसीसी प्रोजेक्ट संसद में पास न किया गया तो अमेरिका, नेपाली कांग्रेस, पूर्व नेकपा (एमाले) और पूर्व नेकपा (माओवादी) नेताओं के देश के साथ किये गए राष्ट्रघाती मामलों को उजागर कर उनका पर्दाफाश कर देगा. साथ ही प्रचंड माया हेग (अंतर्राष्ट्रीय युद्ध अपराध की अदालत) की यात्रा करने को तैयार रहें.
ज्ञातव्य हो कि एमाले के तथाकथित भारत विरोधी और जननेता कहे गए मदन भंडारी की १९९० के दशक में दासढुंगा नामक स्थान पर दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी, जिसमें उस समय की एमाले पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं का हाथ होने के आरोप लगे थे. साथ ही नेपाल में लोकतंत्र के पुनर्स्थापित होने के बाद कथित तौर पर भारत के साथ हुए दर्जनों नदी-नाले बेचने सम्बन्धी प्रकरण में भी नेपाली कांग्रेसी व एमाले नेताओं की मिलीभगत के आरोप लगे थे. और तो और कहा जा रहा है कि यह धमकी भी दी गयी है कि २००१ में हुए राजदरबार हत्याकांड में कांग्रेस व सत्ताधारी कम्युनिस्टों की कथित संलग्नता का ‘सच’ भी उजागर कर दिया जाएगा.
ज्ञातव्य को कि इसी के गर्भ से कैश माओवादी सत्ता वजूद में आई थी, क्यूंकि तत्कालीन राष्ट्रवादी राजा बीरेंद्र शाह विक्रम देव माओवादियों का दमन करने के लिए शाही नेपाली सेना को गोलबंद करने को लेकर आनाकानी कर रहे थे.
डॉ. पवन पटेल
लेखक स्वयं भूकवि हैं, परन्तु इलाहाबाद व जेएनयू से उनकी ट्रेनिंग एक राजनैतिक समाजशास्त्री के रूप में हुई है. नेपाल पर उनकी दो किताबें यथा “द मेकिंग ऑफ़ ‘कैश माओइज्म’ इन नेपाल: ए थबांगी पर्सपेक्टिव” (२०१९) और “एक स्वयं भू कवि की नेपाल डायरी” (२०२०) प्रकाशित हैं. लेख में व्यक्त किए गए विचार, अन्य लेखों की तरह लेखक के निजी विचार हैं।