नई दिल्ली, 23 जून 2019 : भारत की अर्थव्यवस्था लगातार बिगड़ती जा रही है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक आरबीआई बोर्ड की बैठक ((Meeting of the Reserve Bank of India Board) ) में स्वयं आरबीआई गवर्नर ((Reserve Bank of India Governor) ) ने यह स्वीकार किया है। उधर ईरान और अमरीका के बिगड़ते रिश्तों की आँच भी भारतीय अर्थ्यवस्था को डगमगा रही है। ऐसे हालात की समीक्षा कर रहे हैं प्रख्यात वाम आलोचक अरुण माहेश्वरी
हमारे रिजर्व बैंक का गवर्नर बोर्ड की मीटिंग में कहता है कि अर्थ-व्यवस्था बेजान हो रही है। बोर्ड के बाक़ी सदस्य भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहते हैं - बेजान हो रही है !
फिर गवर्नर अपनी कुर्सी की पुरानी बुद्धिमत्ता का परिचय देने की मुद्रा में अपनी जेब से सरकार का भेजा नुस्ख़ा निकालता है। कहता है ब्याज की दर को घटाना होगा।
बाक़ी सदस्य भी बॉस के इशारे को समझ कर वही बात दोहराते हैं - ब्याज की दर को कम करना होगा !
सब जानते हैं गवर्नर किसके हुक्म की फरमाबरदारी कर रहा है।
सबको लगता है, व्यापारियों ने हाथ खींच लिया है, इसीलिये अर्थ-व्यवस्था बैठ रही है। इसे उठाने के लिये पहले व्यापारियों को उठाना होगा। मुनाफ़ा बढ़ता दिखेगा तो वे मैदान में कूद जायेंगे और बेजान अर्थ-व्यवस्था दौड़ने लगेगी !
अर्थात् उद्योगपतियों के दलालों ने यह बात अच्छी तरह से फैला दी है कि अर्थ-व्यवस्था का उठना या बैठना पूरी तरह से व्यापार जगत का आंतरिक मामला है। इस जगत का मन चंगा रहेगा तो अर्थनीति चंगी हो जायेगी !
केंद्रीय बैंक
अर्थात् आपकी आर्थिक स्वायत्तता खुद को तबाह करने तक ही सीमित रह गई है। अर्थ-व्यवस्था को संकट से निकालने के मामले में सचमुच आप उतना स्वायत्त नहीं रह गये हैं।
अमेरिका विश्व अर्थव्यवस्था का रिंग मास्टर है America is the ring master of the world economy
यह बात सुनने में कितनी ही फाल्तू और अतिरेकपूर्ण क्यों न लगे, लेकिन अभी की दुनिया की यही कटु सच्चाई है। 2008 तक सभी कहते थे कि अमेरिका विश्व अर्थ-व्यवस्था का इंजन है, अगर वहाँ किसी प्रकार का कोई संकट पैदा होगा को उसकी चपेट से दुनिया का कोई देश बच नहीं सकता है। लेकिन आज तो लग रहा है कि अमेरिका विश्व अर्थव्यवस्था का रिंग मास्टर है। वह अपनी मर्जी से किसी भी देश को नचा सकता है ; बल्कि नचा रहा है।
देखते-देखते अमेरिका के बग़ल का वेनेज़ुएला भुखमरी के कगार पर चला गया है। उस छोटे से देश से अब तक चालीस लाख लोग महज भूख से बचने के लिये पलायन कर चुके हैं। पूरा लातिन अमेरिका सिसकियाँ भर रहा है।
यही हाल मध्य एशिया के तमाम देशों का है। अमेरिकी आर्थिक नाकेबंदी उसके सामरिक हस्तक्षेप से भी ज़्यादा ख़तरनाक साबित हो रही है। ईरान पर अभी ट्रंप ने हमले को यह कह कर रोक दिया कि वह पहले से ही बेहद कमजोर हो चुका है। अब उसके लोगों को बम से मार कर हाथ को ख़ून से रंगने की ज़रूरत नहीं है !
चीन के साथ अभी जिस प्रकार के वाणिज्यिक युद्ध की डुगडुगी बजायी जा रही है, इसके अंतिम परिणाम की कोई कल्पना भी नहीं कर पा रहा है। चीन की अर्थ-व्यवस्था से अमेरिकी हित इतनी गहराई से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं कि यह युद्ध उतना सीधा-सरल नहीं होगा, जितना अन्य देशों के मामले में समझा जा रहा है।
भारत को तो मोदी कृपा ने अमेरिकी निर्देश पर उठ-बैठ करने के कगार तक पहुँचा ही दिया है। ईरान से तेल के आयात पर प्रतिबंध (ban on imports of oil from Iran) और अमेरिका में कई सामग्रियों के निर्यात पर बढ़ाये गये शुल्क और खास तौर पर अमेरिका में काम करने वाले भारतीयों पर वीसा संबंधी सख्तियों से पहले से मंदी में आ चुकी भारत की अर्थ-व्यवस्था का संकट गहराने लगा है। भारत अपने डाटा को देश में ही जमा रखने की ज़िद न करे, ट्रंप का निर्देश है।
लेकिन सच्चाई से आँख मूँदते हुए हमारी सरकार आदतन चीन-अमेरिका वाणिज्यिक युद्ध (China-US Commercial War) से भारत को संभावित लाभ के कोरे भ्रम पैदा करने में लगी हुई है !
इन सबके ऊपर है हमारी मोदी सरकार की विश्व-व्यापी कीर्ति !
एक अमेरिकी अख़बार से मोदी सरकार ने भारत के बेवक़ूफ़ों का दिल बहलाने मोदी के लिये दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति का ख़िताब ले लिया है। लेकिन सारी दुनिया इस सच को जान गई है कि मोदी और उनके कारिंदों ने पिछले दिनों भारत के अर्थनीतिक आँकड़ों में भारी फर्जीवाड़ा किया है।
इसके अलावा अमेरिकी गृह विभाग ने दो दिन पहले ही अपनी रिपोर्ट में भारत के अंदरूनी हालत, विशेष तौर पर धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में स्थिति को संगीन बताया है।
The truth of India's economic and social evil
भारत की आर्थिक और सामाजिक दुर्दशा की सच्चाई को जान लेने के बाद अन्तरराष्ट्रीय निवेशकों को यहाँ और पूँजी-निवेश के लिये आकर्षित करना सबसे टेढ़ी खीर साबित होने वाला है। फलत: भारत में उनके दलाल पूँजीपतियों की हालत अभी से ख़स्ता होती जा रही है।
और, भारत का रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India) इसी दलाल पूँजीपति वर्ग को ब्याज की दर में छूट देकर चंगा करके अर्थ-व्यवस्था को चंगा करने का हसीन सपना देख रहा है !
इस सरकार और रिज़र्व बैंक के लाल बुझक्कड़ों के सोच से लगता है मानो आर्थिक गतिविधि के मूल, विनिमय के संबंध में सिर्फ एक पक्ष, विक्रेता की ही भूमिका होती है। क्रेता की जेब ख़ाली हो, वह बाज़ार में न उतरे, तब भी विक्रेता की मदद करके अर्थ-व्यवस्था चंगी की जा सकती है ! यहाँ तक कि मुद्रा-स्फीति को और बढ़ा कर, अर्थात् जनता की कंगाली में वृद्धि करके भी अर्थ-व्यवस्था को चंगा किया जा सकता है। रेपो रेट में कमी का फ़ैसला उनके इसी सोच को दर्शाता है।
दरअसल, फकीरी का राग अलापने वालों को यह विश्वास हो गया है कि उन्होंने लोगों को पेट पर कपड़ा बाँध कर प्रभु कीर्तन करने और भीख के बहुत ही मामूली रुपये के एवज़ में अपने को, और मतदान के ज़रिये गणतंत्र को ज़िंदा रखना सिखा दिया है। ऐसे में जनता के लिये तो किसी आर्थिक विकास की ज़रूरत भी तो शेष हो जाती है ! अब विकास का मसला पहले से मुटकाये लोगों को और मोटा करने करने का मामला भर है। मुद्रा नीति उसी दिशा में चलेगी। सड़कों पर वाहनों के लिये तेल नहीं मिलेगा, लेकिन रिज़र्व बैंक की मुद्रा नीति से अर्थ-व्यवस्था जरूर चलेगी !
सचमुच, यह सही वक़्त है - मूलभूत संघी अर्थनीति पर अमल का ; आयकर को समाप्त करके जीने के अधिकार मात्र के लिये कर वसूलने की राजशाही वाले फासीवाद का।
हमारा सवाल है कहाँ है वे सब बाबा छाप, सुब्रह्मण्यम स्वामी की तरह के विक्षिप्त संघी अर्थशास्त्री ! हम उनसे आह्वान करेंगे - अब उतरिये मैदान में और सरकार को महज एक दमन का औज़ार बना कर जनता को भगवान भरोसे छोड़ देने की वे सारी अंतिम व्यवस्थाएँ कीजिए जिसमें राज्य प्रत्येक आदमी से जीने भर के लिये कर वसूलेगा ! बाक़ी के जीने के सारे कामों को लोगों को अपने ही स्तर पर अंजाम देना होगा। अमेरिका भी इसमें आपके लिये मददगार होगा। वह देख रहा है कि भारत को वेनेज़ुएला के रास्ते में एक झटके में ढकेलने का प्रयोग करने की सारी सामग्री वहाँ इकट्ठी हो चुकी हैं। बस, नोटबंदी जैसे दूसरे एक और संघी फ़ार्मूले पर अमल करवाना है, भारत में नोच-खसोट शुरू होने में ज़्यादा समय नहीं लगेगा।
दरअसल, राजसत्ता का मूल चरित्र तो पुरखों के काल से ही हमेशा दमनकारी रहा है। बीच में यह जनतंत्र का दौर उसे कल्याणकारी बनाना चाहता है। प्राचीनता के पुजारी संघी उसे अपनी फिर पटरी पर लाना चाहते हैं। पुरखों की सीख पर अमल का समय आ गया है ! प्राचीन काल के गौरव को लौटाने का स्वर्णिम समय। सुविधा यह है कि इस काम में अभी अमेरिका भी हमारी सेवा के लिये पूरी तरह से तत्पर है। ‘जय श्रीराम’ का घोष करते हुए उस पथ पर उतरने की तैयारियाँ भी शायद चल रही है।
इसमें अब जनतंत्रवादियों को सोचना है वे कैसे इस स्थिति का मुक़ाबला करेंगे। गांधी जी ने ऐसी लुटेरी सरकारों से संघर्ष का एक रास्ता सिविल नाफरमानी बताया था। सरकार के अस्तित्व से इंकार करके उसे जीवन से खारिज करने का रास्ता। सत्ता से कोई निजी उम्मीद न करना इसकी पहली शर्त है। कहने की ज़रूरत नहीं कि भारतीय प्रतिपक्ष को इसी चेतना के आधार पर अपना पुनर्निर्माण करना होगा। देखना है कि आगे यह कैसे संभव होता है। लेकिन एक पूरी तरह से जन-विरोधी साम्राज्यवादियों के दलाल शासन का सच क्रमश: साफ़ नजर आने लगा है।