2023 में यह स्थिति कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को रोकने की बात की जा रही है। सुरक्षा कारण बताए जा रहे हैं। पैदल के बदले गाड़ी या जहाज से श्रीनगर जाने की सलाह दी जा रही है। जबकि 1992 में आज से 31 साल पहले जब पाक समर्थित आतंकवाद चरम पर था तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी की यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न करा दी गई थी।
क्या खोखले निकले केन्द्र सरकार के दावे?
केन्द्र सरकार की तरफ से तो दावे किए जा रहे थे कि नोटबंदी और धारा 370 खत्म करने के बाद आतंकवाद खत्म हो गया है। कश्मीर में स्थिति सामान्य हो गई है। मगर अब जब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जम्मू-कश्मीर में पहुंच चुकी है तो रोज नए खतरे बताए जा रहे हैं। 1992 में तो केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने 26 जनवरी को श्री जोशी को लाल चौक पहुंचा दिया था, जहां उन्होंने झंडारोहण किया था। आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी उनके साथ थे।
26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर तो हमेशा से सुरक्षा बलों पर भारी दबाव होता है और फिर आतंकवाद के उन
लाल चौक पर तिरंगा कब फहराएँगे राहुल गांधी?
राहुल ने 26 जनवरी का वहां झंडा फहराने का अपना कार्यक्रम सुरक्षा बलों पर उस दिन ज्यादा काम रहने के कारण खुद ही आगे बढ़ा दिया। वे 30 जनवरी को वहां प्रदेश कांग्रेस के नए बने कांग्रेस कार्यालय पर ध्वजारोहण करेंगे। मगर इसके बाद भी अगर यात्रा को पूरी सुरक्षा मुहैया नहीं कराई जाती है या उसे रोकने की कोशिश की जाती है तो इसे क्या कहेंगे?
क्या मोदी सरकार के नोटबंदी, धारा 370 हटाने, राज्य का विभाजन, जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा कम करने के सारे उपाय केवल पोलिटिकल गिमिक्स (राजनीतिक खेल) थे! इनको करने के बड़े-बड़े दावों से क्या कश्मीर में स्थिति में कोई सुधार नहीं आया! क्या आज आतंकवाद की स्थिति 1992 से भी ज्यादा खराब है? या भाजपा राहुल की यात्रा की सफलता से डर गई है और वह हेडलाइन मैनेजमेंट नीति के तहत यह हेडलाइन चाहती है कि राहुल की यात्रा असफल! राहुल श्रीनगर नहीं पहुंच पाए! जम्मू से वापस! मीडिया इसकी तैयारी करके बैठा है।
राहुल को पैदल चलते चार महीने से ज्यादा हो गए। 12 राज्यों में सफर किया। चार हजार किलोमीटर पूरे होने वाले हैं। मगर इन सबको मीडिया ने इतना कवरेज नहीं दिया जितना वह एक हेडलाइन को देने की तैयारी कर रही है। नहीं फहरा पाए झंडा। भाजपा तो खुश होगी ही मगर मीडिया की तो बाछें खिल जाएंगी। मगर क्या राहुल यह होने देंगे?
राहुल पूरे अनुशासन के साथ यह यात्रा कर रहे हैं। सुरक्षा बलों के सारे नियमों का पालन करते हुए शांति से। किसी भी उकसावे वाली घटना से विचलित नहीं हो रहे। धीर, वीर, गंभीर भाव से अपनी मंजिल की तरफ बढ़ रहे हैं। लेकिन अगर एक हेडलाइन के लिए उन्हें रोकने की कोशिश की गई तो इसके गंभीर परिणाम निकलेंगे। अगर भाजपा यह समझती है कि यात्रा को रोकने से यात्रा असफल हो जाएगी तो यह उसकी बड़ी भूल है। यात्रा तो सफल हो चुकी।
श्मशान और कब्रिस्तान की बात करने वालों को पीछे धकेल दिया राहुल गांधी ने
राहुल ने नरेटिव (कथानक) बदल दिया है। हिन्दू -मुसलमान का नशा उतरा है। बेरोजगारी, महंगाई, अग्निवीर, स्वास्थ्य, शिक्षा का सरकारी क्षेत्र से बाहर होना, चीन की घुसपैठ, तैयारियां लोगों की चर्चा में आने लगे हैं। नफरत और विभाजन के बदले प्रेम और भाईचारे की बात होने लगी है। खुद प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि फिल्मों के पीछे मत पड़ो। मुसलमान, ईसाईयों के पास जाओ। सब मिल कर रहो। यह क्या है? यही तो राहुल की सफलता है। नहीं तो यही प्रधानमंत्री श्मशान और कब्रिस्तान की बातें कर रहे थे। कपड़ों से पहचानने की बात कर रहे थे। मगर आज भाजपा की कार्यकारिणी को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि सबके मिल-जुलकर रहने से ही देश विकास करेगा।
यात्रा की सफलता की एक बानगी यह है तो दूसरी देखिए!
कांग्रेस को अपने संकुचित क्षेत्रीय राजनीतिक हितों में खतरा मानने वाले विपक्षी दल राहुल गांधी की सफलता से घबरा कर हैदराबाद में मिल रहे हैं। इनमें टीआरएस (तेलंगाना राष्ट्र समिति) जो अब बिना तेलंगाना से निकले ही बीआरएस (भारत राष्ट्र समिति) बन गई है, आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी का तो समझ में आता है कि जिस दिन कांग्रेस वापस अपना पुराना वैभव पा लेगी इन तीनों पार्टियों के लिए मुश्किल हो जाएगी। मगर इस खम्मम जमावड़े में लेफ्ट का शामिल होना आश्चर्यजनक है। वह बार-बार कहती है कि हिमालयन ब्लंडर हो गया मगर फिर ऐसी भूल करना शुरू कर देती है। कांग्रेस को कमजोर करने से लेफ्ट कभी मजबूत नहीं हो सकती। कांग्रेस को कमजोर करने का मतलब है उस विचार को कमजोर करना जो गरीब, दलित, पिछड़े, महिला, अल्पसंख्यक, आम आदमी और देश को मजबूत बनाने की बात करता है। जब प्रेम और भाइचारे का विचार कमजोर होता है तभी धर्म, जाति और क्षेत्रीयता की राजनीति होती है।
हैदराबाद में इकट्ठा होने वाले दल धर्म, जाति, क्षेत्रीयता और संकुचित विचार की राजनीति करने वाले थे। इनमें शामिल होकर वाम दल क्या संदेश दे रहे हैं? यह उसके सोचने की बात है। मगर उसका नतीजा क्या होगा यह बताया जा सकता है। वामपंथ और कमजोर होगा। वामपंथ की प्रासंगिकता ही उसके विचारों से है। अगर फिर एक बार उसने सिद्धांत पर कांग्रेस विरोधी विचार हावी कर लिए तो कांग्रेस को तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा उसका महत्व और कम होगा। अन्ना के आंदोलन में अपनी भागीदारी को वह आज तक डिफेंड नहीं कर पा रही है। अन्ना हजारे जैसे संघ के हाथों में खेलने वाले आदमी को समर्थन देकर वाम दलों ने अपनी विश्वसनीयता को भारी नुकसान पहुंचाया है।
तो यात्रा अपनी मंजिल तक पहुंच चुकी है। मंजिल श्रीनगर नहीं वह तो एक उत्तर भारत के छोर का प्रतीक है कि दक्षिण से उत्तर तक हो गई। मंजिल तो उस खोए विचार की पुर्नस्थापना है जिसने भारत को बांधा है विभिन्नता को एकता के सूत्र में। द आइडिया आफ इंडिया। प्रेम, भाईचारे, समावेशी विचार की पुर्नस्थापना। देश को धर्म, जाति और क्षेत्रीय आधारों पर बांटने की जहरीली राजनीति को रोकना।
राहुल को इसमें सफलता मिली है। यही लक्ष्य था। यही मंजिल है। देश और समाज बंटने के बदले जुड़ने की तरफ जाए। भारत जोड़ो। और वह जुड़ने की तरफ वापस चल पड़ा है।
शकील अख्तर
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।