बाबू जगजीवन राम पर बहुत कम किताबें हैं। अक्सर, दलित राजनीतिक विमर्श डॉ अंबेडकर तक ही केंद्रित रह जाने के कारण 1937 से 1987 तक संसदीय राजनीति में किसी न किसी अहम ज़िम्मेदारी में रहने के बावजूद सचेत तौर पर उन्हें इग्नोर किया जाता है, जिसकी एक मात्र वजह उनका कांग्रेसी होना रहा। इस लिहाज से इंजीनियर राजेंद्र प्रसाद की 'जगजीवन राम और उनका नेतृत्व' एक ज़रूरी किताब है।
दरअसल बाबू जी को अंबेडकर के मुक़ाबले पृष्ठभूमि में रखने के षड़यंत्र को समझा जा सकता है। शायद 90 या 2000 तक बहुत लोगों को यह समझ में नहीं आता। ठीक जिस तरह नेहरू और पटेल या गांधी और बोस के बीच फैलाए गए तथ्यहीन अंतरविरोध का मकसद आज ज़्यादा बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। क्योंकि देश इन्हीं अफवाहों पर आधारित नैरेटिव का खामियाज़ा भुगत रहा है।
राजनीतिक टर्म में कहें तो यह कांग्रेस विरोधी कुंठा का एक प्रोजेक्ट था जिसका दूरगामी लाभ भाजपा को ही होना था। बाबू जी के संदर्भ में यह काम कांशीराम और बसपा ने किया और वो उसके तात्कालिक लाभार्थी भी रहे।
यह पुस्तक जगजीवन और अंबेडकर के संबंधों को तथ्यों के साथ खंगालती है और साबित करती है कि दोनों समतामूलक समाज बनाने के लक्ष्य के प्रति समर्पित योद्धा थे। एक युग पुरुष था तो दूसरा राज पुरुष। उनके बीच परस्पर सम्बन्धों के उदाहरण देखिये -
1- जगजीवन राम ने एक भाषण में कहा डॉ अंबेडकर ने आरक्षण की जो बुनियाद रखी उस
2- जगजीवन राम जी ने डॉ अंबेडकर को 8 मार्च 1937 को पत्र लिखकर उनकी पुस्तक जातिभेद के हिंदी अनुवाद की अनुमति मांगी थी। (अंबेडकर लेखन और भाषण वॉल्यूम 17, खंड 2 पेज 529)।
3- 6 दिसंबर 1956 को डॉ अंबेडकर के निधन के समय बाबू जी संचार और नागरिक उड्डयन मंत्री थे, उन्होंने दिकोटा हवाई जहाज से उनके पार्थिव शरीर और उनके परिजनों को दिल्ली से मुंबई ले जाने की व्यवस्था की। उस समय यह सुविधा किसी सांसद को उपलब्ध नहीं थी। बाबू जी ने नियमों को शिथिल करते हुए ऐसा आदेश दिया था। (पेज 84)
4- 16 जुलाई 1947 को विदेश से लौटते हुए हवाई दुर्घटना में बाबू जी घायल हो गए। उनकी टांग टूट गयी थी। हादसे में उनके अलावा सिर्फ़ उनके निजी सचिव ही बचे थे। बाकी लोगों की मौत हो गयी थी। डॉ अंबेडकर सूचना मिलते ही अस्पताल पहुंचे और कहा तुम बहुत भाग्यशाली हो जो हवाई जहाज से गिर कर भी जीवित बचे। यह तुम्हारा दूसरा जन्म जैसा ही है। अब इस जीवन में अपने दरिद्र और दबे कुचले अछूत भाइयों की भलाई का ज़्यादा काम करो। (पेज 85)
5- महू के जिस बैरक में डॉ अंबेडकर का जन्म हुआ था वह रख रखाव न होने के कारण जर्जर होने लगा था। 1977 को कुछ दलितों और बौद्ध भिक्षुओं ने उस जगह पर चुपके से एक चबूतरा बना कर डॉ अंबेडकर जन्म भूमि स्मारक स्थल लिख दिया, जिसे बाद में सेना के अधिकारियों ने तोड़ दिया। जब यह बात रक्षामंत्री बाबू जी को पता चली तो उन्होंने तत्काल उस जगह को सेना के क़ब्ज़े से हटाकर उस स्थान का आवंटन डॉ अंबेडकर जन्म स्थल स्मारक कमेटी को करने का निर्देश दिया और मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री सुंदर लाल पटवा को भी उस जगह को विकसित करने के लिए कार्ययोजना बनाने को कहा।(पेज 84)।
6- इसी तरह 1978 में आगरा के लाल क़िले के पास कैंट एरिया में भी नियमों को शिथिल कर उन्होंने डॉ अंबेडकर की आदम कद प्रतिमा लगवाई। (पेज 84)।
'गांधी, जगजीवन राम की निंदा के मायने' अध्याय अंबेडकर और गांधी के संबंधों पर नये नज़रिए से रोशनी डालता है। (ध्यान रहे जो लोग बाबू जगजीवन राम और अंबेडकर के बीच वैमनस्य की बात करते हैं वही लोग गांधी और अंबेडकर के बीच भी वैमनस्य की कहानी गढ़ते हैं।)
देखें- गांधी के दलित उद्धार के विचार से प्रभावित हो कर सवर्णों के अधिकतर प्रबुद्ध लोगों ने अपने से छोटी कही जाने वाली जातियों के महिला पुरुष से अंतरजातीय विवाह किया था। उतना अंतरजातीय विवाह तो दलितों की विभिन्न उपजातियों ने भी आपस में नहीं किया था। जबकि अंबेडकर ने जाति तोड़ो और एक अनुसूचित जाति बनो का आहवान किया था। (पेज 94)
'शुरू में गांधी ग्राम स्वराज्य को मानने वाले सनातनी, वर्ण व्यवस्था के मानने वाले और संसदीय लोकतंत्र के विरोधी थे। इसी गांधी का सनातनी हिंदू ताकतें समर्थन करती थीं, लेकिन अंबेडकर के प्रहार ने गांधी को आत्मचिंतन के लिए प्रेरित किया। उन्हें बदल दिया। इस कारण गांधी सोशलिस्ट नेहरू और सामाजिक क्रांतिकारी अंबेडकर के विचारों से प्रभावित हुए और अपने नज़रिए को बदला। इस कारण उन्होंने देश की बागडोर नेहरू और अंबेडकर को सौंपने का निर्णय लिया। जिसके कारण उनके पूर्व के सनातनी समर्थक नाराज़ हुए और उनकी हत्या करवा दी।' (पेज 95)।
यह सभी जानते हैं कि संविधान सभा में अंबेडकर को गांधी जी के कहने पर ही नेहरू ने लिया था। डॉ अंबेडकर ने संविधान सभा में खुद कहा था "मैं कांग्रेस का घोर विरोधी रहा हूँ इसलिए जब संविधान सभा ने मुझे प्रारूप समिति के सदस्य के लिए चुना तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था। मुझे तब और भी आश्चर्य हुआ जब मुझे उस समिति का अध्यक्ष बनाया गया।" (पेज97)
विभिन्न मंत्रालयों के ज़रिये उन्होंने समाज को बदलने वाले अनगिनत काम किये। मसलन, प्रोमोशन में आरक्षण। उन्होंने रेल मंत्री रहते हुए स्टेशनों पर मेहतर जाति के लोगों को पानी पिलाने के लिए नियुक्त किया जिन्हें पानी पांडे या वाटर मैन कहा जाता था। उस समय इसका सवर्णों ने बहुत विरोध किया। वो लोग अक्सर प्यासे रह जाते थे लेकिन रेलवे का पानी नहीं पीते थे। यह एक बेहद क्रांतिकारी क़दम था। (पेज 108)।
1946 में परिवार सहित वो केंद्रीय श्रम मंत्री रहते जगन्नाथ पुरी गए थे। पंडों ने दलित होने के कारण मंदिर में जाने से रोक दिया। उन्होंने वहीं पर विरोध स्वरूप बड़ी सभा की। याद रहे मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को 18 मार्च 2018 को उसी जगन्नाथपुरी में जाति के कारण अपमानित किया गया था लेकिन वो संघी संस्कार के कारण चुप रहे। (पेज 136)
बाबू जी मानते थे कि अत्याचार सिर्फ़ क़ानून से नहीं मिटाया जा सकता। जिस पर अत्याचार हो रहा है वो अत्याचारी से कुछ बदला ले सके, ऐसी जागृति पैदा की जाए, तभी अत्याचार रुकेगा (पेज 138). कमज़ोर वर्गों के सामूहिक हत्यकांडों जो तब के बिहार में आम थे, पर उनका मानना था कि इन कमज़ोर वर्गों के चुनिंदा युवकों को आत्मरक्षार्थ सरकारी खर्च पर हथियार और प्रशिक्षण देना चाहिए। (पेज 141)
'जगजीवन राम और धार्मिक अल्पसंख्यक' अध्याय मुसलमानों के प्रति बाबू जगजीवन राम के नज़रिए को रखता है। 1971 के युद्ध के समय वो रक्षामंत्री थे। उन्हें बहुत लोग सलाह देते थे कि मुस्लिमों को अगली कतार में मत रखिये। 'मैंने एक मुस्लिम बहुल बटालियन को सबसे आगे शंकरगढ़ में भेजा। क्योंकि मुझे मुसलमानों की देशभक्ति पर संदेह नहीं था। मैं लड़ाई जीतना चाहता था। यह दिखा कर कि पाकिस्तान का मुसलमान पाकिस्तानी है और हिंदुस्तान का मुसलमान हिंदुस्तानी होता है।' (पेज 213)
धर्मांतरण पर बाबू जगजीवनराम के विचार क्रांतिकारी और वैज्ञानिक थे। 'अधिकांश उच्च जातियों की मानसिकता छोटी जातियों के प्रति उनके पूंजी सम्पति की तरह है। वे नाम मात्र के पारिश्रमिक पर सेवक के रूप में उनका उपयोग करते हैं। वे नहीं चाहते कि उनके सेवक उनसे मुक्त हों। इसलिए वे धर्म परिवर्तन का कड़ा विरोध करते हैं। धर्मांतरण के खिलाफ़ कड़े क़ानून बनाने की मांग करते रहते हैं। यह तो ऐसी बात है कि अत्याचारी को सज़ा देने के बजाए पीड़ित को दंडित करने का क़ानून बनाया जाए। संविधान ने प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी दी है। जो सरकार धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए क़ानून बनाती है वो अपनी निष्पक्षता खो चुकी होती है संविधान विरुद्ध कार्य करती है। जिस धर्म के पक्ष में क़ानून बनता है वह धर्म अपनी उपयोगिता खोता जाता है। (पेज 225)
अंबेडकर की तरह ही हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना को खारिज करते थे। कब रहा है हिंदू राष्ट्र? कब हिंदू के रूप में लोगों की स्वाभाविक पहचान रही है? किसी से पूछो कौन हो? वह कहेगा ब्राम्हण हूँ, राजपूत हूँ, बनिया हूँ, चमार हूँ। यदि कोई अपने को हिंदू कहता है तो लोग तत्काल पूछते हैं कि कौन जाति के हो। यहाँ किसी शासक समूह ने ख़ुद को हिंदू कहा। यहाँ तो जातियों का शासन रहा है। यहाँ हिंदू राष्ट्र कभी नहीं था। यहाँ हिंदू मानव की भावना कभी नहीं रही है। (पेज 219)
हालांकि अंबेडकर की तरह बाबू जी धर्मांतरण को जाति समस्या का हल नहीं मानते थे। वो कहते थे कि इस देश में आ कर हर धर्म की पोल खुल जाती है। सब जातिवादी हो जाते हैं।
'जगजीवन राम की दृष्टि में डॉ अंबेडकर' एक विचार उत्तेजक अध्याय है। 1983 में मद्रास में डॉ अंबेडकर जन्म दिवस समारोह में भाषण देते हुए जो कुछ उन्होंने कहा उस पर अंबेडकर के अनुयायियों को सोचना चाहिए। अंबेडकर की अस्मितावादी व्याख्या पर टिका नैरेटिव किस तरह संघ के हिंदुत्ववादी विचार में समाहित हो रही है इसका इशारा उन्होंने बसपा के बनने से पहले ही कर दिया था।
'डॉ अंबेडकर ने घोषणा की थी कि मैं हिंदू के रूप में पैदा हुआ, परंतु हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा। इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया। अब साज़िश यह चल रही है कि बौद्ध भी हिंदू हैं। यह बात विभिन्न मंचों से प्रचारित की जा रही है। किसी भी धर्म परिवर्तित बौद्ध ने सवर्णों की इस चाल का विरोध नहीं किया। यह सिद्ध करना कि डॉ अंबेडकर एक हिंदू के रूप में ही मरे, यह उनका सबसे बड़ा अपमान है और इसी आधार पर आरएसएस के लोग अनुसूचित जाति के लोगों को उत्साहित करते हैं कि यदि धर्म परिवर्तन करना है तो बौद्ध बन जाओ, दूसरे धर्म की बात मत सोचो, क्योंकि उनके सिद्धांत के मुताबिक बौद्ध बनने के बाद भी वह व्यक्ति हिंदू संस्कृति की चारदिवारी में बन्दी बना रहता है। (पेज 263)
बसपा का बार-बार भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाना, 2002 के मुस्लिमों के जन संहार के बाद मोदी का गुजरात में प्रचार करना, ट्रिपल तलाक़, सीएए-एनआरसी, 370 पर भाजपा के साथ खड़ा होना, 2014, 2017, 2019 और 2022 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उसके कोर वोटरों का उत्तरोत्तर संघ-भाजपा में समाहित होते जाना जगजीवन राम जी के दृष्टिकोण से देखने पर सब कुछ एक बड़े खेल का हिस्सा लगता है। लेकिन खेल में बाज़ी पलट भी सकती है। जो ऐसा चाहते हैं उन्हें यह पुस्तक पढ़नी चाहिए। Amazon पर है। याद्दाश्त पर ज़ोर डालिए। आपको याद आयेगा कि जैसे-जैसे हिंदी पट्टी की राजनीतिक दीवार से बाबू जगजीवन राम की तस्वीर ओझल होनी शुरू हुई वैसे-वैसे ही भाजपा और उसमें समाहित होने वाली दलित अस्मितावादी राजनीति का उभार भी शुरू हुआ था।
उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के अध्यक्ष शाहनवाज आलम की फेसबुक टिप्पणी किंचित् संपादन के साथ साभार।
Web title : Jagjivan Ram and his Leadership: Important book on the relationship between Jagjivan Ram and Ambedkar