पिछले ही दिनों, कश्मीर के सभी प्रमुख राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारी के पांच महीने पूरे होने पर, मोदी सरकार और सत्ताधारी भाजपा के महत्वपूर्ण प्रवक्ताओं के मुंह से बार-बार यह सुनने को मिला था कि इमर्जेंसी में तो नेताओं को उन्नीस महीने जेल में बंद रखा गया था। यह एक प्रकार से इसका इशारा था कि इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी के दमन को मोदी-शाह की सरकार वह मानक मानकर चल रही है, जहां तक जाने में उसे हिचक नहीं होगी। लेकिन, सीएए के विरोध को दबाने के लिए मुख्यत: भाजपा-शासित प्रदेशों में और उसमें भी खासतौर पर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पिछले लगभग तीन हफ्तों में जो कुछ हुआ है, उससे ऐसा लगता है कि मौजूदा शासकों ने इमर्जेंसी को भी बहुत पीछे छोड़ दिया है। इस सिलसिले की शुरूआत, जामिया और अलीगढ़ विश्वविद्यालयों से हुई थी और जेएनयू पर 5 जनवरी को दोपहर बाद से लेकर देर शाम तक चले धावे के बाद, तो बेहिचक यह कहा जा सकता है कि इमर्जेंसी, इस राज से कहीं बेहतर थी।
पहला तो यही कि 2020 की जनवरी की शुरूआत में जेएनयू समुदाय पर, जिसमें छात्र, शिक्षक तथा कुछ सुरक्षा-कर्मचारी भी शामिल हैं, जैसा भयानक कातिलाना हमला हुआ है, उसके सामने 1975 के जून से 1977 के आरंभ के बीच की पुलिस-प्रशासन की सारी कार्रवाइयां, हल्की सी चपक से ज्यादा नहीं लगती हैं। यह तब था जबकि जेएनयू समुदाय और खासतौर पर छात्र आंदोलन, इंदिरा गांधी के निजाम की आंख की
बेशक, इमर्जेंसी में जेएनयू में भी गिरफ्तारियां हुई थीं और एक विश्वविद्यालय के लिहाज से शायद दूसरे विश्वविद्यालयों से ज्यादा ही गिरफ्तारियां हुई थीं। इमर्जेंसी के लगभग शुरूआती दौर में पुलिस ने एक रात को छात्रावासों को घेरकर, कमरे-कमरे छात्र नेताओं की तलाशी भी ली थी और अपनी सूची के हिसाब से कई गिरफ्तारियां भी की थीं। इमर्जेंसी के दौरान ही छात्रों की तीन दिन की हड़ताल के दौरान, उस समय के राजकुमार, संजय गांधी की पत्नी मनेका गांधी को कक्षा में जाने से छात्रों द्वारा रोके जाने के बाद, बड़ी संख्या में परिसर में सादी वर्दी में घुसी पुलिस की मदद से, पुलिस अधिकारियों द्वारा एक छात्र का दिन दहाड़े एक तरह से अपहरण ही कर लिए जाने जैसी अकल्पनीय घटना भी हुई थी और उस छात्र को इमर्जेंसी की शेष पूरी अवधि मीसा में बंद रहना पड़ा था।
बेशक, जेएनयू के छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष, देवीप्रसाद त्रिपाठी (जिनका हाल ही में निधन हो गया) को भी गिरफ्तार किया गया था और डीआइआर में महीनों जेल में रखा गया था। लेकिन, जैसा बाद में खुद त्रिपाठी ने, जो अपनी कमजोर काया में ओजपूर्ण वाणी के लिए विख्यात थे, बताया था, गिरफ्तारी के बाद जब उन्होंने अपने पकड़ने वालों से पूछा था कि क्या उन्हें ‘थर्ड डिग्री’ की यातना के लिए तैयार रहना चाहिए, दूसरी ओर से हंसी के साथ जवाब मिला था कि ‘हम अपने सिर हत्या का पाप क्यों लेना चाहेंगे?’
जरा इसकी तुलना 5 जनवरी 2020 को जेएनयू परिसर में शासन-विश्वविद्यालय प्रशासन-संघ परिवार की तिकड़ी ने जो किया और कराया, उससे कर के देख लें।
सौ से ज्यादा, कुछ अनुमानों के अनुसार डेढ़ सौ तक, नकाबपोश हमलावरों के हथियारबंद गिराहों ने, शुरू से पुलिस की मौजूदगी में बल्कि वास्तव में उसकी मदद से जो घातक हिंसा की, जिसकी तस्वीरें टेलीवीजन चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक में छायी हुई हैं, उसमें न सिर्फ प्रोफेसरों समेत दो-दर्जन से ज्यादा छात्र बुरी तरह से घायल हुए हैं, छात्र संघ की अध्यक्षा, आइशे को छांटकर लोहे की रॉड से प्राणघातक हमले का निशाना बनाया गया है। उनके सिर पर सोलह टांके आए हैं। डाक्टरों के अनुसार, सरिए की चोट में जरा सा और जोर होता, तो उनका सिर फट गया होता और कुछ भी हो सकता था।
इमर्जेंसी में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष, त्रिपाठी को पकड़ने वालों को इसका ख्याल था कि उसे सुरक्षित रखना है। मोदी-शाह निजाम में त्रिपाठी जैसी ही कद-काठी की आइशे घोष को निशाना बनाने वालों की कोशिश थी कि ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाना है।
इमर्जेंसी में भी संजय गांधी और उनकी यूथ ब्रिगेड थी। यूथ कांग्रेस की गुंडागर्दी के तब काफी चर्चे थे। एनएसयूआइ की तब जेएनयू के छात्रों के बीच उतनी भी हैसियत नहीं थी, जितनी आज एबीवीपी की है। फिर भी, कम से कम जेएनयू पर इमर्जेंसी के हिस्से के तौर पर हुए किसी भी हमले में, न वैसी नकाबपोश पलटन थी, जैसी पलटन को 5 जनवरी 2020 को परिसर में उतारा गया, न पुलिस तथा विश्वविद्यालय प्रशासन की वैसी भूमिका थी, जिन्होंने हथियारों से लैस सौ से ज्यादा बाहरी लोगों को परिसर में घुसाया, और न ‘गोली मारो सालों को’ के नारे लगाती वैसी कोई कानूनी हमलावर भीड़ थी, जैसी भीड़ ने पुलिस के साथ परिसर का मुख्य गेट घेर रखा था, ताकि भीतर उनके नकाबपोश साथी, आराम से अपना ‘काम’ कर सकें। और उन्होंने सचमुच आराम से ही अपना काम किया, तीन-चार घंटे तक और फिर उतने ही आराम से निकल भी गए। उनकी समर्थक भीड़ ने घायलों की मदद के लिए पहुंची एंबुलेंसों को भी हमले का निशाना बनाया।
इमर्जेंसी में अगर प्रशासन के दमनकारी बाजू यानी पुलिस का इस्तेमाल था, तो आज उसके साथ संगठित भीड़ की हिंसा का हथियार और जोड़ दिया गया है। विरोध की आवाजों के खिलाफ शासन के इशारे पर की जा रही हिंसा का यही फासीवादी चरित्र है, जो मौजूदा हालात को इमर्जेंसी से गुणात्मक रूप से बदतर बनाता है।
वैसे तो जेएनयू, मोदी राज के कायम होने के बाद से ही भीषण निशाने पर और वैचारिक या कानूनी ही नहीं, भगवा भीड़-हमलों के भी निशाने पर रहा है। लेकिन, हमलों के मौजूदा चक्र की शुरूआत, होस्टल फीस में मनमाने तरीके से और बेतहाशा बढ़ोतरी के खिलाफ, छात्रों के सफल आंदोलन को तोड़ने की, सत्ताधारी संघ-परिवार के छात्र संगठन और विश्वविद्यालय प्रशासन व सरकार की कोशिशों से हुई है। यह दमन, सिर्फ राजनीतिक विरोध की आवाज को नहीं बल्कि आम आदमी के हित की हरेक आवाज को कुचलने के लिए है। अमित शाह जी, इससे अच्छा तो आप इमर्जेंसी ही लगा दो।
0 राजेंद्र शर्मा