आज सुबह आंख खुलते ही दो पत्रकार साथियों के द्वारा भेजे गये मैसेज को पढ़ता हूँ। पहला संदेश देवघर जिला के मधुपुर के पत्रकारों (Journalists of Madhupur in Deoghar district) का होता है जिसमें दो पत्रकारों के ऊपर मधुपुर थाना में FIR दर्ज होने की जानकारी दी जाती है, दोनों ही पत्रकारों पर इसलिये FIR दर्ज किया जाता है कि वे लॉकडाउन के उल्लंघन को लेकर समाचार (News regarding lockdown violation) प्रकाशित करते हैं।
दूसरा संदेश साहेबगंज से होता है जहाँ एक ऑडियो संदेश के साथ यह जानकारी दी जाती है कि दो पत्रकारों द्वारा किस तरह लोगों को उकसा कर लॉकडाउन का मखौल उड़ाने के लिये सड़क पर उतरने के लिये प्रेरित किया जाता है।
दो अलग अलग संदेश दोनों ही मामलों में मीडियाकर्मियों पर मामला दर्ज किया जाता है।
मधुपुर के दो पत्रकार साथियों पर मामला इसलिये दर्ज किया जाता है कि वे एक प्राइवेट कंपनी द्वारा लॉकडाउन के नियमों के उल्लंघन को लेकर समाचार प्रकाशित करते हैं। कंपनी प्रबंधन की ओर से मधुपुर थाना को आवेदन दिया जाता है और यह जानते हुये भी कि प्रबंधन द्वारा झूठा आवेदन दिया जारहा है थाना प्रभारी FIR दर्ज कर लेते हैं।
प्रखंड विकास पदाधिकारी द्वारा आवेदन के साथ एक ऑडियो क्लिप भी दिया जाता है जिसमें दो पत्रकार ग्रामीणों को लॉकडाउन तोड़ने के लिये उकसा रहे होते हैं।
दोनों ही पत्रकार हैं, एक कानून तोड़ने वालों की खबर बना रहे होते हैं तो दूसरा कानून तोड़ने के लिये ग्रामीणों को उकसाने का कार्य कर रहा होता है। पहले मामले में कानून
आज मीडिया में दो तरह के लोग हैं, एक वह हैं जो आज भी पत्रकारिता की साख (Journalistic credentials) बचाये रखने के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हैं, दूसरे वह हैं जो मीडिया का टैग लगाकर हर वह कार्य कर रहे हैं चाहे वह नैतिक हो या अनैतिक।ऐसे मीडियाकर्मी केवल मधुपुर और साहेबगंज में नहीं हैं, वे मुंबई और दिल्ली में भी हैं वह गाज़ियाबाद और मुरादाबाद में भी हैं।
एक मशहूर कहावत है 'गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है’ आज सोशल मीडिया के इस दौर में अगर कोई सबसे अधिक निशाने पर है तो वह है मीडियाकर्मी।
मीडिया जो स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता है, जिसका कार्य लोकतंत्र के तीनों स्तंभ की निगरानी करना है आज पूरी तरह से चरमरा गया है।
सोशल मीडिया के साथ साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर आज यह समाचार दिन भर ट्रोल करता रहा कि देखिये किस तरह साहेबगंज में दो मीडियाकर्मियों द्वारा सरकार को बदनाम करने के लिये षड्यंत्र रचा गया। इस खबर के ट्रोल करने के साथ उन दो पत्रकारों की खबर कहीं दफन हो जाती है जिसने लॉकडाउन के उल्लंघन को लेकर अपनी जान हथेली पर रख कर खबर बनायी और बदले में उन दोनों पत्रकारों के ऊपर झूठा FIR दर्ज किया जाता है।
आज दिन भर झारखण्ड में एक न्यूज़ चैनल इस खबर को प्रमुखता से चलाते रहे जिन पर गलत खबर चलाकर सांप्रदायिकता फैलाने का गंभीर आरोप उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा लगाया गया था, जिसके बाद उस चैनल ने उस फर्जी खबर को अपने सभी सोशल मीडिया लिंक से हटा दिया था। खबरिया चैनल की TRP का सवाल था क्योंकि मामला मुख्यमंत्री से जुड़ा हुआ था। फिर ऐसे में उन दो पत्रकारों की खबर की क्या अहमियत हो सकती है जिन्हें सच लिखने की सज़ा झूठे मुकदमे के रूप में मिलती है।
मीडिया शब्द सुनते ही जहाँ लोगों के मन में सम्मान की भावना आती थी वहीं आज पत्रकार सार्वजनिक रूप से स्वयं को पत्रकार कहने से अब कतराने लगे हैं।इसे समझने के लिये मैं आप सभी से अपने एक अनुभव को साझा कर रहा हूँ।
कुछ वर्ष पूर्व मेरे दिल्ली के एक पत्रकार मित्र जो उन दिनों दिल्ली में एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल से जुड़े होते हैं मुझे दूरभाष पर कहते हैं कि आप के लिये हमने बात कर ली है आप हमारे चैनल के लिये बिहार झारखण्ड हेड के रूप में दिल्ली आकर जॉइन कर लें। बड़ा चैनल था इसलिये मैं ने मीडिया हाउस में कहीं नौकरी न करने की कसम(इस विषय पर कभी फुर्सत से लिखूंगा कि मैं किसी मीडिया हाउस में नौकरी नहीं करने की कसम किस लिये खायी थी, जिस कसम पर आज भी मैं सख्ती से क़ायम हूँ) के कारण थोड़ा असमंजस में था, इसलिये अपने शुभचिंतकों के कहने पर आधे अधूरे मन से दिल्ली नोयडा स्थित चैनल के आलीशान दफ़्तर पहूंचता हूँ। मुझे मेरे मित्र बताते हैं जिस कुर्सी पर वह आज बैठे हैं पिछले सप्ताह तक उनके जॉइन करने से पूर्व विनोद दुआ बैठा करते थे।
मुझे आलीशान बहुमंजिला दफ्तर दिखाया जाता है जहाँ लगभग 300 से अधिक मीडियाकर्मी काम कर रहे होते हैं। चाय कॉफी के बाद मुझे मेरे मित्र चैनल के चेयरमैन के चैंबर में ले जाते हैं। मेरे बारे में मेरे मित्र चैयरमैन को पहले ही सब कुछ जानकारी दे दी होती है।
चेयरमैन बहुत विनम्रता से सारी बात करते हैं और प्रबंधन से जुड़े एक व्यक्ति को बुलाकर एक अग्रीमेंट बनाने के लिये कहते हैं। मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या आप के चैनल में नियुक्ति पत्र के स्थान पर अग्रीमेंट किया जाता है। चेयरमैन के चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान आती है वह कहते हैं लगता है आप को चैनल के सम्बंध में पूरी जानकारी नहीं दी गयी है।
मैं चेयरमैन से कहता हूं थोड़ा स्पष्ट कहें कि मुझे आप दो राज्यों का अपने चैनल का प्रमुख बना रहे हैं तो मुझे आप वेतन क्या देंगे।
मेरे इस प्रश्न से वह एकदम से मुझ पर भड़क जाते हैं और मेरे मित्र से कहते हैं पहले आप इन्हें पूरी बात समझायें उसके बाद मेरे पास आयें।
मेरे मित्र मुझे लेकर अपने चैंबर में आते हैं और मुझ से चैनल का फंडा समझाते हैं। वह कहते हैं हजारों करोड़ का चैनल है उसके अपने खर्चे हैं इसलिये अब पत्रकारों को वेतन पर नहीं रखा जाता है बल्कि उन्हें चैनल में साझेदारी दी जाती है।
मैं भी हैरान था हजारों करोड़ के चैनल में साझेदारी की बात हो रही थी। मेरे मित्र ने बताया कि मुझे चैनल को प्रतिवर्ष 2 करोड़ रुपये देने होंगे और प्रसारण से लेकर सभी पत्रकारों के वेतन का भुगतान मुझे ही करना होगा। मैं अपने मित्र पर भड़क उठा, मैं ने कहा यह पैसे मेरे पास कहाँ से आयेंगे, चैनल का प्रसारण पत्रकारों का वेतन और चैनल मालिक को पैसे कहाँ से दूंगा। वह मुझे समझाने लगे आप टेंशन नहीं लें सब मैनेज हो जायेगा, इतने पैसे तो चतरा और धनबाद से ही आप के पास आजायेंगे।
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ लंबे समय से मैं अपना साप्ताहिक समाचार पत्र बहुत मुश्किल से गिरते पड़ते प्रकाशित कर रहा था, मुझे वह पैसे क्यों नहीं मिल रहे थे। जब मेरे मित्र ने बताया कि वह पैसे कैसे आयेंगे तब उस पल मुझे यह लगा कि क्या पत्रकारिता करने के लिये हमें इस स्तर तक गिरना होगा, क्या सभी ऐसा ही कर रहे हैं।
मैं ने अपने मित्र का आभार व्यक्त किया और दिल्ली से रांची वापस आगया।मेरे मित्र मुझे सलाह दे रहे थे कि झारखण्ड में पैसों की कोई कमी नहीं है मुझे कोल् माइंस से ही इतने पैसे मिल जायेंगे जिस से चैनल का सारा खर्च मैं आसानी से उठा पाऊंगा।आज इस तरह के खबरिया चैनल पत्रकारों को इस आधार पर ही रखते हैं कि आप उन्हें कितना बिज़नेस देंगे।उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं होता वह पत्रकार उन्हें वह पैसे लाकर कहाँ से देगा।
ऐसे पत्रकारों के लिये नैतिकता के क्या मायने हो सकते हैं, वह सुबह घर से समाचार की तलाश में नहीं निकलते उन्हें तलाश होती है ऐसे बकरों की जो उन्हें आर्थिक रूप से मिले लक्ष्य को पूरा करने में सहायक हो सके। कुछ दो चार अपवाद अवश्य होते हैं।
मीडिया की गिरती साख के लिये मैं बार-बार यही कहता आया हूँ कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू यही है, पिछले दो दशक में जब से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बाढ़ दिखाई दे रही है मीडिया अपने मूल उद्देश्य से पूरी तरह भटक चुकी है। और इसका खमियाजा उन पत्रकारों को भुगतना पड़ता है जो आज भी पूरी ईमानदारी से सरोकार की पत्रकारिता कर रहे हैं।
आज दूसरी सबसे बड़ी चुनौती डिजिटल मीडिया यूट्यूब एवं वेबपोर्टल हैं। केंद्र सरकार की ओर से अबतक डिजिटल मीडिया के लिये नियमावली नहीं बनाई गयी है।पांच से दस हजार रुपये देकर वेबपोर्टल बनाकर पत्रकार का टैग लगाकर स्वयं को पत्रकार घोषित कर दे रहे हैं।
तीसरी वजह अंचल के वैसे पत्रकार है जो शुद्ध रूप से पत्रकारिता करते हैं और जिनके आय का कोई दूसरा स्रोत नहीं होता। ऐसे पत्रकारों की संख्या बहुत कम है लेकिन वे हर प्रखंड में मौजूद है। प्रबंधन की ओर उन्हें वेतन के नाम पर दो से पांच हजार रुपये दिये जाते हैं और कई ऐसे भी हैं जो निशुल्क कार्य कर रहे हैं।
पत्रकारिता की साख को बचाना है तो हमें अपने अंदर आयी इन कमियों को दूर करना होगा। पत्रकारिता को जबतक मिशन थी तब तक उस पर कोई उंगली नहीं उठती थी, आज यह प्रोफेशन बन गयी है जिसके कारण अपने सिद्धांतों से दूर हो गयी है। पत्रकारिता को धंधा बना लिया गया है और इसे हर अच्छे बुरे कार्यो के लिये उपयोग किया जारहा है। पत्रकारिता में आयी इस गिरावट के भुक्तभोगी वे होते हैं जो आज भी पत्रकारिता को मिशन बनाकर पूरी ईमानदारी से चौघे स्तंभ की रक्षा के लिये कार्य कर रहे होते हैं। कहीं उन्हें बालू माफियाओं द्वारा ट्रक से कुचलवा दिया जाता है तो कहीं उनपर झूठे मुकदमे दर्ज कर जेल भेज दिया जा रहा है।
पत्रकारिता की साख को बचाये रखना है तो हम पत्रकारों को एक लकीर खींचनी होगी, लकीर के उस पार जो होंगे वे पत्तलकार होंगे, और आप उस लकीर को जबतक पार नहीं करेंगे तबतक आप का मान सम्मान भी बना रहेगा और पत्रकारिता पर लोगों का विश्वास भी क़ायम होगा।
शाहनवाज़ हसन
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं साथ ही भारतीय श्रमजीवी पत्रकार संघ के राष्ट्रीय संगठन सचिव एवं झारखण्ड जर्नलिस्ट एसोसिएशन के संस्थापक हैं)