Hastakshep.com-आपकी नज़र-Jugnu Shardeya-jugnu-shardeya-जुगनू शारदेय-jugnuu-shaardey

देह छोड़ दिया जुगनू शारदेय ने. उससे पहले उस देह की जितनी दुर्गति करानी थी, कराई. लावारिस थे, चुनांचे पंचतत्व में विलीन नहीं किये गए. फूँक दिया किसी ने उस अनधियाचित शरीर को. पहचान भी लिये जाते कि ये पत्रकार जुगनू शारदेय हैं, तो कौन सा बिहार सरकार बंदूकों की सलामी और राजकीय सम्मान के साथ उनका दाह संस्कार करती?

आज उनका FB पेज खंगाल रहा था. 5 अक्टूबर 2020 की पोस्ट में लिखा Jugnu Shardeya, Once again old age home and I believe it is my last journey. Thanks

1986 में पहली बार पटना के डाकबंगला चौराहे पर उनसे मुलाक़ात हुई थी. जलवे थे जुगनू शारदेय के. घिरे रहते थे सत्ता के गलियारे वालों से और पुरानी-नई पीढ़ी के पत्रकारों से. "उनके जमाले रुख़ पे उन्हीं का जमाल था. वो चल दिए तो रौनक़े शामों-सहर गई."

उस दौर में दिनमान-धर्मयुग में छपना मानीखेज़ हुआ करता था. जेपी मूवमेंट के ज़माने में जुगनू शारदेय के शब्द भेदी वाणों से सत्ता हिलती थी. समाजवादी धारा वाले पत्रकार के रूप में उनकी पहचान थी. दिनमान या माया में कभी-कभार मेरे आलेख देखकर फोन करते और हौसला आफज़ाई करते.

1990 के बाद बिहार से कश्ती जलाकर मैं वापिस दिल्ली आ चुका था, और जुगनू शारदेय मायानगरी मुंबई की ओर निकल चुके थे. राजनीतिक लेखन वाला कितना टिकता बॉलीवुडिया पटकथा लेखन में? ऊपर से स्वाभिमान प्लस कठोर ज़ुबान. नहीं टिके वहां भी.

कोई तीन दशक बाद, कोविड से कुछेक महीने पहले फोन की घंटी बजती है, "जुगनू शारदेय बोल रहा हूँ. आ रहा हूँ कल मिलने, पता मैसेज कर दीजिये."

दुनिया बदल गई मगर इस इंसान में कोई बदलाव नहीं देखा. मुंहफट, विद्रोही

तेवर, स्वाभिमान और आग उगलती ज़ुबान. और इन सब से जो सर्वाधिक भयावह बीमारी को जो ढो रहे थे, वो थी मुफलिसी. फिर भी जीने का फक्कड़ अंदाज़ जैसे जुगनू शारदेय की ताक़त बन चुका था.

एक आमंत्रण कार्ड लेते आये थे, गांधी शांति प्रतिष्ठान में किसी आयोजन का. राम बहादुर राय चीफ गेस्ट थे. "आपको ख़ुसूसन बुलाया है राय साहब ने, चलना होगा." मैंने विनम्रता से मना किया. साथ में लंच किया और उन्हें बस स्टॉप तक छोड़ने आया. दो घंटे की मुलाक़ात में यथावत मैगज़ीन की अंतर्कथा बताते रहे. तीसरे दिन फोन आया, "कवर स्टोरी लिखनी है आपको. राय साहब से तय हो गई सम्पादकीय मीटिंग में."

मैंने कहा, "आप मेरे लिखने का ढब जानते हैं. आपकी मैगज़ीन से मैच नहीं करता."

जैसे ठान रखी हो कि लिखवाना है. रोज़ ब रोज़ फोन. अंततः 'यहूदी मीडिया की भारत में भूमिका' पर दो हज़ार शब्दों का आलेख मेल कर दिया. मगर, मैं जानता था, कोई संपादक अपनी नौकरी की क़ीमत पर नहीं छापेगा इसे. जुगनू शारदेय का मन रखना था, तो मना कैसे करता?

जुगनू शारदेय शर्मिंदा थे, और तपे हुए थे. उनके तथाकथित सांसद मित्र जो न्यूज़ एजेंसी व मैगज़ीन के मालिक थे, उनसे भी ठन चुकी थी. एक दिन दफ़अतन फोन आता है, " पुष्परंजन मैंने इस्तीफा दे दिया. अब लौट जाना है बिहार."

मैंने समझाया भी, "मेरी वजह से ऐसा कर रहे हैं तो ग़लत फैसला है. ये सब चलता रहता है. आपके लिये किसी जगह बात करता हूँ. "तीसरे दिन स्टेशन से फोन किया, "जा रहा हूँ अपने शहर."

पटना से कभी-कभार उनका फोन आता. वो भी कोविड के कालखंड में बंद हो गया. फिर अपने फेसबुक पेज पर उनका लाइक देखता, बस यही संतोष था कि अपनों के बीच उनकी स्वीकार्यता हो गई है. मगर, यह ख़बर मेरे लिये अकल्पनीय थी कि वो शख्स महीनों से दिल्ली में था, फिर लक्ष्मीनगर में किसी पुलिसवाले ने वृद्धाश्रम में भर्ती करा दिया, बीमार हुए और लावारिस देह त्याग दिया.

इन परिस्थितियों के लिये क्या केवल वो शख्स ज़िम्मेदार था, या उसका परिवेश-समाज और सरकार भी? बिहार सरकार साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वाले अभावग्रस्त लोगों की मदद के वास्ते कभी कोई कोष सृजित करेगी? हालाँकि मोटी खाल वाले हैं सब के सब. मरा हुआ समाज और संवेदनहीन सरकार के समक्ष यह बात भी आई-गई हो जाएगी.

अभी मैं प्रमोद बेरिया की कविता पढ़ रहा था-

एक आदमी मर गया

पत्नी ने, जो नब्ज देखना

नहीं जानती थी,देख कर कहा

ऐसे थोड़ी होता है, देखो

नब्ज तो चल रही है

बेटा नब्ज देखना जानता था

उसने मां को देखा, फिर नब्ज और कहा

लेकिन धड़कने चल रही है

देखो छाती पर कान लगा कर सुनो

पास-पड़ौस के लोग आए

उन्होंने भी कहा-ऐसे कोई थोड़ी मरता है

लगता है योगनिद्रा में हैं, ये तो यह सब

करते थे, यह मृत्यु नहीं है

मैं खड़ा था, मैं नब्ज और धड़कनें

देख चुका था, मैं जानता था

वह आदमी मर चुका था

मैं कहना चाहता था कि

आजकल आदमी ऐसे ही

घबड़ा कर मरते हैं

लेकिन कह नहीं पाया ॥

पुष्परंजन

pushpranjan

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