साहित्य और पत्रकारिता की क्या भूमिका होनी चाहिये (What should be the role of literature and journalism), इसे समझने के लिए युवाजनों को यह अंक जरूर पढ़ना चाहिए।
पहली बार सम्पादकीय में प्रूफ की इतनी गलतियां देख रहा हूँ। ऐसा कभी नहीं हुआ। लॉक डाउन की वजह से गैर व्यावसायिक जनपक्षधर प्रकाशन कितना मुश्किल होता है, हम भुक्तभोगी हैं। लेकिन समयांतर जैसी पत्रिका निकालना कितना कठिन है, इन गलतियों की पृष्ठभूमि समझते हुए महसूस कर रहा हूँ।
पंकज बिष्ट कभी विशुद्ध साहित्यकार नहीं रहे।
समयांतर में उनका सम्पादकीय हमेशा की तरह दृष्टि समृद्ध सामाजिक यथार्थ का दर्पण है।
लेकिन उनका यह लेख मुझे बंगाल के अकाल के दौरान चित्तप्रसाद और सोमनाथ होड़ के चित्रों की तरह जिंदा लग रहा है, जिसकी दृष्टि और संवेदना हमारे मर्म को भेद रही है।
जैसे चित्त प्रसाद और सोमनाथ होड़ के चित्र विशुद्ध कला नहीं है। हम प्रेरणा अंशु के जुलाई अंक में भूख की चित्रकला पर अशोक भौमिक का लेख छाप रहे हैं।
साहित्य और कला आम जनता की सम्पत्ति है और इसे नकार कर, इसमें उसकी भागेदारी को खारिज करके विशुद्धता की बात करने वाले भी बौद्धिक फासिस्ट होते हैं।
पंकज दा हिंदी के बड़े कथाकार हैं और इसीलिए इस समय को उन्होंने इतने जीवंत तरीक़े से चित्रित कर सके हैं और साथ ही जरूरी सवालों को उठाते हुए मानवीय संवेदना को झकझोर सके हैं।
सम्पादकीय हमारे सम्पादक वीरेश कुमार सिंह भी बढ़िया लिख रहे हैं और हर अंक के साथ निखर रहे हैं। लेकिन ऐसी अलौकिक लौकिक सामाजिक यथार्थ का चित्रण शायद अकेले पंकज बिष्ट जैसे लोग ही कर सकते हैं। पंकजदा के लिए बहुत अच्छा महसूस कर रहा हूँ।
साहित्य और पत्रकारिता को जनता के पक्ष में खड़ा देखना चाहते हैं, उन्हें समयांतर का यह अंक जरूर पढ़ना चाहिए।
पलाश विश्वास