भारतवर्ष विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र (World's largest democracy) है और हम गर्व करते हैं कि हमारा संविधान वृहद और परिपूर्ण है, फिर भी हम देखते हैं कि जनहित के नाम पर अक्सर ऐसे कानून बन जाते हैं जो असल में जनविरोधी होते हैं। श्रीमती इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं तो उन्होंने राष्ट्रपति के अधिकार सीमित करके वह एकमात्र अड़चन भी दूर कर ली जिससे उन पर थोड़ा-बहुत अंकुश लगना संभव था। उसके बाद धीरे-धीरे स्थिति बद से बदतर होती गई और कानून क्या बने, उसकी धाराएं क्या हों, यह शासक वर्ग पर निर्भर होता चला गया। सार्थक बहस का स्थान कानफोड़ू शोर ने ले लिया और बजट भी अव्यवस्था और कोलाहल के बीच पास होने लग गया। सदन का स्थगन स्थापित परंपरा में बदल गया और कोरम पूरा करके सदन की कार्यवाही चलाने के लिए सांसदों को घेर कर लाने की आवश्यकता पड़ने लगी। परिणामस्वरूप संसद में पेश बिल बिना किसी जांच-परख के ध्वनि मत से पास होने लगे।
आंकड़ों की बात करें तो सन् 1990 में चंद्रशेखर की सरकार ने दो घंटे से भी कम समय में 18 बिल पास कर दिये। सन् 1999 में सदन की कुल 20 बैठकें हुईं लेकिन उनमें 22 बिल पास कर दिये गए। सन् 2001 में 32 घंटों में 33 बिल पास हो गये। सन् 2007 में लोकसभा ने 15 मिनट में तीन बिल पास कर दिये। इन डरावने आंकड़ों का कारण और मतलब समझना आवश्यक है।
श्रीमती इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने श्री राजीव गांधी ने दलबदल विरोधी कानून बनवा लिया। परिणाम यह हुआ कि सांसदों के लिए दल के मुखिया से असहमत होना असंभव हो गया। दल की नीति के अनुसार वोट देना कानून
खेद की बात यह है कि राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत होकर गज़ट में नोटिफाई हो चुके कानूनों में ऐसी खामियां अब भी जारी हैं। कहीं वर्तनी (स्पैलिंग) गलत है तो कहीं वाक्य-विन्यास (सिन्टैक्स) का कबाड़ा है और कहीं-कहीं पंक्चुएशन मार्क्स की गड़बड़ी के कारण कानून का वह मंतव्य ही बदल गया है जिसकी खातिर उसे पेश किया गया था।
दलबदल विरोधी कानून के कारण जब सत्तापक्ष के ही सदस्यों की भूमिका शून्य हो गई, वे सिर्फ कोरम पूरा करने और मेजें थपथपाने के लिए रह गए तो विपक्ष की स्थिति कितनी दयनीय है, यह बताने की आवश्यकता ही नहीं है। विपक्ष कोई कानून बनवा नहीं सकता, रुकवा नहीं सकता, उसमें संशोधन नहीं करवा सकता, फिर वह अपनी उपस्थिति कैसे दर्ज करवाये? मीडिया को और जनता को अपनी मौजूदगी दिखाने के लिए विपक्ष शोर-शराबे पर उतर आया। विपक्ष द्वारा शोर मचाने, माइक फेंकने, कुर्सियां तोड़ने, वॉक-आउट करने आदि की घटनाएं बढ़ गईं।
सांसदों की विवशता (Compulsion of MPs) यह है कि चुनाव जीतने के लिए पार्टी का मंच होना जरूरी है। पार्टी का टिकट पाने के लिए पार्टी के वरिष्ठ लोगों की निगाह में रहना, उनकी चापलूसी करना आवश्यक हो गया। चुनाव के लिए टिकट देने का अधिकार आलाकमान के हाथों में सिमट गया। इस प्रकार सत्ता की बागडोर बहुमत वाले दल से भी आगे बढ़कर बहुमत प्राप्त दल के नेता के पास सिमट गई। इसका परिणाम और भी भयानक हुआ, कोई एक शक्तिशाली व्यक्ति अपने पूरे दल को अपनी उंगलियों पर नचाना आरंभ कर देता है। लोकतंत्र वस्तुत: एक व्यक्ति या एक बहुत छोटे से गुट के शासन में बदल जाता है।
अमेज़न पर उपलब्ध मेरी किताब "भारतीय लोकतंत्र : समस्याएं और समाधान" (Indian democracy: problems and solutions) में इन सब बातों के ज़िक्र के साथ इसका भी वर्णन है कि कैसे एक बहुमत प्राप्त सत्तासीन प्रधानमंत्री कोई भी कानून बनवा सकता है, वह जनता की गाढ़ी कमाई से आये टैक्स के पैसे का कितना भी दुरुपयोग करे, कोई सवाल नहीं उठता है। ये दोष किसी एक व्यक्ति के नहीं हैं, ये प्रणालीगत दोष हैं। हमारे संविधान में हुए कुछ संशोधनों ने संविधान की प्रासंगिकता ही खत्म कर दी और अब हमारी शासन व्यवस्था इतनी दूषित है कि इसे बदले बिना इन कमियों से निजात पाना संभव नहीं है।
भारतीय शासन व्यवस्था के कुछ और पहलुओं पर गौर करना भी आवश्यक है। भारतवर्ष में यदि सरकार द्वारा पेश कोई बिल संसद में गिर जाए तो सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है, इसीलिए पार्टियां ह्विप जारी करती हैं। हमारे देश में वही व्यक्ति मंत्रिपरिषद् में शामिल हो सकता है जो किसी सदन का सदस्य हो, या मंत्रिपरिषद में शामिल होने के 6 माह के भीतर वह किसी सदन का सदस्य बन जाए। इससे योग्यता गौण हो जाती है, चुनाव जीतना प्रमुख कार्य हो जाता है। ऐसे लोग मंत्री हो जाते हैं जिन्हें अपने विभाग का जरा भी ज्ञान नहीं होता, यही कारण है कि नौकरशाही मंत्रियों पर हावी रहती है।
शासन व्यवस्था की दूसरी बड़ी कमी यह है कि इसमें जनता की भागीदारी का कोई प्रावधान नहीं है, जनता की राय के बिना बनने वाले कानून अक्सर अधकचरे होते हैं जो जनता का हित करने के बजाए नुकसान अधिक करते हैं। यह समझना भी आवश्यक है कि जनता की तो छोड़िए, चुने हुए जनप्रतिनिधियों, यानी सांसदों और विधायकों की भी कोई भूमिका नहीं है। समस्या यह है कि यह स्थिति खुद हमारे अपने संविधान के कारण पैदा हुई है।
हर शासक दल, एक-एक करके सारे सिस्टम तोड़ता और बर्बाद करता रहा है। सिस्टम के अभाव के कारण भ्रम की स्थिति है जिससे भ्रष्टाचार बढ़ता है। यही कारण है कि सत्तर साल की आजादी के बावजूद हमारा देश विकसित देशों की जमात में शामिल होने के बजाए आज भी सिर्फ एक विकासशील देश ही है।
पी.के. खुराना
लेखक एक हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।