उत्तर प्रदेश का एक अनाम कस्बा कासगंज अचानक ही दुनियाभर की सुर्खियों में आ गया लेकिन कोई सकारात्मक कार्य के लिए नहीं अपितु गणतंत्र दिवस के दिन हुई हिंसा में जिसके फलस्वरूप एक व्यक्ति की मौत हो गयी, एक घायल हो गया और लाखों की सम्पति स्वाहा हो गयी।
क्या हुआ कासगंज में जो 26 जनवरी के दिन जब पूरा देश हमारे गणतंत्र होने का जश्न मना रहा था तब ‘वीर’ पुरुषों का एक जत्था वीर अब्दुल हामिद चौराहे से जुड़ी मुस्लिम बस्ती के गुजर के जाने की कोशिश कर रहा था। मुस्लिम समुदाय के लोग तिरंगा फहराने की तैयारी में थे और सड़क पर लोगों के बैठने के लिए कुर्सियां रखी थीं।
‘देशभक्तों’ की टोली शायद इसलिए नारेबाज़ी करने के लिए उतावली थी कि मुसलमान शायद तिरंगा न फहरा रहे हों और उन्हें जोर-जोर से चिढ़ा- चिढ़ा कर नारे लगाने के मौके मिलें। जिन लोगों ने उत्तर प्रदेश के दंगों को अपनी आँखों से देखा है वे बता सकते हैं कि कैसे ‘देशभक्तों’ की टोली मुस्लिम मुहल्लों और दुकानों के बगल से गुजरते समय हाइपर हो जाती है।
‘तेल लगा कर डाबर का, नाम मिटा तो बाबर का’ या “भारत में रहना यदि होगा/ वन्दे मातरम् कहना होगा” और नित नए इजाद किये हुए नारे जिनका एक मात्र उद्देश्य मुसलमानों को उत्तेजित करना होता है, ताकि फिर झगड़े का बहाना मिले। लेकिन कासगंज में मुसलमानों ने तो मिलजुलकर गणतंत्र दिवस मनाने का कार्यक्रम बना दिया था। बहसबाजी में तनाव बढा जिसमें अभिषेक गुप्ता उर्फ़ चन्दन नमक एक छात्र की मौत हो गयी और नौशाद नामक एक व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गया, कई गाड़ियों और दुकानों को आग लगा दी गयी।
इस घटनाक्रम की ईमानदारी से जांच होनी चाहिए और दोषी लोगों के विरुद्ध कार्यवाही होनी चाहिए, लेकिन अब दंगो का स्वरूप बदल गया है। अब
देश के एक समाज को खलनायक बनाकर उनके खिलाफ मुहिम चलाना और फिर देश में दंगा फसाद भड़काने का खुल कर ऐलान करना क्या राष्ट्रद्रोह नहीं होता, लेकिन ट्विटर और फेसबुक जैसे संस्थानो ने भारत के शासकों के समक्ष अपने घुटने टेक दिए हैं।
इसलिए कासगंज के ट्वेंटी ट्वेंटी के महत्त्व को समझिये।
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268"
data-ad-slot="8763864077">
कासगंज में तो दो दिन में शांति हो जायेगी और जिनके घर में मौत हुई है उनका मातम भी होगा, जिनका नुक्सान हुआ है वे भरपाई के साधन ढूंढेंगे, लेकिन नेता कई दिनों तक हँसते हुए मोमबत्ती जलाएंगे। लेकिन सबसे बड़ा खतरा ये है कि असल में ट्वेंटी ट्वेंटी का ये मैच टी वी स्टूडियोज का टेस्ट मैच बन गया है जिसके सहारे कई दिन तक मसला गरम तवे पर रखा रहेगा ताकि राजनीति की रोटियां सेंकी जा सकें।
कासगंज एटा और अलीगढ के बीच का एक छोटा सा क़स्बा और आज एक अलग जिला। क्षेत्र में असलाह, गोली बारूद मिलना कोई नयी बात नहीं, लेकिन हाँ दंगा फसाद या सांप्रदायिक दंगा कोई बार-बार नहीं। मुस्लिम आबादी शहर में एक तिहाई होगी। झगड़ा या फसाद क्यों हुआ, इस पर मैं अलग-अलग चैनलों या प्रवाचको की रिपोर्टिंग पर नहीं जाऊंगा। कुछ कहते हैं कि हिन्दुओ को वन्दे मातरम् और भारत माता की जय बोलने पर दंगा भड़क गया तो दूसरे कहते है कि मुसलमान तिरंगा फहरा रहे थे और हिन्दुओं ने उनको ऐसा करने से रोका और भगवा फहराने को कहा तो दंगा हो गया। वैसे चाहे दंगा हो या कोई और हिंसा, इनके पीछे के कारणों को समझे बगैर हम उसको सही से विश्लेषित नहीं कर सकते।
जैसे कि मैं कई बार कह चुका हूँ कि टी वी में पार्टी के प्रचार करने को अगर पत्रकारिता कहते हैं तो हर एक पार्टी को अपना चैनल खोल लेना चाहिए और अपनी खबरों को लिए लॉयल पत्रकार रखने चाहिएं, लेकिन तब आप पर पार्टी का होने का तगमा लगता है। आज के शातिर सत्ताधारी जानते हैं कि इमरजेंसी के दौरान दूरदर्शन और आकाशवाणी को सरकारी भोंपू कहा जाता था, हालाँकि खबरे देने में उनके अन्दर इतनी तुच्छता नहीं है जो आज के दौर के चड्ढी मीडिया में आई है, जो खबरों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने में माहिर हो चुका है।
पत्रकारिता के गिरते स्तर पर वाकई में चिंता होनी चाहिए, लेकिन बहुतों के लिए ये मनुवादी स्वर्णिम युग है, जहां वैज्ञानिक उपलब्धियों के जरिये जातिवाद, अन्द्श्रद्धा और संकीर्णताओं को महिमंडित किया जाए। एक जमाने में लोग कहते हैं कि लिखित में बात आ गयी तो सदा सच लेकिन अब तो अर्नब ने कह दिया तो भक्तों के लिए ब्रह्म वाक्य है। हिटलर के दौरान मीडिया ने उसके कुकर्मो को महान बताकर काम किया, जनता को धोखा दिया और आज का हमारा मीडिया उसी रस्ते में जा चुका है।
आखिर कासगंज इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया?
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268"
data-ad-slot="8763864077">
मैंने तो मेरठ, बिजनौर, मुरादाबाद, कानपुर आदि के दंगों के बारे जाना तो वो बहुत दिनों तक चले और कम से कम राष्ट्रीय कहलाने वाला मीडिया थोड़ा संवेदनशील रिपोर्टिंग करता था, लेकिन अब तो भयावह दौर है, जब मीडिया देश के सुरक्षा और सामाजिक एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है और इसे ढंग से नहीं समझा गया तो देश में स्थिति बहुत गंभीर हो जायेगी।
दरअसल आज के पत्रकार रिपोर्टिंग के बजाये पार्टी के प्रवक्ता बन बैठे हैं। पत्रकारिता अब एक रास्ता बन चुका है सत्ता तक पहुँचने का और इसलिए इसका सबसे बड़ी त्रासदी हुई कि सरोकार ख़त्म हो चुके हैं और अब केवल आरोप-प्रत्यारोप का दौर है।
वैसे ये कहा जाता है कि जब हम दमन के सबसे भयावह दौर से गुजर रहे होते हैं तभी अच्छे जनोन्मुख साहित्य का भी सृजन होता है। अच्छी पत्रकारिता भी तभी चमकती है लेकिन आज के सेल्फ पब्लिसिटी के दौर में दोनों ओर से ऐसे खेल खेले जा रहे हैं, जो बहुत खतरनाक है।
लेकिन ये भी हकीकत है कि सोशल मीडिया की धमक और दबंग और धमकी भरे अंदाज में आत्मविश्वास से बोलने की शैली पसंद की जा रही है, फलतः नौजवान जिसे मेहनत कर नए आइडियाज विकसित करने चाहिए था, वो आज मोदी शाह योगी की शैली में अपने को विकसित कर सीधे राजनीति में प्रवेश करना चाहता था। पहले लोग जनता के साथ जुड़ कर काम करते थे, लेकिन अब जनता से कोई लेना देना नहीं। उग्र बोल कर और दिख कर लाइम लाइट में आकर, सोशल मीडिया में या तथाकथित मुख्यधरा के मीडिया में आकर धीरे- धीरे ब्रांड बनाकर लोगों के बीच मसीहा के तौर पर छवि बनाकर हम राजनीति के नए दौर में है। इसमें केवल मोदी के भक्त नहीं है, इसमें अपने को सामाजिक न्याय और सेकुलरिज्म के नामी गिरामी झंडाबरदार भी शामिल हैं और जिससे इस पूरी लड़ाई को संघ बनाम सेकुलरिज्म का रूप देकर अन्तः संघ को ही वॉक ओवर मिल जाता है क्योंकि संघी तो ग्राउंड में भी हैं चाहे अफवाहे फैला रहे हों लेकिन उनके सबसे प्रबल विरोधी कहने वाले या अपनी धमकियां गिनने वाले भी तो इवेंट मैनेजमेंट ही कर रहे हैं।
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268"
data-ad-slot="8763864077">
कासगंज की घटना में मनुवादी टीवी के एक ब्राह्मण एंकर ने मुसलमानों को मार डालने की धमकी को ट्वीट किया। ये वो मोहतरमा हैं जो लगातार गाली गलोज कर रही हैं, लेकिन अभी तक उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई है। हाँ उनके फैन्स की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो ये दर्शाता है कि हमारे समाज का लेवल कहा है और इसे क्या चाहिए। इन्ही मोहतरमा के साथ चैनल में काम करने वाले एक और महाशय ने ट्वीट किया के ‘ भारत में वन्दे मातरम कहने पर गोली की सजा मिलती है’। अगर भारत में वन्दे मातरम नहीं कहेंगे तो कहाँ। इंडिया टुडे से जुड़े मेल टुडे के एक बड़े ‘नेता’ ने किसी राहुल उपाध्याय नामके ‘हिन्दू’ के मरने की खबर को ट्वीट किया जो न तो कासगंज का रहने वाला था और जिसकी मौत मुंबई में दो दिन पहले हुई थी। कासगंज पुलिस ने भी इसका खंडन कर दिया । लोग सोशल मीडिया को गाली दे रहे हैं लेकिन सवाल इस बात का है के जो मीडिया के नाम पर मेनस्ट्रीम की दूकान चला रहे है वो इतने गैर जिम्मेवार क्यों हो गए हैं। क्या उनके विरुद्ध कोई क्रिमिनल मामला बनता है या नहीं। जैसे मधु किश्वर ने फर्जी खबर ट्वीट कर द्वेष का माहौल खड़ा करने की कोशिश की वैसे ही ये मीडिया के संघी प्रवक्ताओ का खेल चल रहा है जिस पर सरकार को कार्यवाही करने की जरुरत है। वैसे तो हमें ये मालूम है न तो सरकार और न ही मीडिया समूह इस पर कोई कार्यवाही करेगा क्योंकि खेल तो उन्ही का है।
कासगंज का दंगा तो दो दिन में बंद हो जाता है लेकिन मीडिया द्वारा परसेप्शन बिल्डिंग चलता रहता है। जैसे चन्दन के माँ पिता उसको अब शहीद का दर्जा मांग रहे है। मतलब एक फौजी जो अपनी क़ुरबानी देता है देश की सीमाओं पर, उसको अब गली मुहल्लों में नारे लगाने वाले लोगों के बराबर में आँका जाए।
चन्दन का चन्दन और लाल टीका युक्त फोटो उत्तर प्रदेश में संघ के प्रचार की तस्वीर बनेगा। वो बिलकुल परफेक्ट है के कैसे एक ‘देशप्रेमी’ बच्चे को देशद्रोहियों ने मार दिया। दूसरे चन्दन के परिवार के सदस्यों ने भी मातम के दौरान तिरंगा ओढ़ा हुआ था। देश के झंडे को अब आपसी रागद्वेष में मारने वाले लोग पे लपेटने लगे और फिर सरकार 20 लाख का मुआवजा देने को तत्पर हो तो वह यह बताये कि उसके मुआवजे की नीति क्या है ? पुलिस या अर्द्ध सैनिक बलों के जवानों को अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए मरने को ‘शहीद’ नहीं बोला जाता और शायद ही कभी सरकार ने इतना मुआवजा दिया हो।
मैं सीधे तो नहीं कहूँगा कि दंगा क्यों हुआ, लेकिन बरेली के जिलाधिकारी राघवेन्द्र विक्रम सिंह ने एक बहुत बेहतरीन पोस्ट में लिखा : अजब रिवाज बन चुका है, मुस्लिम मुहल्लों में जबरदस्ती जलूस ले जाओ, और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाओ। क्यों भाई, वे पाकिस्तानी है क्या ? यही यहाँ बरेली के खैलम में हुआ, फिर पथराव हुआ, मुक़दमे लिखे गए। एक अन्य पोस्ट में सिंह लिखते है के चीन के खिलाफ नारे क्यों नहीं, वो तो बड़ा दुश्मन है। तिरंगा लेकर चीन मुर्दाबाद क्यों नहीं ?”।
राघवेन्द्र विक्रम पहले सेना में रह चुके हैं और फिर प्रान्तीय प्रशासनिक सेवा में आने के बाद अभी बरेली के जिलाधिकारी हैं। उन्होंने बहुत बड़ी बात कह दी है लेकिन शायद वह भी जानते हैं कि देशभक्ति का ये ट्रेंड ही उसके नाम पर दुकानदारी चलाने वालों का ट्रेडमार्क है और सत्ता तक पहुँचने का रास्ता जिसमें मीडिया कोरस सिंगर की भूमिका निभा रहा है। उम्मीद है राघवेन्द्र सिंह अपने पद पर बने रहेंगे क्योंकि अभी कुछ दिनों पहले उनका एक और पोस्ट था जिसमें उन्होंने पद्मावत का विरोध करने वालों को भी आड़े हाथो लिया।
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268"
data-ad-slot="8763864077">
कासगंज की आग तो बुझ जाएगी और जिनका सब कुछ बर्बाद हुआ वे फिर से अपनी जिंदगी पटरी पर लाने की कोशिश करेंगे लेकिन अब चुनाव का दौर है। पहले लोग चुनाव में अपने काम और वायदे के दम पर आते थे लेकिन अब आग लगाकर और एक पूरे समुदाय को खलनायक बनाकर चुनाव जीतना शायद ज्यादा आसान लग रहा है इसलिए ये आग जलती रहेगी और इसे कभी बुझने नहीं दिया जाएगा क्योंकि ये सत्ता तक पहुँचने का सबसे आसान रास्ता है। लेकिन समझदार जनता इन खतरनाक मंसूबो पर पानी फेर सकती है केवल थोडा संयम, समझदारी और आपसी भाईचारे से।
नारों और जुमलो से अगर देश का विकास होता तो हम दुनिया के सबसे महान और शक्तिशाली देश होते लेकिन ऐसा नहीं है।
हमारे देश की मजबूती का केवल एक ही रास्ता है और वो यह के संविधान की सर्वोच्चता को माने, कानूनों का बिना जातिद्वेश के पालन हो, धार्मिक जुलूसो, जलसों पर पाबन्दी हो, राष्ट्रीय पर्व सब मिल जुलके मनायें और एक दूसरे को जलील करने के प्रयास न हो। वन्दे मातरम् गाने में कोई दिक्कत नहीं लेकिन इसको दूसरों को चिढाने और दंगा फसाद करवाने के उद्दश्य से गाने वाले भी दंगाई हैं और उन पर कार्यवाही होनी चाहिए।
देश की मजबूती में हम सबकी भागीदारी चाहिए, लेकिन अगर देश आपस में ही एक नहीं है तो मजबूती कैसे आएगी।
सेना, पुलिस, प्रशासन से देश मज़बूत नहीं बनता और अगर किसी को ये ग़लतफ़हमी है तो उसे ख़त्म करे। भारत आज एक है तो इसलिए कि हम सबमें एक रहने का इतिहास है और साथ रहने का निर्णय लिया है। सदियों के साथ रहने की परंपरा को सत्ता की राजनैतिक रोटियां सेंकने वालों के कहने पे तबाह न करें इसी में हम सबकी भलाई है।
पुनश्च - इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक राहुल उपाध्याय नोएडा का रहने वाला है और जिंदा हैं। उसने पुलिस को इसकी जानकारी दी कि उसकी मौत की खबर दिखाकर मीडिया अशांति फैलाना चाहता है।